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आज सरदार वल्लभ भाई पटेल की 137 वीं जयंती है। सरदार की जयंती को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाना चाहिए। किंतु कांग्रेस सरकारों ने इस दिन की पूरी तरह उपेक्षा की। और यह उपेक्षा नेहरूकाल से ही प्रारंभ हुई। यह मात्र संयोग नहीं है कि राजधानी दिल्ली में सरदार की जयंती पहली बार सार्वजनिक रूप में 31 अक्तूबर, 1964 को ही मनायी गई। 15 दिसम्बर 1950 को उनके देहावसान से लेकर 1964 तक उनकी जयंती क्यों नहीं मनायी जा सकी? क्या इसके लिए 27 मई 1964 को नेहरू जी के देहावसान की प्रतीक्षा करना अनिवार्य हो गया था? यह भी मात्र संयोग नहीं है कि सोनिया वंश की सरकार 2004 से सत्ता में होने के बाद आज पहली बार उस सरकार के एक मंत्रालय ने सरदार की जयंती के उपलक्ष्य में एक छोटा सा विज्ञापन दैनिक पत्रों में प्रकाशित किया है, किंतु उसी मंत्रालय ने श्रीमती इंदिरा गांधी के बलिदान दिवस के उपलक्ष्य में कई गुना बड़ा विज्ञापन छपवाया है। दोनों विज्ञापनों की भाषा भी बहुत अर्थपूर्ण है। सरदार पटेल पर छोटे से विज्ञापन का उपयोग अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के ह्यपूर्ण नाशह्ण के लिए किया गया है, तो इंदिरा जी वाले विज्ञापन में उनकी बलिदान परंपरा के आगे बढ़ने का अर्थपूर्ण संकेत दिया गया है। इंदिरा गांधी के बलिदान का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने मुट्ठी भर खालिस्तानी आतंकवादियों से सरदार पटेल द्वारा निर्मित एकता की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए कि 2004 से अब तक के दस वर्षों में नेहरू जी, इंदिरा जी, और राजीव की जन्मतिथि व पुण्यतिथि के अवसर पर भारत सरकार के सब मंत्रालयों में पूरे या आधे पृष्ठ के बड़े-बड़े विज्ञापन देने की होड़ लग जाती थी पर सरदार पटेल को एक बार भी स्मरण नहीं किया गया तो इस बार ही उन पर यह अनुकंपा क्यों की जा रही है?
दरबारियों में घबराहट
इसका एक ही कारण समझ में आता है कि पिछले कुछ समय से गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सरदार पटेल बांध से 3 किलोमीटर की दूरी पर नर्मदा नदी के बीच एक टापू पर सरदार की 182 मीटर ऊंची लौह प्रतिमा स्थापित करने का संकल्प घोषित किया है और इस प्रतिमा को ह्यएकता प्रतिमाह्ण का नाम देकर स्वाधीन भारत को एक करने में सरदार के अप्रतिम योगदान का स्मरण दिलाना शुरू किया है, तब से नेहरू वंश की छत्रछाया में सत्ता का सुख भोग रहे चापलूस दरबारियों की टोली में घबराहट फैल गयी है। स्वाभाविक ही, स्वाधीन भारत की राष्ट्रीय एकता के सूत्रधार के रूप में सरदार का महिमा-मंडन होते ही नेहरू की असफलताओं का कच्चा चिट्ठा भी आंखों के सामने खड़ा हो जाता है।
ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने भारत छोड़ते समय भी पांच सौ से अधिक भारतीय रियासतों को पूर्ण स्वतंत्र घोषित करके खंडित भारत के बिखराव की स्थिति पैदा कर दी थी। उस समय यदि सरदार ने इन रियासतों का भारत संघ में विलीनीकरण का बोझ अपने कंधे पर न लिया होता तो भारत का क्या होता, यह जम्मू-कश्मीर नामक उस एकमेव रियासत के 66 वर्ष लम्बे इतिहास से स्पष्ट हो जाता है, जिसको नेहरू ने अपना एकाधिकार बना लिया था और सरदार की बार-बार की चेतावनियों को अनसुना कर दिया था। और कश्मीर के प्रश्न को सरदार के मंत्रालय से अलग करके अपने पास ले लिया था। इस विषय को हम विस्तार से 8 जुलाई 1971 के पाञ्चजन्य में ह्यशेख अब्दुल्ला को स.