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परिवर्तन सृष्टि का नियम है। यह इसकी सुंदरता और सार्थकता भी है। इसमें न तो अर्द्ध-विराम लगता है न ही पूर्ण विराम लगाया जा सकता है। अधिष्ठान ही व्यक्ति, समाज, संस्कृति, सभ्यता को जीवंत, उत्कृष्ट और प्रवाहमान बनाने का काम करता है। स्वामी विवेकानंद ने इसी सत्य को सरलता, सहजता और साधक मन से जब पश्चिम के समाज के बीच रखा तो हलचल मच गई। स्वामी विवेकानंद ने हिन्दू दर्शन, संस्कृति और सभ्यता के जिस सार का संचार किया उसने पश्चिम की ‘vÉĘ́ÉEò’ (रिलीजियस) जड़ता और उससे उपजी मानसिक उपनिवेशवाद की महत्वाकांक्षी ईसाई योजना को ध्वस्त कर दिया।
यह योजना क्या थी? यह किसी व्यक्ति या संगठन की योजना नहीं होकर सभ्यता के प्रवाह में ज्ञान एवं अज्ञान की समानांतर धाराओं में अज्ञानता से उपजी प्रवृत्ति है जो मजहब, संस्कृति और सभ्यता का रूप लेकर अलग-अलग नामों से अभिव्यक्त होती रही है। यह प्रवृत्ति मनुष्य को गतिहीन बनाती है। मन को दासत्व भाव प्रदान करती है। मस्तिष्क को विचारहीन बनाकर रखना चाहती है। इसीलिए तो स्वामी विवेकानंद के मात्र पांच सामान्य शब्दों ने 11 सितंबर 1893 को विश्व धर्म संसद में बैठे हजारों ईसाई मतावलम्बी श्रोताओं को झंकृत कर रख दिया। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि जीवन की संपूर्णता साधनों से नहीं साधना से होती है। इन पांच शब्दों ‘¨Éä®äú अमरीकी बहनो और ¦ÉÉ<ªÉÉä’ में जो छुपा हुआ तत्व है उसने पश्चिम के मन-मस्तिष्क को स्पर्श किया था। यह था एकत्व का बोध, भ्रातृत्व की भावना, समानता का भाव और समन्वय की दृष्टि। वे ‘±Éäb÷ÒVÉ’ एंड ‘VÉåÊ]õ±É¨ÉèxÉ’ से ‘ʺɺ]õºÉÇ’ और ‘¥ÉnùºÉÇ’ की नई भावभूमि पर अपने आपको पाकर उस साधक संन्यासी के माध्यम से भारतवर्ष के यथार्थ, सत्य और गतिमान संस्कृति को जानने के लिए व्याकुल हो उठे जिसे मजहबी जड़तावादियों एवं मानसिक उपनिवेशवादियों ने ओझल कर रखा था। जैसे भूख से तड़प रहे व्यक्ति के सामने भोजन आते ही वह उस पर टूट पड़ता है वैसे ही पश्चिम का अशांत मन स्वामी जी की वाणी, प्रभाव और दृष्टि में अपना सांस्कृतिक पुनर्जन्म देखने लगा।
दैव योग
यह दैव योग ही है कि जिस धर्म संसद ने जड़ता को परास्त किया, वह उसी जड़ता को वैधानिकता देने के लिए बुलाई गई थी। इसका आयोजन ईसाई पंथ की श्रेष्ठता को थोपने के लिए आडंबर के रूप में किया गया था। 11 जनवरी 1895 को स्वामी विवेकानंद ने नरसिम्हाचरियार को लिखे पत्र में यह बात कही थी।
