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कहते हैं, किसी देश की स्थिति व प्रगति का अनुमान लगाना हो तो उस देश में स्त्रियों की स्थिति का अध्ययन करना चाहिए। इसका अर्थ हुआ कि स्त्री अस्मिता और देश की अस्मिता का जुड़ाव बिन्दु एक ही है। स्त्री-पुरुष परस्पर पूरक होते हुए भी दो स्वतंत्र इकाइयां हैं। दोनों स्वतंत्र अस्तित्व हैं, दोनों की स्वतंत्र अस्मिता स्वस्थ संतुलित समाज का आधार है। यह संतुलन जब भी विकृत हुआ है सामाजिक ढांचा बिखरा है, विघटित हुआ है। देश की स्वाधीनता से पूर्व जन जागरण काल के महापुरुष, विशेषकर स्वामी विवेकानंद इस तथ्य को भलीभांति समझ गये थे कि निरक्षर, पिछड़ी, अधिकारविहीन, घर की चारदीवारी में कैद माताओं की गोद में पलकर पुरुष वर्ग निरन्तर बलहीन एवं कमजोर हो रहा है। उन्होंने तत्काल स्त्री जागरण का शंखनाद किया।
वैदिक धर्म और स्त्री
स्वामी जी स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव, ऊंच-नीच की मानसिकता के सख्त विरोधी थे। वे कहते हैं, 'वैदिक धर्म में स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं किया गया है। क्या तुम्हें स्मरण है कि विदेहराज जनक की राजसभा में किस प्रकार धर्म के गूढ़ तत्वों पर महर्षि याज्ञवल्क्य से वाद-विवाद हुआ था? इस वाद-विवाद में ब्रह्मवादिनी गार्गी ने मुख्य रूप से भाग लिया था। उन्होंने कहा था, 'मेरे दो प्रश्न मानो कुशल धनुर्धारी के हाथ में दो तीक्ष्ण वाण हैं।' वहां पर उनके स्त्री होने के संबंध में कोई प्रसंग तक नहीं उठाया गया है। आपको विदित ही होगा कि प्राचीन गुरुकुलों में बालक और बालिकाएं समान रूप से शिक्षा ग्रहण करते थे। इससे अधिक साम्यता और क्या हो सकती ½èþ?’
स्वामी विवेकानन्द में हमारे अतीत की गौरव-गरिमा को व्यक्त करने की अद्भुत क्षमता थी। वे कहते हैं, 'मेरा तो दृढ़ विश्वास है कि जिस जाति ने सीता को उत्पन्न किया, चाहे वह उसकी कल्पना ही क्यों न हो, उस जाति में स्त्री जाति के लिए इतना अधिक सम्मान और श्रद्धा है जिसकी तुलना संसार में हो ही नहीं सकती।…जहां तक गृहस्थ धर्म का संबंध है, मैं बिना संकोच के कह सकता हूं कि भारतीय प्रणाली में अन्य देशों की अपेक्षा अनेक सद्गुण विद्यमान हैं।' स्वामी जी गृहस्थों को हीन नहीं मानते थे। उनका विचार था कि गृहस्थ भी ऊंचा और संन्यासी भी नीचा हो सकता है- ‘¨Éé संन्यासी और गृहस्थ में कोई भेद नहीं करता। संन्यासी हो या गृहस्थ- जिसमें भी मुझे महत्ता, हृदय की विशालता और चरित्र की पवित्रता के दर्शन होते हैं, मेरा मस्तक उसी के सामने झुक जाता है।'
