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डर्ष 1899 की बात है। एक कक्ष में स्वामी विवेकानंद युवा संन्यासियों को उपनिषदों का अध्ययन करा रहे थे। अचानक एक शिष्य के साथ स्वामी रामकृष्ण परमहंस के अनन्य भक्त नाग महाशय ने कक्ष में प्रवेश किया। स्वामी जी ने संन्यासियों को बताया, 'नाग महाशय पर गुरुदेव रामकृष्ण परमहंस की अपार कृपा रही है। ये लम्बे समय तक गुरुदेव के सान्निध्य में रहे हैं। आज उपनिषदों के अध्ययन की जगह उनके सत्संग का, उपदेश सुनने का सुअवसर प्राप्त होगा।'
नाग महाशय ने अत्यंत विनम्रता
से कहा, 'मैं भला गुरुदेव (रामकृष्ण परमहंस) की साक्षात प्रतिमूर्ति स्वामी जी के समक्ष उपदेश देने की धृष्टता कैसे कर सकता हूं। मैं तो इनमें ही गुरुदेव के दर्शन करता हूं।'
स्वामी जी ने नाग महाशय से विनम्रता से कहा, 'आप मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिए जिससे मैं सोए हुए देश को जगा दूं। आज महावीर अपनी शक्तिमत्ता से विश्वास खोकर सो रहे हैं। मैं मुक्ति का तनिक भी आकांक्षी नहीं हूं। केवल एक ही आकांक्षा है कि भारतीयों को जगाकर उन्हें अपने देश व समाज के उत्थान के पुनीत कार्य में लगाने के लक्ष्य में सफल हो जाऊं।'
नाग महाशय ने गद्गद् होकर कहा, 'रामकृष्ण देव ने आपकी आंतरिक शक्ति को पहचानकर ही आपको अपना एकमात्र शिष्य बनाया है। उनके सपने को आप एक दिन अवश्य साकार करेंगे।' गुरुदेव के अनन्य सहयोगी नाग महाशय के आशीवर्चन सुनकर स्वामी जी की आंखें खुशी में नम हो उठीं।
निराश न हो जागरण करो
विदेश में हिन्दू धर्म तथा भारतीय दर्शन का डंका बजाकर लौटने के बाद स्वामी विवेकानंद से एक शिष्य ने पूछा, 'स्वामी जी, क्या आप यह अनुभव करके निराश तो नहीं हो गए हैं कि हमारा देश पतनोन्मुख होता जा रहा है? स्वामी जी ने कहा, 'यह धर्मप्राण देश है। यह पतनोन्मुख अवश्य हुआ है किंतु यह ऐसा उठेगा कि दुनिया देखकर दंग रह जाएगी। देखा नहीं, नदी या समुद्र में लहरें जितनी नीचे उतरती हैं उसके बाद उतनी ही तेजी से ऊपर उठती हैं। यहां भी उसी प्रकार होगा। पूर्वाकाश में सूर्योदय हुआ है–सूर्य उदित होने में अब अधिक विलम्ब नहीं है। तुम सब लोग कमर कसकर तैयार हो जाओ। अब एकमात्र यही लक्ष्य बनाओ कि देश–देश, गांव–गांव में जाकर उन्हें धर्मविहीन व शिक्षा विहीन की जगह धर्माचरण करने, शिक्षित बनने की प्रेरणा दो। धर्मशास्त्रों के महान सत्यों से, रहस्यों से उन्हें अवगत करा कर जगा डालो। धर्म जागरण के इस अभियान के माध्यम से ही हम भारत को पुन: सर्वांगीण प्रगति के शिखर पर पहुंचा सकते हैं।
पादरियों को मुंहतोड़ उत्तर
एक बार स्वामी जी कन्याकुमारी में साधना के बाद मद्रास पहुंचे। उन्हें वहां पता चला कि अंग्रेज सरकार के प्रोत्साहन से ईसाई पादरी हिन्दू धर्म के विरुद्ध विषवमन करके, लोभ के वशीभूत करके गरीब हिन्दुओं को ईसाई बनाने के कुचक्र में सक्रिय हैं। स्वामी जी ने अपने प्रवचनों में ईसाई पादरियों के आक्षेपों का तर्कसंगत उत्तर दिया। ईसाई पादरियों में इससे हलचल मच गई। पादरियों ने ईसाई कालेज के प्रोफेसर सिंगरावेलु मुदलियार को स्वामी जी के पास शास्त्रार्थ के लिए भेजा। स्वामी जी ने जब प्रोफेसर के आक्षेपों पर धाराप्रवाह अंग्रेजी में अकाट्य प्रमाण के साथ हिन्दू सनातन धर्म के रहस्यों पर प्रकाश डालना शुरू किया तो देखते ही देखते प्रो.मुदलियार का समस्त भ्रम चकनाचूर हो गया। स्वामी जी के एक प्रश्न का भी उत्तर वे नहीं दे पाए। अंत में वे स्वामी जी के शिष्य बन गए तथा आगे चलकर उन्होंने प्रबुद्ध भारत पत्र का सम्पादन भी किया।