उनके अनुसार वे (ईसाई) धर्मों की संसद का इतिहास रचना चाहते थे। वे एक घोड़ा चाहते थे जिसकी वे सवारी करना चाहते थे। परंतु ईश्वर को कुछ और ही मंजूर था। वे ऐसा नहीं कर पाए। ईसाई जगत में इस धर्म संसद को लेकर कितना विवाद था और उस विवाद के पीछे की मानसिकता क्या थी यह भी उजागर होता है। कैन्टबरी के आर्चबिशप ने 'चर्च ऑफ इंग्लैंड' के किसी भी प्रतिनिधि को धर्म संसद में भेजने से मना कर दिया। उसके पीछे तर्क था कि ईसाई प्रतिनिधि अन्य मतावलंबियों के प्रतिनिधियों के साथ एक मंच पर समान रूप से बैठें यह सहन नहीं किया जा सकता है। तर्क का आधार क्या था? ईश्वर ने मनुष्य के लिए सारी योजना ईसाई पंथ में रहस्योदघाटित की है अत: इसे अन्य मतों के समान नहीं देखा जा सकता है।
उपनिवेशवाद की सबसे निकृष्ट और खतरनाक श्रेणी मानसिक उपनिवेशवाद होती है। मानसिक दासता से पीड़ित व्यक्ति, समाज, राष्ट्र या सभ्यता कभी ऊर्ध्वगामी नहीं हो सकती है, उत्कृष्ट विरासत भी उसके लिए बोझ बन जाती है। वह हमेशा हीनता, बौद्धिक आलस्य और गतिहीनता का शिकार बन जाता है। भारतवर्ष का विश्व के मानचित्र में अलग स्थान है। यह भौगोलिक इकाई एक सभ्यता एवं संस्कृति की पर्यायवाची भी है। राष्ट्र और संस्कृति दोनों का पर्यायवाची होना विश्व समाज में एक असामान्य अपवाद के रूप में है। अत: जो यहां राष्ट्रीय है वह सांस्कृतिक भी है, जो यहां की सांस्कृतिक और दार्शनिक पृष्ठभूमि और विरासत है वही राष्ट्रीयता का आधार भी है। अत: भारतीय राष्ट्र एवं हिन्दू सभ्यता व संस्कृति को अलग-अलग नहीं देखा जा सकता है। स्वामी विवेकानंद हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि नहीं बल्कि राष्ट्र, संस्कृति और सभ्यता के प्रतिनिधि के रूप में पश्चिम के प्रांगण में खड़े होकर एक नई वैश्विक चेतना का संचार कर रहे थे। भारतवर्ष और हिन्दू संस्कृति एवं धर्म का विकृत स्वरूप, मिथ्या धारणा और दुष्प्रचारित छवि की चुनौती उनके सामने थी। भौतिक प्रगति ने ईसाई चिंतकों के मन में न सिर्फ छद्म स्वाभिमान उत्पन्न किया था अपितु वे इस 'मिशन' में भी आगे थे कि अन्य मतावलंबियों के मन में हीनता का बोध जगाकर उन्हें मानसिक गुलाम बनाकर परावलंबी समाज एवं राष्ट्र के रूप में बनाए रखें। प्रसिद्ध समाजशास्त्री मैक्सवेबर (1867-1920) का चिंतन इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। उन्होंने प्रोटेस्टेंट नैतिकता एवं पूंजीवादी भौतिक विकास में प्रत्यक्ष संबंध स्थापित कर देखा था और हिंदुओं के पिछड़ेपन के पीछे 'हिन्दुइज्म' की आध्यात्मिक दृष्टि को माना था। यह प्रकाश को अंधकार साबित करने का एक अनवरत बौद्धिक उपक्रम का एक अंश मात्र था। विलियम आर्चर ने ‘<ÆÊb÷ªÉÉ एंड इट्स ʺÉʴɱÉÉ<VÉä¶ÉxÉ’ नामक पुस्तक लिखी। इसमें हिंदुओं को क्रूर, बर्बर, असभ्य एवं जंगली मनुष्य के रूप में चित्रित किया गया। यही आर्चरवादी सोच ईसाई मिशनरी के दुष्प्रचार का उपकरण थी। इसी सोच ने ब्रिटेन के उपनिवेशवाद के उस दर्शन को जन्म दिया जिसमें भारतवासियों को ‘·ÉäiÉÉå का ¤ÉÉäZÉ’ माना गया और वे भ्रम में थे कि भारतीयों को सभ्य करने का नैतिक, राजनीतिक और वैधानिक दायित्व उनके पास है।