स्वामी विवेकानन्द की उद्घोषणा है 'भारत! तुम मत भूलना कि तुम्हारी स्त्रियों का आदर्श सीता, सावित्री, दमयंती हैं, मत भूलना कि तुम्हारे उपास्य हैं सर्वत्यागी उमानाथ शंकर। मत भूलना कि तुम्हारा विवाह, तुम्हारा धन और तुम्हारा जीवन इंद्रिय सुख के लिए अपने व्यक्तिगत सुख के लिए नहीं है। मत भूलना कि तुम जन्म से ही माता के लिए बलि स्वरूप रखे गये हो। मत भूलना कि तुम्हारा समाज उस विराट महामाया की छाया मात्र है।'
प्रत्येक भारतीय स्त्री की यह आकांक्षा होती है कि वह अपने जीवन को भगवती सीता के समान पवित्र और भक्तिपूर्ण बनाये। सीताजी और भगवान श्रीरामचन्द्र के चरित्रों के अध्ययन से भारतीय आदर्श का पूर्ण ज्ञान हो सकता है। पाश्चात्य और भारतीय जीवन आदर्शों में भारी अंतर है। सीता जी का चरित्र हमारी जाति के लिए सहनशीलता का आदर्श है। पाश्चात्य संस्कृति कहती है कि तुम यंत्रवत् कार्य में लगे रहो और अपनी शक्ति का परिचय कुछ भौतिक ऐश्वर्य प्राप्त करके दिखाओ। भारतीय आदर्श उसके विपरीत कहता है कि तुम्हारी महानता दु:खों को सहन करने की शक्ति में है। पाश्चात्य आदर्श अधिक से अधिक धन सम्पत्ति के संग्रह में गर्व करता है जबकि भारतीय आदर्श हमें अपनी आवश्यकताओं को न्यून से न्यून कर जीवन को सरलतापूर्वक व्यतीत करना सिखाता है। इस प्रकार पूर्व और पश्चिम के आदर्शों में दो ध्रुवों का अंतर है।
माता सीता भारतीय आदर्श की प्रतीक हैं। भगवती सीताजी को पग-पग पर यातनाएं और कष्ट प्राप्त होते हैं, परंतु उनके मुख से श्री रामचन्द्र जी के प्रति एक भी कठोर शब्द नहीं निकलता। उन्हें अन्यायपूर्वक भयंकर वन में निर्वासित कर दिया जाता है, परंतु उसके कारण उनके हृदय में कटुता का लेश मात्र भी नहीं होता। यही सच्चा भारतीय आदर्श है। सीता जी भारतीय नारीत्व की उज्ज्वल प्रतीक हैं। आज सहस्रों वर्षों के उपरांत भी भगवती सीता कश्मीर से कन्याकुमारी तक और कच्छ से कामरूप तक, क्या पुरुष क्या स्त्री और क्या बालक-बालिका-सभी की आदर्श-आराध्य देवी बनी हुई हैं। पवित्रता से भी अधिक पवित्र, धैर्य और सहनशीलता की साक्षात् प्रतिमा माता सीता सदा-सर्वदा उस महान पद पर आसीन रहेंगी।
वैश्विक दृष्टि और भारतीय स्त्री
स्वामी विवेकानंद में नारियों के प्रति असीम उदारता का भाव था। वे कहते थे कि 'ईसा अपूर्ण थे, क्योंकि जिन बातों में उनका विश्वास था, उन्हें वे अपने जीवन में नहीं उतार सके। उनकी अपूर्णता का सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि उन्होंने नारियों को नरों के समकक्ष नहीं माना। असल में, उन्हें यहूदी संस्कार जकड़े हुए था, इसलिए वे किसी भी नारी को अपनी शिष्या नहीं बना सके। इस मामले में बुद्ध उनसे श्रेष्ठ थे, क्योंकि उन्होंने नारियों को भी भिक्षुणी होने का अधिकार दिया था।'
स्वामी जी से किसी पत्रकार ने पूछा 'स्वामी जी, तो क्या भारतीय स्त्री जीवन के संबंध में हम इतने संतुष्ट हैं कि हमारे समक्ष उसकी कोई भी समस्या नहीं है?'
