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महान समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया के कथनानुसार अल्पकालीन धर्म का नाम है राजनीति और दीर्घकालीन राजनीति का नाम है धर्म। लेकिन इस्लामी राजनीति और इस्लाम के प्रकांड मुल्ला मौलवी और कानून विशेषज्ञ यह कहते चले आए हैं कि इस्लाम इस व्याख्या से परे है। जो राजनीति है वही मजहब है और जो मजहब वही राजनीति है। लेकिन अधिकांश, अशांत और अराजकता से पीडि़त रहने वाले मुस्लिम राष्ट्र अब यह स्वीकार करने लगे हैं कि मजहब और राजनीति को बहुत लम्बे समय तक एक साथ नहीं रखा जा सकता है। पिछले दिनों मुस्लिम देशों में इस प्रकार के कानून बने हैं और वहां के शासकों ने इस प्रकार के निर्णय लिए हैं जिससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि छठी शताब्दी के कानून और व्यवस्था के नियम 21वीं शताब्दी में उपयोगी नहीं हो सकते हैं। इसलिए इन दिनों विश्व के अनेक मुस्लिम राष्ट्रों में इस प्रकार का बदलाव देखने को मिल रहा है। परिस्थितिवश वहां के शासकों ने बदलाव के इस परम सत्य को स्वीकार किया है। एक समय था कि राजनीतिक क्रांति करने वाले अपनी उठापटक को जायज और सफल करने के लिए प्राचीन समय के कानूनों को लागू करके यह सिद्ध करना चाहते थे कि वे जो कर रहे हैं अपने मजहबी ग्रंथों के आधार पर कर रहे हैं। एक समय था कि ईसाई राष्ट्र भी इस ग्रंथी से पीडि़त थे। लेकिन प्रोटेस्टेंट विचारधारा ने ऐसी क्रांति की कि यूरोप और अमरीका की सत्ता अनेक देशों में स्थापित हो गई। यहूदी राष्ट्र इस्रायल का भी यही चिंतन था। आज भी उसकी छाया से वह पूरी तरह से मुक्त नहीं हुआ है। लेकिन विज्ञान की दुनिया में जो शोध और खोज होती रही उसमें यहूदी वैज्ञानिकों के योगदान से इसका दायरा विस्तृत भी होता रहा। प्राचीन समय में धर्म सत्ता को न केवल प्राप्त करने का, बल्कि उसको लम्बे समय तक चलाने का एक ताकतवर माध्यम था। लेकिन वैज्ञानिक प्रगति ने इसकी दीवारों को या तो हमेशा के लिए गिरा दिया अथवा छोटा कर दिया। शोकांतिका यह रही कि इस्लाम मुल्ला-मौलवियों के इस शिकंजे से मुक्त नहीं हो सका। जिसका खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ा है। लेकिन 21वीं शताब्दी में अब यह बेडि़यां टूटती हुई दिखाई पड़ रही हैं। इसलिए मध्य पूर्व के इस्लामी विचारक अब यह कहने लगे हैं कि क्या अब इस्लामी राज सत्ता और व्यवस्था जिसका स्रोत कुरान और सुन्ना है, उससे दूर हो रही है? आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक बदलाव के लिए क्या उसमें परिवर्तन की शुरुआत हो गई है?