सबके आकर्षण का केन्द्र
लेकिन स्वामी विवेकानंद के स्वर ने न सिर्फ इस धारणा को ध्वस्त कर दिया, अपितु पश्चिम को भारतोन्मुखी बनाने का काम किया है। वे एक प्रतिनिधि मात्र नहीं होकर संस्कृति के सार के रूप में प्रकाशमान हो रहे थे। पश्चिम उनमें भारत की संस्कृति, धर्म और सभ्यता के उस व्यक्तित्व का दर्शन कर रहा था जो उसके बंद मस्तिष्क को खोलने और खुले मस्तिष्क से सोचने व समझने के लिए आमंत्रित एवं प्रेरित कर रहा था। अमरीकी अखबार ‘xªÉÚªÉÉEÇò ÊGòÊ]õEò’ ने स्वामी विवेकानंद को धर्म संसद का निर्विवाद रूप से सबसे महानतम व्यक्तित्व घोषित करते हुए जो लिखा वह गौरतलब है, ‘=xÉEòÉä सुनने के बाद हम महसूस करते हैं कि उस ज्ञान भूमि पर मिशनरी (मत प्रचारक) भेजना कितना मूर्खतापूर्ण ½èþ*’
पहले भाषण के बाद वे अमरीकी समाज में आकर्षक व्यक्तित्व बन गए। उन्हें सुनने, उनसे वार्तालाप करने, ज्ञान का आदान-प्रदान करने के लिए सामान्य व्यक्ति से लेकर विश्वविद्यालय के ख्यातिमान प्राध्यापकों का उत्साह देखने लायक था। कूपमंडूक दुनिया से निकलने के लिए बेचैन ईसाई मन को स्वामी विवेकानंद ने ईसाई होते हुए बेहतर मनुष्य, खुले मन-मस्तिष्क वाले सांस्कृतिक प्राणी बनने की नेक सलाह देकर एक अद्भुत कार्य किया। यहां उन्होंने स्थापित कर दिया कि हिन्दू चेतना और सिमेटिक सोच का बुनियादी अंतर क्या है? ईसाई और इस्लाम जैसे मत-पंथों को अंग्रेजी के शब्द 'सेमेटिक रिलीजन' से परिभाषित किया जाता है, यानी अंतिम सत्य और उसका अन्वेषक दोनों ही प्राप्त हो चुके हैं। ऐसे में सर्वसमावेष्टित हिन्दू चेतना में 'मैं भी और तू भी' दोनों का अस्तित्व है, लेकिन सिमेटिक सोच 'मैं ही और मेरा पंथ ही' जैसी विभेदकारी और अहमन्यतापूर्ण है। स्वामी विवेकानंद किस प्रकार पश्चिम के दिल और दिमाग पर छा गए थे उसे ‘xÉÉlÉǨ]õxÉ डेली ½äþ®úɱb÷’ की इस टिप्पणी से समझा जा सकता है, ‘EòɪÉÇGò¨É के अंत में ही विवेकानंद का भाषण रखा जाता था। उसका उद्देश्य था लोगों को आखिरी तक बैठाए रखना। किसी गरम दिन जब किसी नीरस वक्ता के लम्बे भाषण के फलस्वरूप सैकड़ों लोग सभागृह से बाहर निकलने लगते, तब उस विराट श्रोतामंडली को बैठाए रखने के लिए केवल इतनी घोषणा ही यथेष्ट होती कि अंतिम प्रार्थना के पूर्व विवेकानंद बोलेंगे। और उन स्वनामधन्य व्यक्ति के 15 मिनट का भाषण सुनने के लिए लोग घंटों प्रतीक्षा करते रहते lÉä*’
