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रामसेतु तोड़ने के लिए
तकर्ों के तीर
सरकार ने कहा, 829 करोड़ रु. खर्च करने के बाद सेतु समुद्रम परियोजना रोकना नामुमकिन
भारत और श्रीलंका के बीच मन्नार की खाड़ी से होते हुए लगभग 30 कि.मी. लम्बा ऐसा क्षेत्र है जो समुद्री चट्टानों से ढके पुल के समान दिखता है। इसे ही श्रीराम सेतु के नाम से जाना जाता है। कुछ वर्ष पहले अमरीका के अन्तरिक्ष अनुसंधान संस्थान 'नासा' ने उपग्रह द्वारा खींचे चित्र जारी किए गए थे जिनमें स्पष्ट रूप से रामसेतु दिखता है। 2007 में केन्द्र सरकार ने सेतु समुद्रम परियोजना स्वीकृत की थी। इसका उद्देश्य है, मन्नार की खाड़ी से होते हुए समुद्री नौकाओं के लिए जल मार्ग तैयार करना। इसके लिए धनुष्कोटि के पास श्रीरामसेतु के अन्तिम छोर पर शैल खण्डों को तोड़ना पड़ेगा। सरकार का कहना है कि इस जल मार्ग के बनने से तीस घंटे का नौवहन समय और 400 कि.मी. की श्रीलंका के चारों ओर की जाने वाली यात्रा बच जाएगी। किन्तु रामसेतु करोड़ों हिन्दुओं की आस्था से सीधा जुड़ा है। इससे तोड़ा नहीं जाना चाहिए। यह मुद्दा 2008 में ही सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा था। न्यायालय ने इस पर रोक लगा रखी है। सर्वोच्च न्यायालय के दिशा–निर्देश पर पर्यावरणविद् आर.के. पचौरी की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई थी। इस समिति ने कहा है कि यह परियोजना आर्थिक व पर्यावरण, दोनों तरह से अव्यावहारिक है। इसके बावजूद सरकार ने 22 फरवरी को सर्वोच्च न्यायालय में शपथपत्र दाखिल कर कहा है कि वह सेतु समुद्रम परियोजना पर फिर से काम करना चाहती है।
प्रमोद भार्गव
कितना अच्छा होता कि आस्था का सम्मान करते हुए रामसेतु और समुद्र तटीय इलाके की विशाल आबादी की आजीविका के स्रोत सुरक्षित रखने की कोशिशें होतीं। आरके पचौरी समिति ने सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देश के पालन में सेतु समुद्रम परियोजना से जुड़े विभिन्न पहलुओं के विश्लेषण के आधार पर जो रपट दी है, उसके अनुसार पर्यावरण, धर्म-आस्था और आर्थिक दृष्टि से यह परियोजना अव्यावहारिक है।
इस परियोजना का उद्देश्य रामसेतु के बीच से मार्ग बनाकर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द-गिर्द समुद्र में जहाजों की आवाजाही के लिए रास्ता बनाना है। यह रास्ता नौवहन मार्ग (नॉटिकल मील) 30 मीटर चौड़ा, 12 मीटर गहरा और 167 किमी लंबा होगा। इतनी बड़ी परियोजना को वजूद में लाने के लिए पौराणिक काल में अस्तित्व में आए रामसेतु को क्षति तो पहंुचेगी ही, करोड़ों मछुआरों की आजीविका भी प्रभावित होगी और समुद्री क्षेत्र का पर्यावरण भी प्रभावित होगा। इस लिहाज से सेतु समुद्रम परियोजना के सिलसिले में केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में शपथपत्र देकर हास्यास्पद दलील दी है कि ‘Bb÷¨ÉÂºÉ Ê¥ÉVÉ’ अर्थात् रामसेतु हिंदू धर्म की आस्था का कोई प्रतीक नहीं है इसलिए इसे बनाए जाने में हिन्दुओं की आस्था आहत नहीं होती।
प्राकृतिक सम्पदा का भण्डार