पटेल ने सही पहचाना था, नेहरू जी ने नहीं।ह्ण शीर्षक में लिख चुके हैं। क्या यह स्मरण दिलाने की आवश्यकता है कि पिछले 66 वर्षों में कश्मीर समस्या ही भारत के लिए सिरदर्द बनी हुई है कश्मीर के लिए पाकिस्तान से कई युद्ध हो चुके हैं, अपार संख्या में सैनिक और धनशक्ति कश्मीर में खप चुकी है, लाखों कश्मीरी हिन्दू वहां से निष्कासित होकर अपने ही देश में शरणार्थी बन चुके हैं। कश्मीर समस्या पूरी तरह नेहरू जी की देन है, यह समस्या ही भारत की विदेश और रक्षानीति की धुरी बनी हुई है।
वह तो भला हो सरदार का कि उन्होंने निजाम की हैदराबाद रियासत के विलय पर नेहरू के विरोध को अनसुना करके वहां सेना भेज दी अन्यथा निजाम अपनी स्वतंत्रता की घोषणा करके हैदराबाद के प्रश्न को राष्ट्र संघ में ले गया होता और कासिम रिजवी की सशस्त्र रजाकार फौज द्वारा वहां की भारत भक्त हिन्दू जनता पर जुल्मों के अम्बार ढहा देता। इस विषय को विस्तार से जानने के लिए नेहरू मंत्रिमंडल के एक सदस्य एन.वी. गाडगिल की संस्मरणात्मक पुस्तक ह्यगवर्नमेंट फ्राम इन्साइडह्ण, क.मा.मुंशी की ह्यदि एंड आफ एन एसह्ण(एक युग का अंत) और आई.सी.एस.अफसर वी.पी.मेनन की ह्यइंडिग्रेशन आफ स्टेटसह्ण जैसी पुस्तकों में समकालीन साक्षियां पढ़ना उचित रहेगा। यदि सरदार न होते तो हैदराबाद भारत के पेट का नासूर बन गया होता।
चीन समस्या जो आज भारत की सुरक्षा के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है यह समस्या पूरी तरह नेहरू ने पैदा की है। नेहरू की अदूरदर्शिता के कारण ही चीन तिब्बत को हज्म कर सका, लद्दाख के अक्साई चीन क्षेत्र पर अधिकार जमा सका। सरदार ने अपनी मृत्यु के लगभग एक महीना पूर्व 7 नवम्बर 1950 को नेहरू को तिब्बत में चीन के विस्तारवादी इरादों के बारे में चेतावनी देने के लिए एक बहुत लम्बा पत्र लिखा था और इस सम्बंध में प्रत्यक्ष मिलने की इच्छा प्रगट की थी, किंतु नेहरू जी उनकी चेतावनी को कोई महत्व न देकर हिन्दी चीनी भाई भाई का नारा लगाते रहे। जिसकी भारी कीमत राष्ट्र को आज तक चुकानी पड़ रही है। सरदार का यह ऐतिहासिक पत्र, जो अंतरराष्ट्रीय प्रश्नों पर उनकी सूक्ष्म दूरदृष्टि का परिचायक है, क.मा.मुंशी की ह्यपिलग्रिमेज टू फ्रीडमह्ण नामक पुस्तक में 175 से 181 पृष्ठ तक मुद्रित है।
वहीं पूर्व विदेश सचिव के.पी.एस.मेनन की 1965 में प्रकाशित पुस्तक ह्यमैनी वर्ल्डजह्ण (अनेक संसार) का उद्धरण भी उपलब्ध है जिसमें उन्होंने कहा कि 1950 में कैबिनेट की विदेशी मामलों की समिति में गोवा को भारत का अंग बनाने के प्रश्न पर चर्चा के समय सरदार ने कहा कि ह्ययह केवल दो घंटे का काम है।ह्ण पर नेहरू ने सैनिक कार्यवाही के उनके सुझाव का कड़ा विरोध किया और वह बात टल गयी। अन्तत: नेहरू को 1962 में गोवा में सैनिक कार्रवाई का आदेश देना पड़ा।
ब्रिटिश सरकार द्वारा बारह खंडों में प्रकाशित ह्यट्रांसफर आफ पावरह्ण शीर्षक दस्तावेजों के अध्ययन से विदित होता है कि सरदार ने बौद्ध जनसंख्या बहुल चटगांव क्षेत्र को पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) का अंग बनाने के लार्ड माउंट बेटन के प्रयासों का कड़ा विरोध किया। पर इस क्षेत्र के नौसैनिक महत्व के कारण ब्रिटिश सरकार उसे भारत से अलग करने पर उतारू थे। अन्तत: माउंट बेटन ने अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नेहरू का सहयोग लिया जिससे सरदार को चुप रह जाना पड़ा।