स्वामी जी, ‘CªÉÉå नहीं, बहुत सी समस्याएं हैं…और ये समस्याएं बड़ी गंभीर हैं, परंतु इनमें से कोई भी ऐसी नहीं हैं जो शिक्षा रूपी मंत्र बल से हल न हो सके। पर हां, शिक्षा की सच्ची कल्पना इसमें से कदाचित ही किसी को हो।' प्रश्न 'तो शिक्षा की आप क्या परिभाषा देते हैं?' स्वामी जी ने स्मित हास्य से कहा, ‘….ºÉSSÉÒ शिक्षा वह है जिससे मनुष्य की मानसिक शक्तियों का विकास हो। वह केवल शब्दों का रटना मात्र नहीं है। वह व्यक्ति की मानसिक शक्तियों का ऐसा विकास है, जिससे वह स्वमेव स्वतंत्रतापूर्वक विचार कर ठीक- ठाक निश्चय कर सके। हम चाहते हैं कि भारत की स्त्रियों को ऐसी शिक्षा दी जाए, जिससे वह निर्भय होकर भारत के प्रति अपने कर्तव्यों को भली भांति निभा सकें और संघमित्रा, लीला, अहिल्याबाई तथा मीराबाई आदि भारत की महान देवियों द्वारा चलायी गई परम्परा को आगे बढ़ा सकें एवं वीर-प्रसूता बन सकें। भारत की स्त्रियां पवित्र और त्यागमूर्ति हैं क्योंकि उनके पास वह बल और शक्ति है, जो सर्वशक्तिमान परमात्मा के चरणों में सर्वार्पण करने से प्राप्त होती ½èþ*’ स्त्री शिक्षा पर बल देते हुए स्वामी जी कहते हैं, 'हमें नारियों को ऐसी स्थिति में पहुंचा देना चाहिए जहां वे अपनी समस्या को अपने ढंग से स्वयं सुलझा सकें। उनके लिए यह काम न कोई कर सकता है और न किसी को करना ही चाहिए। और हमारी भारतीय नारियां संसार की अन्य किन्हीं भी नारियों की भांति इसे करने की क्षमता रखती हैं।'
नारी उन्नति–देश उन्नति
वे महिलाओं को आत्मरक्षा की दृष्टि से झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भांति बहादुर बनाने के भी पक्षधर थे। उनका दृढ़ विश्वास था, 'स्त्री जाति के प्रश्न को हल करने के लिए आगे बढ़ने वाले तुम हो कौन? क्या तुम हर एक विधवा और हर एक स्त्री के भाग्यविधाता भगवान हो? दूर रहो! अपनी समस्याओं का समाधान वे स्वयं कर लेंगी। …स्त्रियां जब शिक्षित होंगी तभी तो उनकी संतान द्वारा देश का मुख उज्ज्वल होगा और देश में विद्या, ज्ञान, शक्ति, भक्ति जाग =`äöMÉÒ*’ विवेकानंद उद्घोष करते हैं, 'नारियां महाकाली की साकार प्रतिमाएं हैं। यदि तुमने उन्हें ऊपर नहीं उठाया तो यह मत सोचो कि तुम्हारी अपनी उन्नति का कोई अन्य मार्ग है। संसार की सभी जातियां नारियों का सचमुच सम्मान करके ही महान हुई हैं। जो जाति नारियों का सम्मान करना नहीं जानती, वह न तो अतीत में उन्नति कर सकी, न आगे उन्नति कर सकेगी।'
एक पत्रकार ने स्वामी जी से प्रश्न किया कि आपका इस देश की स्त्रियों के लिए क्या संदेश है। उन्होंने उत्तर दिया, 'वही जो पुरुषों के लिए है। भारत और भारतीय धर्म के प्रति विश्वास और श्रद्धा रखो। तेजस्विनी बनो, हृदय में उत्साह भरो, भारत में जन्म लेने के कारण लज्जित न होओ, वरन् उसमें गौरव अनुभव करो और स्मरण रखो कि यद्यपि हमें दूसरे देशों से कुछ लेना अवश्य है, पर हमारे पास दुनिया को देने के लिए दूसरों की अपेक्षा सहस्र गुना अधिक है।'
यह संसार, मानव जीवन, सुंदर और सुखद बनाया गया है पर यह दुर्बुद्धि ही है जिसने सब कुछ विकृत और दु:खद बनाकर रख दिया है। स्वामी जी के अनुसार, ‘¨Éé समझता हूं प्रत्येक राष्ट्र का यह प्रधान कर्तव्य है कि वह मातृशक्ति के प्रति सम्मान के भाव का सम्पोषण करे। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए वैवाहिक बंधन की धार्मिक पवित्रता में दृढ़ विश्वास होना अत्यावश्यक है। इसी साधन से देश पूर्ण पवित्रता के आदर्श को प्राप्त कर सकता है। यह एक शाश्वत सत्य है कि जिन गृहों में पवित्र जीवन पाया जाता है वहां स्वयं भगवती लक्ष्मी के रूप में निवास करती है। इतना ही नहीं, सच्चा शक्ति उपासक वह पुरुष है जो सर्वशक्तिमान परमात्मा की शक्ति का सर्वत्र अनुभव करता है और प्रत्येक स्त्री में उस शक्ति का प्रकाश देखता है।'
बौद्धिक प्रगति– नैतिक पतन?