रामसेतु क्षेत्र का समुद्र प्राकृतिक संपदा का अथाह भण्डार होने के कारण मछुआरों की रोजी और समुद्री जल-जीवों की जैविक विविधता से भी जुड़ा है। इसलिए सेतु समुद्रम परियोजना को कुछ नॉटिकल मील घट जाने और ईंधन की बचत की दृष्टि से नहीं देखना चाहिए। पहले तो आर्थिक उदारीकरण के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियों को समुद्र का दोहन करने की छूट देकर मछुआरों की आर्थिक स्वतंत्रता छीनी गई और अब पर्यावरणीय हलचल पैदा करके मछुआरों के जीवन का आधार ही उनसे छीना जा रहा है। आस्था और व्यापार की अपेक्षा रोजी और पर्यावरण की चिंता बड़ी और महत्वपूर्ण होती है। हालांकि दुनिया के किसी भी देश में ऐसा उदाहरण नहीं है कि उसने अपनी पुरातन व पुरातात्विक महत्व के विशाल और अनूठे स्मारक को तोड़कर कोई रास्ता बनाया हो। इसलिए यह हैरानी में डालने वाली बात है कि आर.के. पचौरी की रपट खारिज करते हुए सरकार धार्मिक आस्था, पुरातात्विक स्मारक, आजीविका और पर्यावरण के महत्व को एक साथ दरकिनार कर रही है।
समुद्री तटों पर बसे मछुआरों की हालत मैदानी क्षेत्रों में फैले गरीब और पराश्रित किसानों जैसी ही है। गरीब किसानों की आजीविका का जिस तरह से मुख्य साधन और साध्य खेती है, उसी तरह से उन मछुआरों को रोटी मुहैया कराती हैं समुद्री मछलियां, विभिन्न जीव-जंतु और वनस्पतियां। किसानों के लिए खेती और मछुआरों के लिए मछली पालना परंपरागत पेशे हैं। इनसे जन्मजात संस्कारों से जुड़े रहने के कारण इन लोगों को अतिरिक्त प्रशिक्षण की जरूरत नहीं रह जाती। ये बालपन से ही खेलते-खाते इन कामों में पारंगत हो जाते हैं।
हिन्द महासागर के विशाल तटवर्ती क्षेत्र के मुहाने पर रहकर मछली पकड़ने पर गुजर-बसर करने वाले मछुआरों की तादाद करीब 6.5 करोड़ है और करीब 2.5 करोड़ मछुआरे बड़ी नदियों से मछली पकड़ने के व्यवसाय से जुड़े हैं। इनके परिवार के सदस्यों की आजीविका को इन्हीं की आजीविका से जोड़ दिया जाए तो इनकी आबादी बैठती है करीब 16 करोड़। इतनी बड़ी आबादी भारत के किसी राज्य में नहीं है। महज एक परियोजना के लिए इतनी बड़ी आबादी के रोजगार, रोटी और पर्यावरण को संकट में डालकर पारिस्थितिकी तंत्र को बिगाड़ने का औचित्य समझ से परे है। इससे पारिस्थितिकी तंत्र पर विपरीत असर पड़ेगा और प्राकृतिक संपदा नष्ट होने की बुनियाद पड़ जायेगी।
पुरानी सेतु संरचना
तमिलनाडु में मन्नार की खाड़ी से पाक जलडमरू मध्य के बीच 5 जिलों में 138 गांव, कस्बे व नगर ऐसे हैं जिनकी बहुसंख्यक आबादी समुद्री जल-जीव व अन्य प्राकृतिक संपदा पर आश्रित है। इस तटवर्तीय क्षेत्र की 50 प्रतिशत आबादी कर्ज में डूबी है। ऐसे में परियोजना के जहाज यहां से गुजारने के लिए मार्ग प्रशस्त किया जाता है तो इनकी आर्थिक व सामाजिक समस्यायें रौंदे जाने का सिलसिला चल निकलेगा और विदर्भ, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश व बुन्देलखण्ड के किसानों की तरह इनके पास भी मौत को गले लगाने के अलावा कोई चारा नहीं रह जाएगा।
वैसे भी मछुआरे, उनकी महिलाएं, युवतियां और बच्चे मछलियों को पकड़ने के बाद उनके रख-रखाव सफाई जैसे मुश्किल श्रम से जुड़े हैं। इस कष्टदायी दौर से गुजरने के साथ ही कई महिलाओं को दैहिक शोषण के दौर से भी गुजरना पड़ता है। वर्तमान में हालात इतने बदतर हैं कि युवा लड़कियों को बरगलाकर अथवा अगवाकर मालवाहक समुद्री जहाजों में ढोकर दूसरे देशों में भी देह व्यापार के लिए ले जाया जाता है, जहां इन मासूमों का बेहरमी से यौन शोषण होता है।