वंश के ढोलची
ऐसे अनेक उदाहरण तत्कालीन इतिहास के पन्नों पर अंकित हैं, किंतु नेहरू वंश का ढोल पीटने वाले दरबारियों का इतिहास ज्ञान शून्य से अधिक नहीं है। उन्हें यह पता ही नहीं है कि उस समय का कांग्रेस संगठन गांधी के बाद सरदार पटेल को ही अपना वास्तविक नेता मानता था। वह नेहरू जी को महज एक भावुक लफ्फाज के रूप में देखता था। 1920 के बाद कांग्रेस संविधान के अनुसार कांग्रेस अध्यक्ष का चयन प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों की अनुशंसा के आधार पर किया जाता है। इस संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार तीन बार सरदार को कांग्रेस अध्यक्ष बनने का अवसर मिल रहा था- 1928, 1936 और 1946 में। किंतु पता नहीं क्यों किन्हीं कारणों से हर बार गांधी जी ने नेहरू को अध्यक्ष बनाने की इच्छा प्रगट की। 1946 में तो कांग्रेस का अध्यक्ष पद बहुत ही निर्णायक महत्व का था क्योंकि उन दिनों ब्रिटिश सरकार से सत्ता हस्तांतरण के लिए समझौता वार्ता व पत्राचार चल रहा था। इस वार्तालाप में कांग्रेस अध्यक्ष की महत्वपूर्ण निर्णायक भूमिका रहती थी। यह भी स्पष्ट था कि सत्ता हस्तांतरण की स्थिति में कांग्रेस अध्यक्ष को ही भावी प्रधानमंत्री बनने का अवसर मिल सकता है। 1946 में अध्यक्ष पद के लिए 15 प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों में से 12 ने सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया, शेष तीन ने उस समय के महासचिव आचार्य कृपलानी का नाम प्रस्तावित किया। किंतु किन्हीं कारणों से गांधी जी उस समय भी नेहरू जी को ही अध्यक्ष बनवाना चाहते थे। उनके निर्देश पर आचार्य कृपलानी ने अपना नाम वापस लेकर नेहरू का नाम चला दिया, और गांधी जी ने नेहरू व पटेल दोनों को अपने पास बैठाया। उन्होंने नेहरू जी से कहा कि तुम्हारा नाम तो कहीं से आया नहीं, अब तो सरदार चाहें तभी तुम अध्यक्ष बन सकते हो। सरदार ने गांधी जी के संकेत को समझ कर एक क्षण का भी विलम्ब किये बिना कह दिया कि मैं नेहरू के पक्ष में अपना नाम वापस लेता हूं। और इस प्रकार नेहरू को अध्यक्ष पद व प्रधानमंत्री पद सरदार से भिक्षा में प्राप्त हुआ। इस प्रसंग को प्रमाणिक तथ्यों के साथ हमने 11 जनवरी, 1998 के पाञ्चजन्य में ह्यसरदार पटेल प्रधानमंत्री क्यों नहीं बन सके?ह्ण शीर्षक लेख में प्रस्तुत किया है।
कांग्रेस संगठन पर सरदार की मजबूत पकड़ से नेहरू हमेशा भयभीत और चिंतित रहते थे, उन्हें हिन्दू संस्कृति से भी चिढ़ थी। गोरक्षा और हिन्दू कोड बिल जैसे प्रश्नों पर डा.राजेन्द्र प्रसाद से गहरा मतभेद होने के कारण उन्होंने डा. राजेन्द्र प्रसाद को भारत का प्रथम राष्ट्रपति बनाने के सरदार पटेल के सुझाव का विरोध किया और राजगोपालाचारी को राष्ट्रपति बनवाने की कोशिश की। किंतु उन्हें विफलता मिली। फिर उन्होंने कांग्रेस संगठन पर से सरदार की पकड़ ढीली करने के लिए 1950 में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव में सरदार के प्रत्याशी राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन के विरुद्ध आचार्य कृपलानी को अपना उम्मीदवार बनाया। पर, यहां भी उन्होंने मुंह की खायी। राजर्षि भारी बहुमत से चुने गये।