स्वामी जी को अमरीका में सहस्रों स्त्रियां मिलीं जिनके हृदय हिमखंड के समान शुद्ध एवं निष्कलंक थे। वे स्वाधीन थीं, उन्हीं के हाथ में सामाजिक और नागरिक व्यक्तियों की बागडोर रहती है। इन महिलाओं ने ही स्वामी जी का स्वागत किया। उनके भोजन, ठहरने और व्याख्यानों का भी प्रबंध किया। न्यूयार्क में भाषण देते हुए एक समय स्वामी जी ने कहा था, 'मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी यदि भारतीय स्त्रियों की ऐसी ही बौद्धिक प्रगति हो जैसी इस देश में हुई है। परंतु वह उन्नति तभी अभीष्ट है, जब वह उनके पवित्र जीवन और सतीत्व को अक्षुण्ण बनाए रखते हुए हो। मैं अमरीका की स्त्रियों के ज्ञान और विद्वता की बड़ी प्रशंसा करता हूं, परंतु मुझे अनुचित दिखता है कि आप बुराइयों को भलाइयों का रंग देकर छिपाने का प्रयत्न करें। …यद्यपि भारतीय स्त्रियां उतनी शिक्षित नहीं हैं फिर भी उनका आचार-विचार अधिक पवित्र होता है।…' 'पाश्चात्य देशों का खुलापन, स्वतंत्रता, अनैतिक यौनाचार, विवाह विच्छेद आदि ऐसे अनेक पहलू हैं जो दोषपूर्ण हैं। समाज के ताने-बाने को कमजोर बनाने वाले हैं। व्यक्तिवादिता के कारण ही यहां गृह-कलह से दु:खी और सुख-शांति विहीन परिवारों की संख्या बहुत अधिक है। पश्चिमी देशों का व्यक्ति अपने ही लिए पैदा होता है और हिन्दू अपने समाज के लिए। इन मुट्ठी भर राष्ट्रों में से एक भी तो दो शताब्दियों तक जीवित नहीं रह सकता, किन्तु हमारी जाति की प्रथाओं को देखो, किस तरह वे युगों के घात-प्रतिघात के बीच भी आज तक टिकी हुई ½éþ*’
मातृत्व और शिक्षा
प्रबुद्ध भारत (दिसम्बर 1898) के प्रतिनिधि को उत्तर देते हुए वे कहते हैं, ‘{ÉɶSÉÉiªÉ नारियों की तुलना में अपने देश की नारियों की अवस्था भिन्न देखकर हम एकदम यह न मान बैठें कि हमारे यहां की स्त्रियों की दशा हीन है। विगत कई सदियों से भारत में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण होता रहा है जिससे हम स्त्रियों का विशेष संरक्षण करने को बाध्य हुए हैं। यही तथ्य हमारे प्रचलित सामाजिक रीति रिवाजों के मूल में है, न कि स्त्री जाति की हीनता का सिद्धांत। …भारत में स्त्री जीवन के आदर्श का आरंभ और अंत मातृत्व में ही होता है। पाश्चात्य देशों में गृह की स्वामिनी और शासिका पत्नी है, भारतीय गृहों में घर की स्वामिनी और शासिका माता है। हमारे यहां परमात्मा को भी जगन्माता, जगज्जननी आदि नामों से संबोधित किया गया है। विश्व में जननी नाम से अधिक पवित्र और निर्मल दूसरा कौन-सा नाम है, जिसके पास कभी वासना और पाशविक तृष्णाएं फटक भी नहीं सकतीं। यही मातृत्व भारतीय नारीत्व का आदर्श है। माता की महानता इसलिए है कि गर्भ में स्थित बालक पर माता का जो प्रभाव पड़ता है वही बालक को शुभ या अशुभ प्रवृत्ति वाला बनाता ½èþ*’
शिक्षा का अधिकार मिलते ही नारी ने स्वयं को पहचाना है, अपनी सामर्थ्य को तोला है। अब वह सब कुछ कर सकती है जिससे उसे अब तक वंचित रखा गया था। चारों ओर परिवर्तन की लहर है। इस वर्ग को राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करना है। स्वामी विवेकानंद का दृढ़ विश्वास था कि, आध्यात्मिकता की जननी इस भारत भूमि का भविष्य परम उज्ज्वल है। ज्यों-ज्यों वेदांत के सत्य का प्रचार होगा आत्मा की एकता का प्रसार होगा, लोगों की श्रद्धा बढ़ेगी, समस्याएं सुलझती जाएंगी। वे कहते हैं, ‘½þ¨ÉÉ®úÒ प्राचीन समाज पद्धति के भीतर ऐसी जीवनी शक्ति विद्यमान है जिससे हजारों प्रकार की नयी प्रणालियां गठित हो सकती हैं। …
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