|
नक्सलियों ने जिस शहीद के पेट में बम भरा, उसके पिता के गम से किसका गला भरा?
'भइया राक्षसन मिलके हमरे फूल जैसे बिटवा का मारि दिहिन… अरे गरीब के बिटवा के मारि के का मिला… उन कर कब्बौ भला न होई, उन कर कब्बौ भला न होई…।' यह कहते हुए मुन्नीलाल फफक-फफक कर जोर से रो पड़े। पास में बैठे लोग उन्हें ढांढस बंधाते हैं, 'काका चुप र।़हा…।' लेकिन मुन्नीलाल दोनों हाथों से चेहरा छिपाये देर तक रोते रहे। मुन्नीलाल का करुण रुदन सुनकर घर के अंदर बैठी महिलाएं भी 'अरे हमार भइया, अरे हमार भइया…' कहते हुए जोर-जोर से रोने लगीं। 70 वर्षीय मुन्नीलाल उन बदनसीब लोगों में हैं जिनका इकलौता बेटा बाबूलाल (28 वर्ष) झारखंड के लातेहर में नक्सलियों से हुई मुठभेड़ में शहीद हो गया। 7 जनवरी को शहीद हुए बाबूलाल का शव 3 दिन तक नक्सल प्रभावित क्षेत्र में ही रहा। नक्सली उसके शव को अपने ठिकाने पर उठा ले गये और उसका पेट चीरकर उसमें 2.3 कि.ग्रा. आईईडी विस्फोटक भरकर सिल दिया, ताकि पोस्टमार्टम के समय विस्फोट हो जाए और ज्यादा से ज्यादा जान-माल का नुकसान हो। समय रहते डाक्टरों को इसका आभास हो गया और बम निरोधक दस्ते द्वारा उसे निष्क्रिय किया गया। माओवादियों द्वारा देश में अपने तरह का यह पहला जघन्य कृत्य है जब किसी सुरक्षा बल के जवान का पेट चीरकर उसमें बम सिल दिया गया हो।
इलाहाबाद शहर से 26 किमी. दूर लखनऊ राजमार्ग पर बसे गांव मलका बलऊ के मुन्नीलाल पटेल के दु:ख की थाह पाना सहज नहीं है। पांच बेटियों तथा एक मात्र बेटे के पिता मुन्नीलाल की जीवन नैया धीरे-धीरे पटरी पर आ रही थी। उनके पास सिर छिपाने को गांव में छोटा-सा मकान, दाल-रोटी चलाने के लिए पांच-सात कट्ठा (विस्वा) भूमि और केन्द्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) में नौकरी करता बेटा ही था। परिजन बताते हैं कि मुन्नीलाल ने शुरू से ही मेहनत-मजदूरी करके लड़कियों की शादी की, बेटे को पढ़ाया-लिखाया। बेटा बाबूलाल बपचन से ही पिता के कामों में हाथ बंटाता, खेलकूद में आगे रहता, और सबसे बड़ी बात कि वह स्वभाव से मिलनसार था। 2006 में जब बाबूलाल को केन्द्रीय रिजर्ब पुलिस बल (सीआरपीएफ) में नौकरी मिली तो मुन्नीलाल को अच्छे भविष्य की आस जगी। बाबूलाल भोपाल, जम्मू से होते हुए लगभग डेढ़ वर्ष पूर्व झारखंड आ गया, जहां उसे नक्सल विरोधी अभियान में लगी 110 कोबरा रेजीमेंट में रखा गया। बेटे की नौकरी के बाद मुन्नीलाल ने बेटियों के ब्याह के समय लिए कर्ज भी लौटाये, कुछ घर-गृहस्थी भी ठीक की और गत वर्ष (मार्च, 2012) बाबूलाल का विवाह भी समीप के गांव में करा दिया।
कुछ देर तक मुन्नीलाल की आखों से आंसू बहे तो शायद दु:ख कुछ देर के लिए दूर हुआ। मुन्नीलाल ने बताया कि उनका बेटा उनका बहुत ध्यान रखता था। दो-चार माह में घर जरूर आता, भले ही हफ्ता-दस दिन रहे। घर की सारी व्यवस्था करता था। छोटी-छोटी बातों का ध्यान रखते हुए हम लोगों की परेशानी पूछता रहता था। यह बताकर मुन्नीलाल थोड़ी देर के लिए असहज हो जाते हैं, फिर बताते हैं कि उसे हम लोग (मां-बाप) अपनी कोई परेशानी नहीं बताते थे, ताकि वह परेशान न हो। हम लोग उसे हमेशा हंसते हुए विदा करते थे जिससे कि वह अच्छे से 'ड्यूटी' कर सके। बाबूलाल अभी 25 दिसम्बर को ही घर से 'ड्यूटी' पर गया था। उसके दोस्त बताते हैं कि इस बार वह बहुत उत्साहित नहीं था, बातचीत में कहता था कि बहुत खतरनाक जगह है, जो बच जाए समझो वह भाग्यशाली है।