इन बार-बार की पराजयों से खिन्न नेहरू मन ही मन सरदार की मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। उन दिनों सरदार का स्वास्थ्य पूरी तरह टूट चुका था। इसके लिए भी बहुत कुछ नेहरू जी ही जिम्मेदार थे। गांधी की हत्या के बाद उन्होंने कम्युनिस्टों और समाजवादियों के सहयोग से सरदार के विरुद्ध लांछन का जो अभियान चलाया उससे सरदार पूरी तरह टूट गये थे। इस विषय को हमने 31 अक्तूबर, 1971 के पाञ्चजन्य में ह्यसरदार कुछ वर्ष और जीते अगर…ह्ण शीर्षक लेख में प्रस्तुत किया है।
अनर्गल प्रलाप
आखिर दुर्भाग्य का वह दिन आ ही गया। 15 दिसम्बर 1950 को सरदार ने बम्बई में अंतिम सांस ली। लोक दिखावे के लिए ही क्यों न हो नेहरू जी राजा जी के साथ वहां गये पर उन्होंने राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद से दिल्ली में ही रुके रहने का आग्रह किया। सरदार की चिता के सामने नेहरू जी ने श्रद्धांजलि के दो शब्द नहीं कहे। राजा जी बोले तो नेहरू जी ने इसको अच्छा नहीं माना। दो बार राष्ट्रपति रहे डा.राजेन्द्र प्रसाद के अंतिम संस्कार में तो नेहरू जी सम्मिलित हुए ही नहीं। किंतु वंशवादी चाटुकारों को इतिहास के इन वेदनादायक पृष्ठों से क्या मतलब?
सरदार पटेल और नेहरू के व्यक्तित्वों में आकाश-पाताल का अंतर है। सरदार ने अपने लिए कुछ नहीं चाहा, वे व्यक्तिनिष्ठ नहीं थे, सच्चे राष्ट्रनिष्ठ थे। उन पर गांधी जी के प्रति अंधभक्ति की छवि आरोपित कर दी गई है किंतु राष्ट्र के व्यापक हितों में जब-जब आवश्यक लगा उन्होंने गांधी जी से अपनी मतभिन्नता खुलकर प्रगट की। जबकि नेहरू जी 1928 से लेकर 1945 तक गांधी जी के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक विचारों को अस्वीकार करते रहे किंतु गांधी जी की छत्रछाया में सत्ता में आने का स्वप्न संजोकर उनकी ठकुंट सुहाती करते रहे। समाजवादी नेता मधु लिमये का चार खंडों में प्रकाशित ह्यमहात्मा गांधी और जवाहर लालह्ण शीर्षक शोध ग्रंथ इस दृष्टि से पठनीय है। वस्तुत: गांधी के साथ पटेल और नेहरू के संबंधों पर गहन प्रमाणिक शोध अभी भी होना बाकी है। इस विषय के कुछ संकेत हमने पाञ्चजन्य के 17 जुलाई 2011 के अंक में ह्यनिष्काम निर्मोही पटेल और सत्ताकामी-वंशवादी नेहरूह्ण शीर्षक लेख में दिये हैं।
वंशवादी चाटुकार नरेन्द्र मोदी की सरदार भक्ति से तिलमिलाकर सरदार को संघ विरोधी और सेकुलर चित्रित करने में लग गये हैं। उन्हें इतिहास की कोई जानकारी नहीं है। यह प्रमाणित किया जा सकता है। आज के भाषण में नरेन्द्र मोदी ने ठीक ही कहा है, ह्यजब हमने गांधी जी का स्मारक स्थापित किया तब ये चुप रहे, पर अब जब हम सरदार की विश्व में सबसे ऊंची लौह प्रतिमा पूरे भारत के किसानों के सहयोग से स्थापित कर रहे हैं तब ये आग बबूला हो उठे हैं और तरह-तरह का अनर्गल प्रलाप कर रहे हैं। यह एक प्रकार से राष्ट्र के भाग्योदय का शुभ संकेत ही है कि सरदार की लौह प्रतिमा के बहाने नारा गूंज उठा है कि सरदार ने भारत को एक बनाया, हम भारत को श्रेष्ठ बनाएंगे। -देवेन्द्र स्वरूप
31-10-2013
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