इस्लामी लहर
शुरुआत यदि भारतीय उपखंड से की जाए तो बंगलादेश हमारे सामने मौजूद है। एक समय था कि मुजीबुर्रहमान की हत्या के पश्चात् जनरल जियाउर्रहमान की तूती बोलने लगी। इस्लाम के नाम पर ऐसी लहर चली कि बंगलादेश कराहने लगा। लेकिन कट्टरवाद के जब पैर उखड़े तो जमाते इस्लामी के नेताओं को फांसी पर लटक जाने की बारी आ गई। आज बंगलादेश में राष्ट्रवाद सिर चढ़ कर बोल रहा है। वहां का हर नेता यह कहने लगा कि मजहब की राजनीति खेलकर बंगलादेश को पीछे धकेल दिया गया। वर्तमान प्रधानमंत्री और ह्यसुप्रिम कोर्टह्ण के न्यायाधीश ने इस बात को सिद्ध कर दिया कि मजहब का प्रतिशोध के लिए तो उपयोग किया जा सकता है, लेकिन किसी राष्ट्र की प्रगति के लिए कदापि नहीं। ईरान का इस्लामी बम विश्व की ताकतों को भयभीत तो कर सकता है, लेकिन ईरान के सामान्य व्यक्ति को रोटी, पकड़ा और मकान नहीं दे सकता। आयतुल्ला खुमैनी से लेकर अहमद निजादी तक कट्टरवाद की राजनीति खेलते रहे। लेकिन हमने देखा कि जिस ईरान के राष्ट्रपति हसन रूहानी ने सीरिया के मामले में अमरीका और इस्रायल तथा सऊदी अरब को धूल चटा दी। उसी रूहानी ने अमरीका से परमाणु बम के निर्माण और नीति के मामले में अपने देश के हित के लिए अमरीका के सामने माथा टेक दिया। यानी मजहबी कट्टरता के नाम पर अपने देश का अहित नहीं होने दिया।
मजहब की अफीम
मध्य-पूर्व और अरब देशों में इस्लाम को माध्यम बना कर वहां के शेखों, राजाओं और तानाशाह लम्बे समय से राज कर रहे हैं। लेकिन इन दिनों वहां जो परिवर्तन की हवा है वह इस बात को साबित कर रही है कि इन सत्ताधीशों ने इस बात को समझ लिया है कि मजहब की अफीम बहुत दिनों तक अब काम नहीं करने वाली है। सऊदी अरब में महिलाओं को अधिकार दिए जाने की चर्चा चल रही है। कुछ ही समय में वहां की सड़कों पर महिलाएं कार ड्राइव करती हुई दिखाई पड़ें तो आश्चर्य की बात नहीं। सऊदी युवा जो पढ़ लिख गया है वह अब काम चाहता है। इसलिए वहां की सरकार को नताका कानून पास करके विदेशी मजदूरों को अपने देश से बाहर निकालने का कानून लागू करना पड़ा है। 60 के दशक में चौथी कक्षा में पढ़ने वाली एक लड़की से स्कूल का निरीक्षण करने आए एक निरीक्षक ने जब यह पूछा कि तुमने इस कविता को मौखिक क्यों कर लिया? तब उसने उत्तर दिया क्योंकि मैं इससे प्रेम करती हूं। प्रेम शब्द सुनते ही उस अधिकारी पर मानो बिजली गिर गई हो। प्रेम शब्द बोलने के दंड स्वरूप उसे न केवल पाठशाला से निकाल दिया गया, बल्कि शिक्षा विभाग ने अपना आदेश जारी कर दिया कि इस कम्बख्त और बदतमीज लड़की को सऊदी की कोई पाठशाला प्रवेश न दे। अब उसी सऊदी ने पिछले ओलम्पिक के उद्घाटन समारोह के समय होने वाली परेड में अपनी दो महिलाओं को भाग लेने के लिए भेजा। मध्यपूर्व के अनेक मुस्लिम राष्ट्रों ने अपनी पाठ्यपुस्तकों में से कुरान और सुन्ना के अंश निकाल दिए। मिस्र, ट्यूनीशिया, मोरक्को और अल्जीरिया में पर्दे की पाबंदी समाप्त कर दी गई। इतना ही नहीं वहां की पाठ्य पुस्तकों में से जिहाद शब्द को दूर कर दिया गया। साप्ताहिक पत्र अल आलमुल इस्लामी लिखता है कि कुवैत सरकार ने विद्यालयों में पर्दे को प्रतिबंधित कर दिया है। कोई भी छात्रा अब बुर्के का उपयोग नहीं कर सकती है। राबता इस्लामिक न्यूज एजेंसी के एक न्यूजलेटर के अनुसार यदि परीक्षा में शामिल होते समय कोई छात्रा पर्दे में आती है तो उस पर कानूनी कार्रवाई की जा सकती है।