अमरीकी समाज का कोई ऐसा वर्ग नहीं था जो स्वामी विवेकानंद की उदार एवं उदात्त दृष्टि पर विमर्श करने से बच पाया हो। ईसाई पंथ की संकीर्णता से ऊपर उठकर देखने, सोचने, समझने का यह स्वर्णिम अवसर बन गया था। अमरीका के ‘¤ÉÉäº]õxÉ ईवनिंग ]ÅõÉÆÎºGò{]õ’ ने 23 सितंबर को प्रकाशित ‘¨Éä±ÉÉ भूमि में हिन्दू' शीर्षक लेख में लिखा था कि ‘¨É½þɺɦÉÉ में विवेकानंद का भाषण ऊपर फैले आकाश की ही भांति विस्तृत था। वह एकमात्र परम विश्व धर्म था जिसमें सभी मत-पंथों की सर्वश्रेष्ठ बातें- मानवता के प्रति प्रेम आदि का समावेश था। मंच पर उनके आने मात्र से ही हर्षध्वनि होने लगती है और हजारों व्यक्तियों द्वारा उस विशेष सम्मान को वे पूर्ण निरहंकारिता और बाल सुलभ संतोष के साथ स्वीकार करते हैं। निर्धनता एवं आत्मसंयम के जीवन से सहसा इस वैभव और उत्कर्ष में आ पड़ना अवश्य ही इस विनम्र ब्राह्मण संन्यासी के लिए अपूर्व अनुभव ½þÉäMÉÉ*’
सत्य का बाण
स्वामी विवेकानंद ने पश्चात्य समाज विज्ञान की भ्रमित अवधारणाओं को ठीक करने का काम किया। मानसिक उपनिवेशवाद का एक उपकरण भाषा एवं परिभाषा की राजनीति है। पश्चिम ने अपनी परंपरा, अनुभव, ज्ञान एवं सोच से उपजी भाषा एवं परिभाषा को दूसरों पर थोपने का काम किया है। पश्चिम की सोच-समझ, भाषा व परिभाषा अपनाना आधुनिकता एवं वैश्विक मुख्यधारा के प्रतीक के रूप में मान लिया गया है। वह कल भी था और आज भी है। स्वामी विवेकानंद ने इस पर प्रहार किया। वैकल्पिक सोच समझ एवं स्थानीयता से उपजे हिन्दू वैश्विक दर्शन एवं परिभाषा को मानसिक उपनिवेशवाद के चक्रव्यूह से मुक्त करने का काम किया। वे इस बात को सटीक रूप से स्थापित कर गए कि पश्चिम में ‘Ê®ú±ÉÒVÉxÉ’ का जो भाव, अर्थ, परिभाषा और अवधारणा है वह धर्म की परिभाषा एवं अवधारणा कदाचित नहीं है। इस बीजरूपी कथन को सिर्फ एक उद्धरण के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। जबकि इस व्याख्या को विस्तार देने एवं वैकल्पिक दृष्टि से विमर्श को आगे बढ़ाने की आवश्यकता थी।
लंदन में स्वामी जी का अंतिम सार्वजनिक व्याख्यान 10 दिसम्बर को ‘+uèùiÉ ´ÉänùÉxiÉ’ पर हुआ। इस पर ‘<ÆÊb÷ªÉxÉ Ê¨É®ú®ú’ ने लिखा कि ‘10 दिसंबर 1896 को ‘+uèùiÉ ´ÉänùÉxiÉ’ पर स्वामी जी का जो आखिरी व्याख्यान हुआ, उस समय पूरा सभागार श्रोताओं से भर गया था। इस उदार एवं विवेकपूर्ण व्याख्या के फलस्वरूप विभिन्न मतवादों के लोग, यहां तक कि 'चर्च ऑफ इंग्लैंड' के अनेक पादरी आकृष्ट हुए ½éþ*’
