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हम जिस समाज में रहते हैं, उसमें दो वर्ग है, महिला और पुरुष। इन की संख्या गणना के अनुसार कम या ज्यादा होती रहती है। लेकिन इन्हीं में जब हम किसी इंसान को खोजने निकलते हैं तो पाते हैं कि समाज में ऐसे बहुत ही कम लोग हैं,जो सुख-दु:ख, हानि-लाभ, जीवन-मरण जैसी अनेक परिस्थितियों में एक इंसान की भांति हमारा सहयोग व साथ देते हैं । असल मायनों में मनुष्य के वेश में वे ही इंसान कहलाने के अधिकारी होते हैं, जो इंसानियत की भाषा को समझते हैं। पर समाज में ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम होती है। आज प्रत्येक क्षेत्र में इतनी आपाधापी है कि व्यक्ति उस आपाधापी में इंसानियत के कार्य को भूलकर कुछ और ही बन जाता है। उसे ध्यान नहीं रहता कि,जिस समाज को,घर को, संस्थान को आपसे प्रेम, अच्छी भाषा की, व्यवहार की, सबके साथ मिलकर चलने की अपेक्षा है वह आप में सिर्फ इंसानियत से ही आ सकती है। मनुष्य तो सभी हैं,लेकिन जो इंसानियत को मानें और उसकी भाषा को समझें असल में तो वही सच्चा इंसान है।
पुस्तक ह्यइंसानियत के फंडेह्ण लेखक एन. रघुरामन की ऐसी ही पुस्तक है, जिसमें 66 कहानियों को संकलित किया गया है। ये कहानियां किसी न किसी इंसान से जुड़ी हैं और जीवन में प्रेरणा देती हैं। यह पुस्तक प्रत्येक पुरुष हो या स्त्री सभी को इंसानियत से अवगत कराती है। यह बताती है कि इंसान के अपने कुछ मूल्य और घर, संस्थान के प्रति प्रतिबद्धता होती है, जिन्हें पूर्ण करने पर ही वह इंसान कहलाने का अधिकारी होता है। ऐसी ही एक कहानी ह्यमहान व्यक्ति अच्छे इंसान भी होते हैंह्ण में लेखक ने एक घटना का जिक्र करते हुए लिखा है, कि वर्ष 1950 में मुबंई में एक परिवार, जिसमें तीन बहनों के बीच एक अकेला भाई सतीश, जो कैंसर से पीडि़त था और जिंदगी और मौत से लड़ रहा था। इस भयंकर रोग के उपचार के लिए उसे मुंबई के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया। हालत में सुधार न होते देख डॉक्टरों ने उसे घर ले जाने की सलाह दी। मौत से लड़ रहे सतीश की एक अन्तिम इच्छा थी कि वह मंुबई में हो रहे सितारवादक पं. रविशंकर के कार्यक्रम को सुने, लेकिन उसकी हालत इतनी खराब थी कि उसे ऑडिटोरियम तक ले जाना खतरों से भरा था। मौत से लड़ रहे व्यक्ति की अन्तिम इच्छा को परिवार का कौन व्यक्ति पूरा नहीं करना चाहेगा। सतीश की एक बहन ने कार्यक्रम स्थल पर पहुंचकर भीड़ में किसी प्रकार अपने भाई की अन्तिम इच्छा को प�%A
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