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कुम्भ नगरी का धार्मिक वातावरण धीरे-धीरे अपने चरम की ओर बढ़ रहा है। स्नान घाटों पर 'हर हर गंगे, जै गंगा मइया' का उद्घोष अब चटख होता जा रहा है, संतों-महंतों के शिविरों से परम्परागत वाद्ययंत्रों के साथ होने वाले भजन-कीर्तन और प्रवचन अब दूर से ही श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकृष्ट कर रहे हैं। अखाड़ों के साधु-संत धूनी रमाये, चिलम चढ़ाये अपनी दुनिया में मस्त हैं। अखाड़ों की छावनियों से 'हर हर महादेव' और 'नमो नारायण' की गूंज तो सहज और स्वाभाविक रूप से सुनी जाती है लेकिन यदि किसी अखाड़े में थोड़ी देर अपना बसेरा बनाइये तो एक अलग गूंज 'अलख निरंजन' सुनायी पड़ेगी। यह गूंज भिक्षाटन करने वाली उन टोलियों की होती है जो संन्यासी बनने की राह पर हैं।
अलख निरंजन की गूंज
'अलख निरंजन' की पुकार निकालने वाले कोई और नहीं बल्कि अवधूत संन्यासियों की छावनी 'अलख दरबार' से निकले अलखियों की है, जो बाद में संन्यास की दीक्षा पाते हैं। यदि हम अपने समाज की भाषा में कहें तो 'अलख दरबार' एक पाठशाला है, जहां संन्यासी बनने की इच्छा रखने वाले हर महापुरुष को अपना पहला बसेरा बनाना अनिवार्य है। यहां आने वाले अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जो मोह-माया से प्रभावित नहीं होते। उन्हें सांसारिक जीवन की तुलना में संन्यासी जीवन ज्यादा प्रभावित करता है।
अलख दरबार के प्रमुख महंत प्रमोद पुरी कहते हैं कि संन्यासी को देखकर यह अनुमान लगा पाना कि यह कितनी परीक्षा पास करके संन्यासी बना है, आम लोगों के समझ से परे है। संन्यासी बनने के लिए 'अलख दरबार' में आने वाले सभी के लिए 'अलख' जगाना सबसे महत्वपूर्ण और अनिवार्य पड़ाव है।
कैसे जगाते हैं अलख?
अलख जगाने की प्रक्रिया जटिल भले न हो पर यह तो स्पष्ट है कि अहंकार मिटाने का इससे बेहतर उपाय नहीं हो सकता। 'अलख दरबार' की छावनी में संन्यासी बनने की अभिलाषा में आये लोगों को आचार्यों की देख-रेख में अलख जगाने की पारम्परिक दीक्षा दी जाती है। दीक्षा के बाद उनकी पहचान के लिए निर्धारित अलखी बाना या चोला पहनाया जाता है। चोला पहनाने के बाद इस सभी को चिमटा, खप्पर, भैरव झोली दी जाती है, यानि भिक्षाटन की पूरी तैयारी। अलखी का चोला पहनने वाले से अग्नि की परिक्रमा के साथ ही यह शपथ ली जाती है कि भिक्षाटन के लिए निकलने पर उनके पैर न ठिठकेंगे, न रुकेंगे।
प्रयाग कुम्भ में संन्यासी बनने की अभिलाषा में आये ऐसे तमाम महापुरुष अलख दरबार से दीक्षा लेकर अलखी चोला पहने विभिन्न अखाड़ों के एक शिविर से दूसरे शिविर में 'अलख निरंजन' की आवाज लगाते हुए भिक्षाटन कर रहे हैं। अखाड़े के साधु-संत, संन्यासी इस परम्परा के परिचित होने के साथ-साथ आगे आने वाले इन संन्यासियों की आवाज सुनते ही अपनी भिक्षा इन्हें देने के लिए अपने शिविर के सामने तैयार रहते हैं।
सबसे पहले मिटे अहंकार
महंत प्रमोद पुरी बताते हैं कि शाम को जब यह अलखी वापस अलख दरबार में आते हैं तो अधिकांश की झोली भिक्षा से भरी होती है और इसी भिक्षा से पूरे कुंभ तक सभी के लिए भण्डारा चलता रहेगा। क्या यह भिक्षाटन भण्डारे के लिए कराया जाता है? के सवाल पर महंत जी कहते हैं, 'नहीं! भिक्षाटन अहंकार मिटाने का सबसे बड़ा और सहज माध्यम है। संन्यासी में किसी प्रकार का अहंकार नहीं होना चाहिए। अहंकार के रहते कोई भी पूर्ण संन्यासी नहीं बन सकता। संन्यासी के दायित्वों का निर्वहन नहीं कर सकता।'
सबसे उल्लेखनीय तथ्य यह है कि अलख जगाने का कार्य पूर्ण करने के बाद भी इनसे एक बार फिर स्पष्ट किया जाता है कि यदि वह गृहस्थ जीवन में जाना चाहें तो जा सकते हैं? उनकी हां या ना के बाद ही उन्हें संन्यास की दीक्षा दी जाती है। फिलहाल अलखी चोला पहने इन अलखियों की टोली 'अलख निरंजन' की गूंज लगाती अपने कर्तव्य मार्ग पर अग्रसर है, जो अखाड़ों के संगम रेती पर रहने तक चलेगी।
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