7 जनवरी को लातेहार में नक्सलियों से मुठभेड़ में बाबूलाल के घायल होने की सूचना तो किसी माध्यम से घर तक आ गयी थी, लेकिन उस सूचना की पुष्टि सीआरपीएफ के अधिकारी नहीं कर रहे थे। बार-बार यही कहा जा रहा था 'आपरेशन में गये हैं कोई खबर होगी तो बताया जायेगा।' पूरा परिवार तीन दिन तक किसी अनिष्ट की आशंका में छटपटाता रहा। 10 जनवरी को जब स्थानीय समाचार पत्रों में खबर छपी तब भी परिजनों को बाबूलाल के शहीद होने का विश्वास नहीं हो रहा था। 10 फरवरी को ही बाबूलाल के पोस्टमार्टम के समय पेट में बम भरे होने की खबर चैनलों पर आ गयी। 10 जनवरी की शाम को तहसील के एक कनिष्ठ अधिकारी ने बाबूलाल के शहीद होने तथा अगले दिन शव आने की खबर परिजनों को दी। यद्यपि शुभचिंतकों ने यह खबर परिवार वालों से छिपाकर रखी। मुन्नीलाल का मन बहुत घबरा रहा था तो खेत की ओर चल दिये लेकिन कुछ दूर गये तो देखा कि फूलों से लदी गाड़ी आ रही है, साथ में कई और गाड़ियां भी हैं। मन में भ्रम हुआ और भागते हुए अपने दरवाजे पर पहुंचते-पहुंचते पता चला कि 'मेरा बेटा हमको छोड़कर…।'
मां-बाप ने बेटे का चेहरा देखा, जो अब बुझ चुका था लेकिन उस पेट को देखने की हिम्मत नहीं जुटा पाए, जिसे चीरकर नक्सलियों ने 2.3 कि.ग्रा. आईईडी रख दिया था। मुन्नीलाल रुंधे गले से बोले, 'जिस पेट में जरा-सा दर्द होने पर हम उसको लेकर डाक्टरों के पास भागते फिरते थे, उसी पेट को राक्षसों ने चीर डाला।' बेटे की असामयिक मृत्यु से आहत परिवार को परिजनों और स्थानीय लोगों ने भले ही ढांढस बंधाकर सांत्वना दी हो, लेकिन स्थानीय जिला प्रशासन, प्रदेश सरकार और केन्द्र सरकार की ओर से उपेक्षा ही दिखायी गयी। शहीद बाबूलाल के अंतिम संस्कार में स्थानीय तहसील के अधिकारी पहुंचे लेकिन सिर्फ दर्शक की भूमिका में। बेटे की चिता की व्यवस्था भी बूढ़े बाप को ही करनी पड़ी। सीआरपीएफ के अधिकारियों ने अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते हुए 'गार्ड आफ आनर' दिया लेकिन क्षेत्रीय विधायक, सांसद का दूर-दूर तक पता नहीं था। शव यात्रा में शामिल लोगों ने राजमार्ग पर शहीद के नाम से प्रवेश द्वार बनाने की मांग की, लेकिन स्थानीय प्रशासन से उसे भी भविष्य के लिए टाल दिया। कुछ परिजनों ने बताया कि मुख्यमंत्री के चाचा एवं उ.प्र. सरकार में मंत्री शिवपाल यादव अगले दिन राजमार्ग से गुजरे लेकिन शहीद के घर नहीं आये।
मुन्नीलाल को जितना गम अपने बेटे को खोने का है उससे अधिक शहीद को मिली उपेक्षा से है। अपनी बोली में वह कहते हैं, 'गरीब किसान का बेटा पेट पालने के लिए फौज में जात हैं और मारि दीन जात हैं, उनका कोई नहीं पूछ रहा है। बड़े आदमी का बेटा फौज में सिपाही नाहीं बनत, गरीबन का दर्द के जानी?' सरकार कह रही है कि 'हम नक्सलियों की गोली का जबाव गोली से नहीं देंगे?' के जबाब में मुन्नीलाल ने कहा कि जब तक ईंट का जबाब पत्थर से नहीं दिया जायेगा, हमारे बेटे की तरह ही मारे जायेंगे। 'सरकार से मांग?' के जबाव में कहा, 'अब तो जीवन बिताना है, कोई सहारा देने वाला नहीं है, पांचों बेटियां शादी के बाद अपने घर में है, सरकार जो समझे करे। लेकिन मेरे बेटे ने देश के लिए कुर्बानी दी है, इसलिए सरकार ऐसा कुछ जरूर करे जिससे कि आने वाली पीढ़ी जाने कि यहां का कोई लाल था जिसने देश के लिए कुर्बानी दी थी, बस यही एक इच्छा है।' आर्थिक सहायता का जिक्र करने पर मुन्नीलाल ने बताया कि अभी बेटी और बेटे के ब्याह के लिए लिये गये कर्ज बाकी हैं। बिजली का कनेक्शन लिया है, उसकी किस्त देनी है। चलते-चलते मुन्नीलाल ने कहा कि 'एक बात बतायें-बहू (शहीद बाबूलाल की पत्नी) के पेट में मेरे बेटे की आखिरी निशानी पल रही है, भगवान उसे सकुशल धरती पर लाये, बस आप सब यही आशीर्वाद दीजिये।'
शहीद बाबूलाल के बलिदान की उपेक्षा की खबरें स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में सुर्खियां बनने लगीं। अपने शहीद की उपेक्षा से आहत परिजनों और गांव वालों ने राष्ट्रीय राजमार्ग पर 4 दिन तक अनशन किया, तब जाकर उत्तर प्रदेश की सरकार जागी। 20 जनवरी को उ.प्र. सरकार ने घोषणा की कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव शहीद बाबूलाल के गांव जाएंगे और उनके परिजनों को सम्मान राशि प्रदान करेंगे। इसी क्रम में 25 जनवरी को मुख्यमंत्री ने शहीद के गांव जाकर शोक संतप्त परिजनों को सांत्वना दी और सहायता राशि के रूप में सरकार की ओर से 20 लाख रु. का चेक व एक एकड़ भूमि शहीद के परिवार को सौंपी।
टिप्पणियाँ