उठ तुझे मेरी शपथ है
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स्वामी विवेकानन्द अपने भाषणों में अक्सर उपनिषद् की एक सूक्ति उद्धृत करते हुए युवकों को उठने और जागने का उद्बोधन दिया करते थे। आज के परिप्रेक्ष्य में इस उद्बोधन की गहनता में प्रवेश किया जाना चाहिए! भारतीय मनीषा ने अखण्ड काल को विविध युगों में बांटकर कुछ अभूतपूर्व कहने की चेष्टा की है। वैदिक धारणा है कि ये कालखण्ड वस्तुत: मन:स्थितियों के प्रतीक हैं। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार –
कलि: शयानो भवति संजिहानस्तु द्वापर:,
उत्तिष्ठत् त्रेता भवति कृतं सम्पद्यते चरन्, चरैवेति चरैवेति।
आचार्य विष्णुकान्त जी शास्त्री ने इसका भावानुवाद इस प्रकार किया है –
सोने वाला कलियुग में है
करवट लेता जो द्वापर में,
खड़ा हो गया वह त्रेता में
चलने वाला तो सतयुग में
– चलते रहो, रहो चलते ही।
स्वामी विवेकानन्द जब उठ खड़े होने की बात करते हैं तब उनका मन्तव्य यही है कि हम कलि के प्रमाद और द्वापर के द्वन्द्व का अतिक्रमण कर स्वयं को त्रेता के जागरण से जोड़ें! त्रेता रावणत्व के विपरीत रामत्व की सेवा में स्वयं को समर्पित कर देने का सु-अवसर है। इसी तरह उनका जागरण मोह-निद्रा से जागरण का आह्वान है। गोस्वामी जी के शब्दों में –
एहि जग–जामिनि जागहिं जोगी,
परमारथी प्रपंच वियोगी।
जानिय तबहिं जीव जग जागा,
जब सब विषय विलास विरागा।
होइ विवेक मोह भ्रम भागा,
तब रघुनाथ चरन अनुरागा।
सखा परम परमारथ एहू,
मन क्रम वचन रामपद नेहू।
गोस्वामी जी जिस परम तत्व को राम कहते हैं, परमहंस रामकृष्ण उसी की काली के रूप में उपासना करते हैं और कन्याकुमारी की प्रसिद्ध शिला पर ध्यानस्थ बैठे स्वामी विवेकानन्द को भाव-समाधि में उसी काली के भारतमाता के रूप में दर्शन होते हैं और वह स्वयं को उसकी आराधना में समर्पित कर देते हैं। उनका 11 सितम्बर का शिकागो भाषण उसी जगदम्बा के आध्यात्मिक स्वरूप का अक्षर-संकीर्तन है। इस जागरण के कारण उनकी आंखें भी कबीर की तरह आंसुओं से भरी रहती हैं :-
सुखिया सब संसार है खावै अरु सोवै,
दुखिया दास कबीर है जागै अरु रोवै।
अपने आस-पास के गहन नि:श्वासों के प्रति संवेदनशील चित्त उनकी उपेक्षा करके किसी अदृश्य ब्रह्म की अव्याख्य सत्ता और दुरूह साधना में कैसे खो सकता है? स्वामी विवेकानन्द के साथ संन्यास की उस अवधारणा को आकार मिलता है जो अध्यात्म को लोकोन्मुख बनाती है और कोटि-कोटि पीड़ितों के दर्द के साथ जुड़कर उनकी सेवा को साधना के सोपान में परिवर्तित कर देती है! जो जागेगा उसे रोना पड़ेगा, उसका यह रुदन ही सृष्टि में मंगल का सृजन करेगा क्योंकि उसके हर अश्रु में निष्काम कर्म के सूत्र होंगे, सेवा का दर्शन होगा, अर्पण-तर्पण और समर्पण के मन्त्र होंगे। स्वामी जी का गैरिक वेश अग्नि की ऊर्ध्वगामी शिखाओं की तरह जीवन को प्रति पल ऊंचाइयों के सोपानों पर संचरण की दीक्षा देता है। अन्धकार से संघर्ष का संकल्प करने वाले को स्वयं दीप की तरह जलने की साधना करनी पड़ती है। स्वामी विवेकानन्द समय के दीपाधार पर सुशोभित अक्षय प्रेरणा के अखण्ड प्रदीप हैं। कविवर रामेश्वर द्विवेदी की ये पंक्तियां मानो स्वामी जी के शाश्वत उद्बोधन की दिगन्तव्यापी ध्वनियां ही हैं –
उठ तुझे मेरी शपथ है
चल तुझे मेरी शपथ है
आग अंगों से लपेटे
प्राण में पीड़ा समेटे
दीप जैसे जल रहा है
जल तुझे मेरी शपथ है!