स्वामी जी श्रीमती सारा ओले बुल्ल (1850-1911) के घर अतिथि के रूप में ठहरे थे। उनका घर विशिष्ट विद्वानों का क्लब बन गया था। स्वामी विवेकानंद प्रसिद्ध हार्वर्ड विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्रियों को आकृष्ट करते रहे। इनमें विलियम जोन्स (1842-1910), जार्ज सन्त्याना (1863-1952), जोसेफ राइस (1855-1916) और दूसरे अनेक विद्वान थे। स्वामी विवेकानंद से बौद्धिक विमर्श के बाद ही विलियम जेम्स इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पाश्चात्य दर्शन जिस प्रकार से मस्तिष्क और पदार्थ के बीच परंपरागत अंतर करता है, वह आधारहीन एवं तुच्छ है। वे इंग्लैंड, स्विटजरलैंड, फ्रांस आदि देशों में गए। जहां सामान्य लोग एवं विद्वान उन्हें सुनने, समझने और संतुष्टि के साथ उनकी बात मानने के लिए आतुर दिखे। जर्मनी में उन्होंने वही छाप छोड़ी, जो इंग्लैंड में छोड़ी थी। प्रो. पॉल डायसन, जो संस्कृतविद् थे, ने स्वामी जी को बौद्धिक आदान-प्रदान के लिए आमंत्रित किया और स्वामी जी से प्रभावित होकर उन्होंने लिखा था कि ‘¦ÉʴɹªÉ में आध्यात्मिकता के मूलस्रोत तक पहुंचने के लिए एक ऐसा आंदोलन प्रारंभ हो गया है, जिसके द्वारा भारत संभवत: अन्य राष्ट्रों का आध्यात्मिक नेता बन जाएगा और पृथ्वी पर सर्वोच्च एवं महानतम आध्यात्मिक शक्ति के रूप में स्वीकृत ½þÉäMÉÉ*’
जब सत्य का बाण असत्य को भेदता है तब असत्य का अमर्यादित प्रतिकार होता है। स्वामी जी के व्यक्तित्व, आचरण, विद्वता और वेदान्तिक दर्शन ने चर्च को चिंतित, क्रोधित एवं प्रतिकारी बना दिया। पूरी ताकत के साथ चर्च ने स्वामी जी के विरुद्ध दुष्प्रचार का अभियान चलाया। पादरी एवं पूंजीपतियों की साठगांठ का आधार था स्वामी जी के फैलते प्रभाव से ईसाई मत को बचाना। यह चर्च का अंतिम हथकंडा था जिसमें उन्हें स्वामी जी की प्रसिद्धि से ईर्ष्या करने वाले ब्रह्म समाज के भी साथी भारत में मिल गए। क्या सत्य को, ईश्वरीय ताकत को निस्तेज किया जा सकता है? स्वामी जी के पक्ष में कोई आंदोलन, कोई अखबार नहीं, अमरीकावासी ही खड़े हो गए। झूठ, प्रपंच, षड्यंत्र ने चर्च के चरित्र को उजागर किया तो स्वामी जी की तेजस्विता ने भविष्य के आध्यात्मिक युग का सूत्रपात किया। अमरीकी महिला श्रीमती बर्गले ने 20 मार्च 1895 को अपने पत्र में लिखा कि 'उन्होंने हमें अमरीका में उदात्त जीवन का विचार दिया। ऐसा हमारे पास पहले कभी नहीं था। वे तो ईसाइयों के लिए एक रहस्योद्घाटनकर्त्ता थे। एक धार्मिक शिक्षक और एक उदाहरण के रूप में उनके समान मैं किसी और को नहीं जानती हूं। उनका यही वैशिष्ट्य वैचारिक ताकत बनकर विश्व संस्कृति का नेतृत्व करने में सक्षम होगा।'
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