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गांधी उपनाम को लहराने वाले और गांधी टोपी को चमकाने वाली पार्टियों में अंदरखाने कोई रिश्ता है, इस बात पर कयास लगते रहे हैं मगर इस बार पहली बार संभवत: चीजें साफ हो गईं।
कांग्रेस की प्रमुख विरोधी, भारतीय जनता पार्टी को उकसाने के लिए आम आदमी पार्टी (आआपा) का उसके कार्यालयों पर हमला बोलना इस बात का संकेत है कि पर्दे के पीछे बड़ा खिलाड़ी कोई और है, जो सुरक्षित दूरी बनाए रखते हुए पूरा तमाशा देख रहा है।
यह अचानक नहीं हुआ कि आआपा ने अपना निशाना बदल लिया। भ्रष्टाचार की पर्याय बनी कुनबा कांग्रेस से देश को मुक्त कराने की विलंबित ताल जब बीच-बीच में बेवजह भाजपा नाम गुनगुनाने लगी तब ही साफ हो गया था कि यह राग क्यों छेड़ा गया है। आज मुख्य मुद्दा गौण है और व्यवस्था से भागने वालों ने भ्रष्टाचार को नेपथ्य में छिपाते हुए पूरा जोर उस ओर लगा दिया है जहां कांग्रेस चाहती थी।
दिल्ली में कांग्रेस के भ्रष्टाचारी शासन के खिलाफ बने माहौल को मोड़ और मतों को विभाजित कर आआपा ने भ्रष्टाचार पर प्रहार किया या सिर्फ भाजपा को रोकने का काम, आज यह सवाल फिर से ताजा हो गया है।
केजरीवाल दो सौ पन्नों से ज्यादा का जो पुलिंदा शीला दीक्षित के खिलाफ लहराते हुए दिल्ली के मंदिर मार्ग थाने जाने की बात करते दिखते थे वह कहां खो गया और भ्रष्टाचार विरोध की डफली बजाने वाले गिरोह कैसे कांग्रेस की तरफ पीठ फेर गुजरात को आगे रख अंतत: भाजपा विरोध के तौर पर संगठित होने लगे, यह देखने लायक है।
मंशा संभवत: यही थी भी। अरविंद केजरीवाल को पुलिस द्वारा आचार संहिता की याद दिलाना भी यदि पत्थरमार हुड़दंगियों को न्योतना है तो लोगों को यह सोचना होगा कि सीधे-सच्चे इंसान का नकाब समाज में किस अराजक पागलपन को पोस रहा है। शालीन चेहरे के साथ व्यवस्था विरोध के नारे उछालने और साल भर अलग-अलग मंचों और महानुभावों का लाभ उठाकर जो लोग सामने आए उन्होंने बौराए लोगों की भीड़ तैयार करने के अलावा क्या और कितना किया है, यह हिसाब अब लगना ही चाहिए ।
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