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द्वारका गुजरात के समुद्र तट पर बसे शहर का वह स्थान है, जहां द्वापर में भगवान श्रीकृष्ण ने मथुरा छोड़ने के बाद द्वारका नगरी बसाई थी। जिस स्थान पर उनका स्वयं का महल ह्यहरि गृहह्ण था, वहां आज प्रसिद्ध द्वारकाधीश मंदिर है। पूर्णावतार श्रीकृष्ण के आदेश पर विश्वकर्मा ने इस नगरी का निर्माण किया था। जरासंध के लगातार आक्रमणों से विवश होकर श्रीकृष्ण ने मथुरा से सभी स्वजनों और मथुरावासियों को लाकर द्वारका में बसाया था। महाभारत में द्वारका का विस्तृत वर्णन है इसलिए श्रीकृष्ण भक्तों की दृष्टि में यह एक महान तीर्थ है। वैसे भी द्वारका नगरी आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित देश के चार धामों में से एक है। यही नहीं द्वारका नगरी पवित्र सप्तपुरियों में से एक है। स्कन्द पुराण में उल्लेख है कि जो पुण्य वाराणसी, कुरुक्षेत्र एवं नर्मदा की यात्रा करने से प्राप्त होता है, वह द्वारका में जाने मात्र से ही प्राप्त हो जाता है। यह भी कहा जाता है कि द्वारका यात्रा मुक्ति का चौथा साधन है।
द्वारिकाधीश मंदिर परकोटे के भीतर है, जिसके चारों और द्वार हंै। सात मंजिले मंदिर का शिखर 235 मीटर ऊंचा है। परिक्रमा दो दीवारों के मध्य से की जाती है। इसकी निर्माण शैली बड़ी आकर्षक है। शिखर पर करीब 84 फुट लम्बी बहुरंगी धर्मध्वजा फहरती रहती है। जिस समय ध्वजारोहण होता है उस समय एक विशाल उत्सव होता है। यह भी कहा जाता है कि द्वारका धाम की ध्वजा विश्व की सबसे बड़ी ध्वजा है। द्वारिकाधीश मंदिर के गर्भगृह में चांदी के सिंहासन पर भगवान श्रीकृष्ण की चतुर्भुजी प्रतिमा विराजमान है, जो कि काले रंग के पत्थर से निर्मित है। द्वारिकाधीश अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और कमल धारण किए हुए हैं। बहुमूल्य अलंकरणों तथा सुंदर वेशभूषा से सजी प्रतिमा हर किसी का मन मोह लेती है। वर्तमान समय में यहां इन्हें रणछोड़ भी कहा जाता है, लेकिन वह मूल मूर्ति नहीं है। वह मूर्ति डाकोर में है, जबकि लाडवा गांव में एक कुएं से जो मूर्ति प्राप्त हुई थी, वह द्वारका में विद्यमान है। मुख्य मंदिर के पास त्रिविक्रम भगवान और राजा बलि की मूर्ति विराजमान है। मंदिर में मां अम्बा की सुंदर मूर्ति भी है। द्वारका के मुख्य मंदिर के दक्षिण में काले रंग की एक मूर्ति स्थापित है, जिसे प्रद्युम्न जी की मूर्ति कहते हैं। वहां बलदेव जी एवं अनिरुद्ध की मूर्ति भी है। यहां कुशेश्वर का शिव मंदिर है,जिसके लिए कहा जाता है कि कुशेश्वर के दर्शन के बगैर द्वारकाधीश के दर्शनों का कोई फल नहीं मिलता है। द्वारकाधीश मंदिर के दक्षिण में गोमती धारा पर चक्रतीर्थ घाट है। उससे कुछ ही दूरी पर अरब सागर है, जहां समुद्रनारायण मंदिर स्थित है। इसके समीप ही पंचतीर्थ हैं। वहां पांच कुओं के जल से स्नान करने की परम्परा है। बहुत से भक्त गोमती नदी में स्नान करके मंदिर दर्शन के लिए जाते हैं। यहां से 56 सीढि़यां चढ़ कर स्वर्ग द्वार से मंदिर में प्रवेश कर सकते हैं। मंदिर के पूर्व दिशा में शंकराचार्य द्वारा स्थापित शारदा पीठ स्थित है। इससे आगे सत्यभामा मंदिर, जामबन्ती, राधा, लक्ष्मी-नारायण और माधव जी के सुंदर मंदिर हैं।