भारतीय समुद्र की तटवर्ती पट्टी 5 हजार 660 किमी लंबी है। गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और केंद्र शासित राज्य गोवा, पुदुच्चेरी, लक्षद्वीप तथा अण्दमान-निकोबार द्वीप समूह के तहत ये विशाल तटवर्ती क्षेत्र फैले हैं। रामसेतु रामेश्वरम को श्रीलंका के जाफना द्वीप से जोड़ता है। यह मन्नार की खाड़ी में स्थित है। यहीं जो रेत, पत्थर और चूने की दीवार सी 30 किमी लंबी संरचना है, वही रामसेतु है। ‘xÉɺÉÉ’ ने इस पुल के उपग्रह से चित्र लेकर अध्ययन करने के बाद दावा किया था कि मानव निर्मित यह पुल दुनिया की सबसे पुरानी सेतु संरचना है।
हालांकि वाल्मीकि रामायण, स्कंद पुराण, ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण और अग्नि पुराण में इस सेतु के निर्माण और इसके ऊपर से लंका जाने के विवरण हैं। इन ग्रंथों के अनुसार राम और उनके खोजी दल ने रामेश्वरम् से मन्नार तक जाने के लिए वह मार्ग खोजा जो अपेक्षाकृत सुगम होने के साथ रामेश्वरम् के निकट था, जहां से राम व उनकी वानर सेना ने लंका के लिए कूच किया। माना जाता है कि 500 साल पहले तक यहां पानी इतना कम था कि मन्नार और रामेश्वरम् के बीच लोग सेतुनुमा टापुओं से होते हुए पैदल ही आया-जाया करते थे। वैसे इस क्षेत्र में ऐसे कम दबाव व भार वाले पत्थर भी पाए जाते हैं, जो पानी में नहीं डूबते। नल और नील ने जिन पत्थरों का उपयोग सेतु निर्माण में किया, था शायद ये उन्हीं पत्थरों के अवशेष हों, जो आज भी धार्मिक स्थलों पर देखने को मिल जाते हैं। इन सब साक्ष्यों के आधार पर इसके संरक्षण के लिए जनहित याचिकाएं शीर्ष न्यायालय में दायर की गईं, जिससे इस सेतु को हानि न हो। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे. जयललिता ने इस परियोजना को रोकने का प्रस्ताव लाकर इस सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने की मांग तक केंद्र सरकार से की है। यदि रामसेतु के प्रसंग को छोड़ भी दिया जाए तो जैव संसाधनों की दृष्टि से विश्व बाजार में इस क्षेत्र को सबसे ज्यादा समृद्ध क्षेत्र माना जाता है। इसकी जैविक और पारिस्थितिकी विलक्षणता के चलते ही इसे 'जैव मण्डल आरक्षित क्षेत्र' संयुक्त राष्ट्र ने घोषित किया हुआ है।
जीवित प्रयोगशाला
इस क्षेत्र का रामसेतु के बहाने पुरातत्वीय दृष्टि से ही नहीं, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्व भी है। मोती के लिए प्रसिद्ध रहा यह क्षेत्र शंख के उत्पादन के लिए भी जाना जाता है। दरअसल मन्नार की खाड़ी राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय महत्व की एक जीवित प्रयोगशाला है। यहां लगभग 3700 प्रकार के जीव व वनस्पतियों की जीवंत हलचल है, जिनमें कछुओं की 17 प्रजातियां हैं। मूंगे की 117 किस्में हैं। इस क्षेत्र मंे पाए जाने वाला दुर्लभ मैंग्रोव वृक्ष कार्बन डाइऑक्साइड का शोषण कर बढ़ते तापमान को कम करता है। बड़ी मात्रा में प्रबाल (शैवाल) भित्ति भी हैं। इसी विविधता के कारण भारत को जैविक दृष्टि से दुनिया में संपन्नतम समुद्री क्षेत्र माना जाता है।