पाठक भली प्रकार जानते हैं कि ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, आर्मीनिस्तान, किरगिस्तान और अजरबैजान सहित 6 देश सोवियत रूस के भाग थे। लेकिन जब सोवियत रूस टूटा तो ये सभी देश आजाद हो गए। किसी समय यहां इस्लामी साहित्य बड़े पैमाने में तैयार किया गया था। समरकंद और बुखारा के गीत गाते हुए आज भी मुस्लिम इतिहासकार थकते नहीं हैं। सोवियत रूस के प्रभाव में भी उनका इस्लामी चरित्र कितना बदला यह खेज का विषय है। लेकिन जब रूस से स्वतंत्र हुए तो कट्टरवादियों ने वहां के चरित्र को बदल देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसका विशेष प्रभाव भी अनेक मामलों में देखने को मिला। लेकिन अब फिर से इन राष्ट्रों में प्रगतिशीलता की लहर चल पड़ी है। कुछ लोगों का यह मानना है कि यह पूर्व सोवियत रूस का प्रभाव हो सकता है, लेकिन ऐसा भी नहीं है। विकास के नाम पर यहां अरब राष्ट्रों से जो लोग पहुंचते थे वे साथ में इस्लामी कट्टरवाद का चिंतन लेकर जाते थे। लेकिन अभी हाल ही में तुर्की के अखबारों में जो कुछ छप रहा है उसे पढ़कर तो ऐसा लगता है कि ये राष्ट्र फिर से अपनी कला और संस्कृति के प्रवाह में लौट रहे हैं।
अलविदा कट्टरवाद
ह्यइस्लाम ऑन लाइनह्ण से प्राप्त जानकारी के अनुसार ताजिकिस्तान के शिक्षा मंत्री ने अपने एक आदेश द्वारा वहां के विद्यालयों में ऐसे पाठ्यक्रम की शुरुआत की है जिसमें कट्टरवाद को तनिक भी स्थान न मिले। इसके लिए देश में लोकतांत्रिक वातावरण होना चाहिए। इसलिए अब वहां जम्हूरियत (लोकतंत्र) के गीत गाए जा रहे हैं। विशेष ध्यान इस बात पर दिया जा रहा है कि अन्य मत-पंथों के मामले में कोई संकीर्णता नहीं बरतनी चाहिए। इसलिए दुनिया के बड़े पैगम्बरों की जीवनियों का विशेष रूप से समावेश किया गया है। आश्चर्य तो यह है कि इसमें पारसी और कनफ्यूशियस मत का विवरण भी मिलता है। इन देशों में किसी समय भगवान बुद्ध की बड़ी लोकप्रियता थी। इसलिए कुछ सालों में वहां फिर से ह्यबुद्धम शरणं गच्छामिह्ण के गीत गाए जाने लगें तो आश्चर्य की बात नहीं। सूफियों में महिला सूफी राबेआ के विषय में भी पढ़ाया जाता है। पाठकों को बता दें कि पूर्व सोवियत रूस के इन देशों पर कभी ईरान का बड़ा प्रभाव था। मध्य-पूर्व के मामलों के जानकार मुतीउल्ला नाइब ताजकी ने ह्यइस्लाम ऑन लाइनह्ण को बताया है कि हमारा मुख्य उद्देश्य अलगाववाद और सशस्त्रीकरण की विचारधारा से आने वाली पीढ़ी को बाहर निकालना है। उनमें समरसता और समानता का भाव पैदा हो, यह हमारा मुख्य लक्ष्य है। इस क्षेत्र के कट्टरवादी विचारकों का कहना है कि ताजिक सरकार येनकेन प्रकारेण आज की पीढ़ी को अलगाव और घृणा से बाहर निकालना चाहती है। कट्टरवादी स्वयं को शास्त्रों से लैस करना चाहते हैं, लेकिन सवाल उठता है किसके लिए? हमारा देश और हमारी ताजिक संस्कृति इतने परिपक्व हैं कि हमें किसी से भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है। मजहब के साथ इंसानियत जुड़ी रहे यही बुनियादी रूप से इस्लाम का संदेश है। इसलिए जब सभी पंथ हमारे पैसे ही हैं तो हमें उनसे दूर भागने की क्या आवश्यकता है? ताजिकिस्तान का जो राष्ट्रगीत तैयार किया गया है उसमें कहा गया है कि दुनिया के सभी देश एक माला के मोती हैं। यदि हम अपना मूल्यवान मोती सुरक्षित करना चाहते हैं तो इसके लिए पहली गारंटी इस बात की होनी चाहिए कि हम दूसरों को सुरक्षा देने में विश्वास रखते हैं। सुरक्षा का पैमाना किसी का भय, गुलामी अथवा उसमें स्वार्थ नहीं होना चाहिए। मुजफ्फर हुसैन
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