द्वारकापुरी की परिक्रमा रणछोड़ जी के मंदिर से शुरू होती है। गोमती के घाटों से होकर उत्तर को भ्रमण किया जाता है। नगर के बाहर रत्नेश्वर महादेव, सिद्धनाथ महादेव, ज्ञान कुण्ड, दामोदर कुण्ड, रुक्मिणी मंदिर, भागीरथी घाट, कृकलास कुण्ड और सूर्यनारायण मंदिर होते हुए रणछोड़ जी के मंदिर पर ही परिक्रमा समाप्त हो जाती है। द्वारका से कुछ दूरी पर राम-लक्ष्मण का भव्य मंदिर है। यहीं वल्लभाचार्य की 84 बैठकों में से एक बैठक है। निकट की सीताबाड़ी एवं पाप-पुण्य का एक छोटा सा द्वार है। हिन्दुओं के चार धामों में से एक गुजरात की द्वारिकापुरी मोक्ष तीर्थ के रूप में जानी जाती है। द्वारका के बारे में जो पौराणिक कथा आती है, उसके अनुसार सतयुग में महाराजा रैवत ने समुद्र के मध्य कुश पर यज्ञ किया था। फलत: इसे कुशस्थली कहा गया, जब यहां कुश नामक राक्षसों ने लोगों का जीना दूभर कर दिया तो ब्रह्मा जी ने त्रिविक्रम भगवान को उनका वध करने हेतु प्रगट किया। भगवान ने दानव को भूमि में गाड़कर उस पर कुशेश्वर महादेव की स्थापना कर दी। भगवान ने उसे वर भी दिया कि जो कुशेश्वर का दर्शन नहीं करेगा उसके द्वारका दर्शन के पुण्य का आधा भाग राक्षस को प्राप्त होगा। द्वारिकाधीश मंदिर से लगभग 2 किलोमीटर दूर एकांत में रुक्मिणी का मंदिर है। एक अन्य कथा के अनुसार रुक्मिणी को दुर्वासा ऋषि ने कृष्ण वियोग का श्राप दिया था। श्रीकृष्ण ने तब उनका मनोबल बढ़ाते हुए कहा कि उनकी मूर्ति पूजा यथावत होती रहेगी। यद्यपि द्वारकाधीश के मंदिर का कई बार जीर्णोद्धार हुआ है, लेकिन मूर्ति पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है। कहते हैं कि वर्तमान मूर्ति को सर्वप्रथम वातनाथ ने स्थापित किया था। उसके बाद मूर्ति का स्थान कई बार बदला, ऐसी भी मान्यता है।
विशेषता
यहां के विशाल भवन सूर्य और चंद्रमा के समान प्रकाशवान तथा मेरु के समान उच्च थे। नगरी के चतुर्दिक चौड़ी खाइयां थीं, जो गंगा और सिंधु के समान थीं और उनके जल में कमल के पुष्प खिले थे तथा हंस आदि पक्षी क्रीड़ा करते थे। द्वारका की लम्बाई बारह योजन तथा चौड़ाई आठ योजन थी तथा उसका उपनिवेश (उपनगर) परिमाण में इसका द्विगुण था। द्वारका के आठ राजमार्ग और सोलह चौराहे थे, जिन्हें शुक्राचार्य की नीति के अनुसार बनाया गया था। द्वारका के भवन मणि, स्वर्ण, वैदूर्य तथा संगमरमर आदि से निर्मित थे। उसे स्वयं विश्वकर्मा ने बनाया था। श्रीकृष्ण जी के बैकुंठ में जाने के पश्चात समग्र द्वारका, श्रीकृष्ण का भवन छोड़कर समुद्रसात हो गयी थी, जिसका विष्णु पुराण में उल्लेख है। इन्द्रधनुष डेस्क
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