समुद्र में उपलब्ध शैवाल (काई) भी एक महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थ है। शैवाल में प्रोटीन की मात्रा भी ज्यादा होती है। लेकिन इसे खाने लायक बनाए जाने की तकनीकों का विकास हम ठीक ढंग से अब तक नहीं कर पाए हैं। लिहाजा इसे खाद्य के रूप में परिवर्तित कर दिया जाए तो परंपरागत शाकाहारी लोग भी इसे आसानी से खाने लगेंगे। शैवाल में कहीं ज्यादा ऊर्जा होती है। आयुर्वेदिक औषधियां तथा आयोडीन जैसे महत्वपूर्ण तत्व भी इसमें होते हैं। लेकिन सेतु समुद्रम परियोजना पर अमल जारी रहता है तो शैवाल भित्ति प्रणाली पर भी विपरीत असर पड़ेगा। इसके विखण्डित होने का खतरा है। ये शैवाल भित्तियां उष्ण कटिबंधीय क्षेत्रों में न केवल खाद्य संसाधनों, बल्कि जैव रासायनिक प्रक्रियाओं में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। तटीय क्षेत्रों में ये लहरों का अवरोध बनकर, कटाव को बाधित करती हैं। 750 प्रकार की मछलियों के आहार व प्रजनन का भी यही काई प्रमुख साधन है। यदि मालवाहक जहाजों के लिए परियोजना अमल में लाई जाती है तो यहां ध्वनि प्रदूषण जल में हलचल पैदा करेगा, जिससे शैवाल की समुद्री सतह पर फैली परतें प्रभावित होंगी और इनके उत्पादन पर असर पड़ेगा।
सुनामी कहर के विश्व प्रसिद्ध विशेषज्ञ और भरत सरकार के सलाहकार डा. मूर्ति के अनुसार 26 दिसंबर 2004 को आए सुनामी तूफान के दौरान रामसेतु देश के दक्षिण हिस्से के लिए सुरक्षा कवच साबित हुआ था। इस अवरोध के परिणामस्वरूप सुनामी लहरों की प्रबलता शिथिल हुई और केरल सहित दक्षिणी इलाके भारी तबाही से बचे रहे। इस परियोजना के पूर्ण होने के बाद यदि फिर सुनामी लहरें उफनती हैं तो रामसेतु के अभाव में लहरें बड़ी तबाही का कारण बन सकती हैं। ऐसी प्राकृतिक आपदा आती है तो वैज्ञानिक व पर्यावरणविदों का मानना है कि इस क्षेत्र में पाए जाने वाले थोरियम के बड़े भण्डार नष्ट हो जाएंगे। विश्व का 30 प्रतिशत थोरियम भारत में ही मिलता है, जो यूरेनियम बनाने के काम आता है। समुद्र की गहराई बढ़ने से समुद्र में उच्च दबाव वाले ज्वार-भाटे की आशंका भी बढ़ेगी।
रोजी–रोटी का संकट
इस परियोजना के प्रभाव में आने वाले पांच जिलों की करीब 2 करोड़ की आबादी के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा, क्योंकि मन्नार की खाड़ी एवं पाक जलडमरू मध्य के किनारों पर आबाद मछुआरों के परिवार मुख्य रूप से मछलियों के कारोबार पर ही जिन्दा हैं। कुछ मछुआरे समुद्री शैवाल, शंख और मूंगे के व्यापार से भी जीवन-यापन करते हैं। प्राकृतिक संपदा के अटूट भण्डार सागर पर ही आश्रित होने के कारण उनकी जीवन शैली, संस्कृति और सामाजिक जीवन का तानाबाना उसी अनुरूप विकसित हुआ है। इसलिए जरूरी हो गया है कि मछुआरों और तटवर्ती किसानों को पुश्तैनी व्यवसायों से जोड़े रखने के लिए समुद्री जीव-जन्तुओं के भण्डार को बचाए रखना, साथ ही तटवर्ती वन एवं वनस्पतियों को पर्यावरणीय विनाश से मुक्त बनाए रखने के लिए भी इस परियोजना को बचाया जाना
जरूरी है।
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