चपल चतुराई
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चपल चतुराई

by
Dec 7, 2013, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 07 Dec 2013 17:26:18

बचपन में एक कविता सुनी थी- चेतक। उसके लेखक हैं श्यामनारायण पाण्डेय। उनके वीररस काव्य ह्यहल्दीघाटीह्ण  की वे पंक्तियां मन  में उथल-पुथल मचा देती हैं जिनमें राणा प्रताप के घोड़े चेतक की युद्घक्षेत्र में विस्मयकारी चाल का वर्णन करते हुए वे कहते हैं, ह्यरणबीच चौकड़ी भर भर कर चेतक बन गया निराला था, राणा प्रताप के घोड़े से पड़ गया हवा का पाला था, क्षण यहाँ गया क्षण वहां गया ————इत्यादि।ह्ण क्या वेग था, क्या चपलता थी चेतक की चाल में ! उस स्वामिभक्त वीर घोड़े और उस पर आरूढ़ देशभक्त राणा प्रताप दोनों की आत्माओं से क्षमादान की प्रार्थना करते हुए कहना चाहूंगा कि जीवन में बिरले ही क्षण आते हैं जब चेतक की चपल चाल का सजीव नमूना कहीं सामने देखने को मिले।
पर  हमें मिला! उस चंचल चाल का सजीव प्रदर्शन पिछले दिनों देखने को मिला एक आधुनिक महारथी के वक्तव्यों में! अपनी अद्भुत वीर्यता (क्षमा करें गलत लिख गया, मेरा तात्पर्य वीरता से था) का खुलासा हो जाने के बाद उन्होंने कई चालें दिखाईं। सबसे पहले तो अपने बाहुबल से निर्मित पत्रकारिता के महल से छ: महीने का वनवास ले लिया। सोचा होगा वन में रहकर निर्बाध रूप से भोली भाली हिरणियों का शिकार कर सकेंगे। शहरी सभ्यता में पली बढ़ी हिरणियां केवल मासूम नेत्रों से देख, भयभीत होकर शिकारी के सामने अब नतशिर नहीं होतीं। वे अपनी रक्षा का प्रयत्न करने के लिए भले बदनाम की जाएं, स्वयं शिकार बन जाने को आतुर बतायी जाएँ पर गले में फांस की तरह फंस जाती हैं। ऐसे शहरी जागरूक शिकार से परेशान शिकारी वनवास की सोचे ये कोई आश्चर्य की बात नहीं थी, भले वह इसे अपने पश्चाताप का प्रमाण बताकर हिंसा स्थल से चुपचाप फरार हो जाना चाहे।
पर जब  कातर हिरनी की करुण पुकार इस वनवास की घोषणा से भी ऊंची ध्वनि बनकर सबको सुनायी पड़ने लगी तो चेतक की तरह इस शिकारी ने भी पैंतरा बदला। कहने लगा कि यह क्षणिक आवेश में हो गया एक छोटा सा अपराध था जिसे वह स्वयं भुला देने योग्य मानता था फिर घायल हिरनी को भी इतनी समझ होनी चाहिए थी कि इस क्षीण अपराध से ध्यान हटाकर अपने स्वर्णिम भविष्य की तरफ देखे जिसमें एक सोने के बाड़े में उसके चरने के लिए ढेर सारी हरी मुलायम घास थी।
हिरनी  मासूम नहीं, मूर्ख निकली। उसने शिकारी के दिखाए हुए स्वर्णिम भविष्य की तरफ से मुंह फेर लिया। शिकारी का मानना था कि यह मूर्खता उसे वे बड़े बड़े पशु सिखा रहे थे जिनको मेहनत से खोदे हुए गड्ढों में बिछाए जालों में उसने कभी फंसाया था और जो अब बदले की आग में झुलस कर भोली हिरनी के पीछे छुपकर शिकारी पर तीर चला रहे थे। अब ह्यतुम डाल डाल, हम पात पातह्ण वाली गति से शिकारी ने एक बिलकुल नयी चाल दिखाई। बोला न मैंने तीर चलाया, न मैंने पश्चाताप की बात कही। यदि तीर चला होता तो हिरनी उसके बाद दम तोड़ कर वहीं मर न जाती? वह वन में फिर भी चलती फिरती दिखाई कैसे दी? वैसे शिकारी ने ये बात अपने पुराने शिकारों की याद करके कही थी जो एक बार उसके जाल में फंसे तो फिर विलुप्त ही हो गए। इस बार शिकारी ने यह नयी चाल चलनी शुरू की तो उसकी चाल के करतब देखने के लिए बड़े-बड़े लोग आकर खड़े हो गए। पहले कुछ ने धीरे से ताली बजायी। फिर धीरे-धीरे उसके वे समर्थक जमा होने लगे जिन्होंने पहले शिकार  हुए हिरणों का मांस स्वाद ले-ले कर खाया था। कुछ ऐसे भी जुटे जिनका कहना था कि हिरनियों को अपने मासूम नयनों और पतली-पतली टांगों से शिकारियों को रिझाना ही नहीं चाहिए था, यदि वह रीझ गया तो ऐसा क्या अनर्थ हो गया। उस पर से क्षमा भी मांगी। फिर तो उसे तुरंत क्षमादान दिया जाना चाहिए।
लेकिन कुछ  ऐसे लोग भी थे जो इस  झगड़े में पड़े ही नहीं  कि शिकारी दोषी था या  निर्दोष। वे तो चेतक की तरह उसकी चपलता देखकर ही मुग्ध हो गए। कुछ ने कहा खिचड़ी बाल हों या चेहरे पर चिंता की उकेरी हुई रेखाएं, इतने वषोंर् से युद्घक्षेत्र में जमा हुआ यह शिकारी आज भी कितना तरुण लगता है। किसी और ने कहा उसके चेहरे पर अपने पेशे के प्रति प्रतिबद्घता का तेज झलकता है। इस अर्थ में वह सचमुच तेजपाल है। अरुणेन्द्र नाथ वर्मा

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