बंगलादेश में अल्पसंख्यक और उदारवादी निशाने पर
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डा. देवाशीष बोस
दिलवर को फांसी की सजा सुनाए जाने के 48 घंटे के भीतर गई 46 की जान
बंगलादेश में उदारवादियों और अल्पसंख्यकों ने कट्टरवादी जमाते-इस्लामी के खिलाफ शाहबाग चौक पर मोर्चा तो खोला, लेकिन ताजी घटनाओं से लगता है कि अब उन्हें जमातियों की हिंसा का शिकार होना पड़ रहा है। 28 फरवरी और एक मार्च, इन दो दिनों में कट्टर इस्लामवादियों ने करीब 46 जानें ले लीं। जमातियों का यह हिंसक ताण्डव जमात के उपाध्यक्ष दिलवर हुसैन सईदी को फांसी की सुनाए जाने के बाद दिखा था।
बंगलादेश में पिछले करीब 25 दिनों से ऐतिहासिक दृश्य दिख रहा है। राजधानी ढाका के शाहबाग चौक पर विगत 5 फरवरी से जनता, खासकर युवाओं का हुजूम जमा है। ये आन्दोलनकारी शांतिपूर्ण तरीके से अपनी मांगों के समर्थन में डटे हुए हैं। दिन-ब-दिन भीड़ बढ़ती जा रही है। इन आंदोलनकारियों की मांग है कि बंगलादेश के उदय के समय पाकिस्तान समर्थक युद्ध-अपराधियों को फांसी दो और जमाते-इस्लामी को अवैध घोषित कर उसकी सम्पत्तियों का अधिग्रहण करो। इस आन्दोलन को बंगलादेश के संपूर्ण मीडिया का समर्थन प्राप्त है। प्रधानमंत्री शेख हसीना ने आन्दोलन की व्यापकता को देखते हुए इसे अपना समर्थन प्रदान किया है। वहां के बुद्धिजीवी, कलाकार, रचनाकार तथा सामाजिक कार्यकर्ता भी इसमें शामिल हो गये हैं।
शुरुआत में 5 फरवरी को शाहबाग चौक पर पहले सौ ब्लॉगर इकट्ठे हुए थे, जिनके बैनर पर लिखा था-'युद्धापराधीदेर राय आमरा मानी ना, कादेर मोल्लार फांसी चाई'। (युद्ध अपराधियों के निर्णय को हम नहीं मानते हैं, कादेर मोल्ला को फांसी दो।) देखते-देखते उनके समर्थन में हजारों लोग शामिल हो गये। संख्या इतनी बढ़ती गई कि आज विश्व के बड़े सामाजिक आन्दोलनों से इसकी तुलना की जा रही है। आन्दोलन की व्यापकता के कारण शाहबाग चौक अब 'प्रजन्म 71' के नाम से लोकप्रिय हो गया है। इसके पीछे कोई राजनीतिक ताकत नहीं है। लेकिन अब सभी राजनीतिक दलों का इसे समर्थन प्राप्त है। बीएनपी ने पहले इसका विरोध किया था, लेकिन आन्दोलन की मजबूती, व्यापकता और जनापेक्षा को देखते हुए उसने भी अपना समर्थन दे दिया है। जमात के कुकृत्य के खिलाफ आम लोग स्वत:स्फूर्त आन्दोलित हुए हैं, जिनमें राष्ट्रीयता से लबरेज बंगलादेशी युवा अधिक हैं।
बंगलादेश के उदय तथा मुक्तियुद्ध की कहानी नई पीढ़ी को मालूम है। उसे मालूम है कि जमाते इस्लामी, रजाकार, अल बद्र तथा अल शम्स के खात्मे के बाद ही मुक्तियुद्ध का अधूरा सपना पूरा हो सकता है। लिहाजा ऐसे तत्वों के लिए फांसी की मांग नई पीढ़ी का नारा बन गया है। बंगलादेश के नौजवान अपनी राष्ट्रीय चेतना, मुक्तियुद्ध की किंवदन्ति, बुजुर्गों के अनुभव, पिछले प्रसंग तथा वीरत्व की गाथा को हकीकत में ढलते देखना चाहते हैं। जमात की हड़तालों के दौरान शिक्षा संस्थान, दफ्तर, अदालत और बाजार बन्द नहीं हुए। छात्र, खासकर युवतियां जमात की हड़ताल के विरोध में अधिक सक्रिय रहीं।
नई पीढ़ी के इस आन्दोलन ने चार दशकों से 'अपहृत' बंगलादेश को पा लिया है, लेकिन पड़ोस की इस बड़ी घटना की तरफ अधिकांश भारतीय मीडिया अपनी नजरें मूंदे बैठा है।
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