निन्दनीय तुलना
प्रख्यात शायर निदा फाजली के प्रशंसकों को क्षोभ हुआ और अपने समय के सर्वाधिक लोकप्रिय नायक अमिताभ बच्चन के प्रशंसकों को भारी चोट लगी जब शब्द के साधक निदा जी ने अपने एक साक्षात्कार में अनपेक्षित रूप से अमिताभ की तुलना राष्ट्र के खलनायक कसाब से कर दी। निदा फाजली की कितनी ही पंक्तियां साहित्य-जगत् में पर्याप्त प्रशंसित हुई हैं और उन्हें उर्दू तथा हिन्दी दोनों ही मंचों पर सम्मान प्राप्त हुआ है। अपनी एक अभिव्यक्ति के द्वारा वह विवादास्पद बन बैठे हैं। उनका ही एक शेर है –
हर आदमी में रहते हैं दस–बीस आदमी,
जिसको भी देखना हो कई बार देखिये।
आज यह शेर बार-बार उन्हीं की तरफ अंगुली उठा रहा है। उन्होंने अमिताभ के द्वारा निभाये गये व्यवस्था-विरोधी और क्रुद्ध नौजवान के चरित्र का आधुनिक संस्करण कसाब को माना। उनके अनुसार जिस प्रकार अमिताभ का क्रुद्ध नौजवान का चरित्र सलीम-जावेद के द्वारा गढ़ा गया था, वैसे ही कसाब भी किन्हीं और हाथों की गढ़न है। उनकी भाषण-भंगिमा अमिताभ के प्रति व्यंग्यपूर्ण, सलीम-जावेद की सफलता के प्रति ईर्ष्याग्रस्त और क्रूरकर्मी कसाब के प्रति सहानुभूतिपूर्ण प्रतीत हुई। निदा फाजली को पहली बार देखने पर वह एक समर्थ कवि, कलात्मक दृष्टि से परिपुष्ट रचनाओं के सर्जक और लोकमानस को पहचानने वाले साहित्यकार नजर आते हैं किन्तु दूसरी बार देखने पर विकृत अहम् से ग्रस्त, ईर्ष्या से त्रस्त, चिन्तन के तल पर अस्त-व्यस्त एक कुंठित मानसिकता वाले अत्यन्त सामान्य से शख्स लगते हैं, जो शायद चर्चा में रहने के लिये विकृति को विकृति नहीं मान रहा, कहीं न कहीं उसका तरफदार बन बैठा है। उन्होंने आदमी को दस-बीस बार देखने को कहा है किन्तु उन पर तो तीसरी बार नजर डालने का मन ही नहीं हो रहा, क्या पता -और भी घटियापन उनके भीतर न छिपा हो!
जुबां पे गालियां आने लगी हैं
मेरे जैसे तमाम लोग यह देखकर स्तब्ध थे कि कुछ मीडिया चैनल भारतीय जवानों के प्रति हुए अमानुषिक व्यवहार के सन्दर्भ में चर्चा करने के लिये पाकिस्तानी पत्रकारों और कुछ तथाकथित प्रगतिशील भारतीय बुद्धिजीवियों का सौमनस्य संवाद आयोजित कर रहे थे और एक चैनल के आक्रामक प्रस्तुतिकर्ता के द्वारा तो यह तक कहा जा रहा था कि भारतीय सेना के द्वारा किये गये खुलासे को आखिर बिना जांचे – परखे सत्य कैसे मान लिया जाये! उस समय चर्चा में बैठे एक सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी की वाणी से जैसे ज्वालामुखी बोलने लगा और उन्होंने कहा कि यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम ऐसे अकृतज्ञ लोगों के लिये अपना खून बहा रहे हैं जो हमारे जवान के साथ हुए अमानुषिक दुर्व्यवहार पर क्षोभ और रोष प्रकट करने के स्थान पर सेना के शब्दों की विश्वसनीयता पर सवाल उठा रहे हैं! निश्चय ही सारे चैनल ऐसे नहीं थे किन्तु इस देश में राष्ट्रीय वेदना के प्रति नितान्त संवेदनहीन चैनल भी हैं – यह तो उस दिन प्रमाणित हो ही गया। इसी बहस में एक पूर्व केन्द्रीय मंत्री ने भारतीय जनता पार्टी के विक्षोभ पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए पहले दो-तीन बार कृत्रिम अट्टाहास किया और पौराणिक पृष्ठों पर उल्लिखित पैशाचिक अट्टाहास को मूर्तिमन्त कर दिया। राजनीति के इस अध:पतन को देखकर हर सहृदय को पीड़ा हुई होगी और शालीन से शालीन व्यक्ति का यह कहने का मन हुआ होगा –
घटाएं क्षोभ की
छाने लगी हैं –
सियासत पे करें क्या
टिप्पणी हम,
जुबां पे गालियां
आने लगी हैं!
अभिव्यक्ति मुद्राएं
ओस पड़ती नहीं तो पत्तों का,
रंग इतना हरा नहीं होता।
मुश्किलें रास्ता दिखाती हैं,
हौसला हो तो क्या नहीं होता!
– देवमणि पाण्डेय
पानी मैं बहुत दूर से ले आया हूं लेकिन,
तूफान मुझे आग बुझाने नहीं देता।
अनजान–से बालक ने पकड़ रक्खी है अंगुली,
मैं हाथ छुड़ाऊं तो छुड़ाने नहीं देता।
– ज्ञानप्रकाश विवेक
आज फिर तूने मुझे देखके अनदेखा किया,
आज फिर चांदनी बीमार नजर आती है
– अशोक अंजुम
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