|
इसे समय का दोष कहें या वर्तमान आबोहवा की देन कि आएदिन बलात्कार या छेड़खानी की वारदातें सामने आ रही हैं। तरुण तेजपाल के मामले ने तो यह बहस छेड़ दी है कि जिस देश में वर्ष में दो बार कन्या-पूजन किया जाता है, उस देश में व्यक्ति इतना क्यों गिर रहा है कि उसे बेटी समान लड़की और पत्नी में कोई फर्क ही नहीं दिखने लगा है। पहले मैं अपनी एक नाटिका की पात्र की चर्चा करती हूं। नाटिका में एक साथ कई लोग एक सोई पड़ी स्त्री को जगाने आते हैं। उसकी शक्ति की याद दिलाते हैं। वह एक-एक से सवाल पूछती है- मैं कौन हूं? सर्वप्रथम स्त्री ही स्त्री को जगाती है। स्त्री कहती है-ह्यतुम मां, बहन, बेटी, सखी और भी रिश्ते में बंधी हो।ह्ण वह सोई हुई स्त्री उसे धिक्कारती है। कहती है-ह्यतूने ही मुझे अपने बेटे से भिन्न करके समझा। मेरे हिस्से का दूध अपने बेटे को पिलाया। मुझे मारा-पीटा, यहां तक कि भ्रूण में ही मार डाला। जाओ मैं तुम्हारे जगाए नहीं जागूंगी। पुरुष भी स्त्री के साथ अपने रिश्तों की दुहाई देता है। उसे भी फटकार कर भगाती है। फिर आता है समाज। समाज से भी प्रश्न पूछती है। वह कहता है- मेरी गाड़ी का एक पहिया। स्त्री उसे ललकारती है। सदियों से उसे प्रताडि़त होते देखते आए समाज के जगाए वह नहीं जागेगी। फिर आता है संगठन। संगठन कहता है- सभी पारिवारिक, सामाजिक रिश्तों से पूर्व तुम मानवी हो। वह स्त्री कहती है- ह्यहां, मैं मानवी हूं। मैं जागूंगी, जिऊंगी, अपनी शक्ति से मनुष्य का निर्माण और परिवार-समाज का रक्षण करूंगी।ह्ण
यह सच है कि समाज ने स्त्री को परिवार की धुरी मान लिया। उसे प्रकृति ने सृष्टि को अक्षुण्ण रखने के लिए शिशु को नौ माह गर्भ में रख, प्रसव वेदना की जघन्य पीड़ा सहकर उसे जन्म देने का दायित्व दिया है, तो संस्कृति ने बच्चे का लालन-पालन से लेकर संपूर्ण परिवार के सुख-सुविधाओं का ध्यान रखने का कार्यभार नारी पर डाला।
भारतीय स्त्री के सुदूर इतिहास को छोड़ भी दें तो 20वीं सदी के उत्तरार्द्घ तक भी बड़े मनोयोग से अपने प्रकृति और संस्कृति प्रदत्त दायित्वों को निभाने के कारण ही मानवी का स्थान समाज में पुरुषों से भी ऊंचा रहा।
हर पूजा में पति के साथ पत्नी की उपस्थिति अनिवार्य कर दी गई। महिला को पुरुष की ह्यइज्जतह्ण मानकर उसकी विशेष सुरक्षा और सम्मान का वातावरण और पुरुष व्यवहार रहा।
बीसवीं सदी में कुछ-कुछ बदलने लगा। पश्चिम में ह्यनारी मुक्तिह्ण का नारा क्या आया हमारे यहां भी बड़े मनोयोग से पति-पुत्र और घर-परिवार वालों के लिए भोजन बनाने वाली महिलाओं के कार्यों को पुरुषों द्वारा उसका शोषण माना जाने लगा। बच्चा पैदा करना भी नारी शोषण की श्रेणी में रखने वाले सिरफिरों की कमी नहीं रही। नारी के मानवी और पुरुष के सहयोगी का रूप गौण पड़ता गया। उसे मात्र शरीर मानने वालों ने उसके भोग्या रूप को ही प्रचारित-प्रसारित किया। नतीजा हुआ कि स्वयं नारी भी अपनी देह को ही तवज्जो देने लगी। दूसरी ओर पुरुषों को प्रतिद्वन्द्वी मानकर बदला लेने की मानसिकता में आने लगी।
घर-आंगन में अखाड़े खड़े कर दिए गए। ह्यपुरुष प्रधानह्ण समाज की दुहाई देकर स्त्री की स्थिति पर आंसू बहाने वाले तथाकथित प्रगतिशील जनों ने स्त्री को पुरुष के साथ बराबरी के दंगल में खड़ा कर दिया। वह बराबर नहीं ह्यविशेषह्ण थी।
पिछले सात दशकों में स्त्री को पुरुष के बराबर लाने का शोर सबओर मचता रहा है। आज भी मच रहा है। परंतु पिता, भाई, पति, पुत्र से लेकर समाज में भी पुरुषों को संबल देने वाली महिला का हाथ आज मांगने की स्थिति में आ गया है। कानून और न्याय की मांग करती महिला पुरुषों के रहम की पात्रा बनती जा रही है। ह्यमर्ज बढ़ता गया, ज्यों ज्यों दवा कीह्णह्ण की स्थिति आ गई है। बिहार में एक कहावत प्रचलित है-ह्यह्यबेटा मांगने गई, पति चढ़ौना चढ़ा कर आई।ह्णह्ण विचारणीय विषय है कि पति ही नहीं रहा तो बेटा आएगा कहां से। विकास और बराबरी के नाम पर भारतीय नारी ने बहुत कुछ खोया है। जिसे हम विकास कह रहे हैं वह मानवी का स्वरूप नहीं है। महियसी महादेवी वर्मा ने 1980 में ही एक सभा में महिलाओं को आगाह किया था- ह्यह्यआप ह्यवस्तुह्ण बनोगे तो पुरुष आपको खरीदेगा, बेचेगा। आप व्यक्ति बनो। अपने मानवी रूप को समझो और संवारो।ह्णह्ण
बाजार में तब्दील हो गई इस दुनिया, जिसमें भारत सबसे बड़ा बाजार है, स्त्री के मानवी रूप की बिल्कुल पहचान नहीं है। या तो वह स्वयं मात्र पैसा कमाने की ओर अग्रसर है या समाज में उसे भी वस्तु के रूप में देखा-परखा जा रहा है। बराबरी की मांग करने वाली स्त्रियों का पुरुषों से मौन या मुखर टकराव हो रहा है। समाज में अव्यवस्था लाने के विरुद्घ ह्यतहलकाह्ण मचाने वाला तरुण तेजपाल स्वयं एक युवती के साथ छेड़छाड़ और बलात्कार के मामले में फंसा है। ताज्जुब तो इस बात का है कि महिला के विरुद्घ अत्याचार के मामलों में फंसे इस व्यक्ति को तथाकथित प्रगतिशील जन क्षमादान देना चाहते हैं।
नारी की सुरक्षा और सम्मान के लिए बड़ी घोषणाएं होती हैं। सरकारी और सामाजिक पहल भी होते हैं। पर ढ़ाक के तीन पात। दरअसल अपने परिश्रम के बल पर महिलाएं जल, थल, नभ पर तो जा रही हैं। उपलब्धियां हासिल कर रही हैं, परन्तु मानवी के नाते जो उनका दायित्व है उससे कुछ दूर अवश्य हटी हैं। मृदुला सिन्हा
टिप्पणियाँ