भारत से उठेगी आध्यात्मिक लहर
विश्व धर्म सम्मेलन में हिन्दू धर्म की ध्वजा फहराने के बाद स्वामी जी 15 जनवरी, 1897 को कोलम्बो पहुंचे। एक विशाल सभा में प्रवचन देते हुए उन्होंने कहा, 'पाश्चात्य देशों के भ्रमण से मुझे यह लाभ हुआ कि मैं पहले जिन बातों को हृदय के आवेग से सत्य मान लेता था अब उन्हें प्रत्यक्ष सत्य के रूप में देख रहा हूं। पहले मैं अन्य हिन्दुओं की तरह विश्वास करता था कि भारत पुण्यभूमि है, कर्मभूमि है। परंतु आज अनुभूतियां प्राप्त करने के बाद मैं दृढ़ता के साथ कहता हूं कि यदि कोई ऐसा स्थान है जहां मानव जाति में क्षमा, धृति, दया, शुद्धता और सद्वृत्तियों का सर्वापेक्षा अधिक विकास हुआ है, जहां अध्यात्मिकता तथा अंर्तदृष्टि का सर्वाधिक विकास हुआ है तो वह केवल हमारी मातृभूमि भारतवर्ष ही है।
यहीं से उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम, चारों ओर दार्शनिक ज्ञान की प्रबल धारा प्रवाहित हुई है और यहीं से वह धारा आगे बढ़ेगी जो पार्थिव सभ्यता को आध्यात्मिक जीवन प्रदान करेगी। विदेशों के लाखों स्त्री–पुरुषों के हृदय में जड़वाद की जो अग्नि धधक रही है उसे शांत करने के लिए जिस अमृतधारा की आवश्यकता है वह भारत में विद्यमान है।
तपस्विनी माता की पाठशाला
सन् 1859 की सशस्त्र क्रांति के दौरान झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की भतीजी सुनंदा ने भी निर्भीकतापूर्वक संघर्ष में अहम भूमिका निभाई थी। सुनंदा के पिता पेशवा नारायणराव का निधन हो गया। अंग्रेज अधिकारी 19 वर्षीया सुनंदा को गिरफ्तार करने में सफल हो गए। उसे जेल में तरह–तरह की यातनाएं दी गईं, किंतु सुनंदा ने किसी भी क्रांतिकारी का नाम नहीं बताया। उसे काफी समय तक जेल में रखा गया। जेल से छूटने के बाद सुनंदा कानपुर से नेमिषारण्य तीर्थ पहुंची। जहां संत गौरीशंकर जी से दीक्षा ली। वह भक्ति साधना में लीन रहने के साथ साथ गांवों में पहुंचकर कथा कीर्तन के माध्यम से राष्ट्रीय भावना पनपाने में लगी रही। सुनंदा के त्याग तपस्यामय जीवन को देखकर संत गौरीशंकर व आश्रम के अन्य लोग उन्हें 'तपस्विनी माता' के नाम से सम्बोधित करने लगे।
तपस्विनी माता ग्रामीणों को विदेशी वस्तुओं का त्यागकर स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग का संकल्प दिलाती थीं। वे अंग्रेजी भाषा की जगह हिन्दी व संस्कृत की पढ़ाई पर बल देती थीं। ग्रामीणों को बताया करती थीं कि विदेशी– विधर्मी अंग्रेज हमारे देश के धन को तो लूट ही रहे हैं, हमारे हिन्दू धर्म व संस्कृति को भी नष्ट कर ईसाईकरण में लगे हैं। ऐसी स्थिति में हमें अपने धर्म, संस्कृति व भाषा की रक्षा का संकल्प लेना चाहिए।
कुछ वर्ष बाद तपस्विनी माता ने कोलकाता को अपना कार्यक्षेत्र बनाया। वहां महाकाली पाठशाला की स्थापना कर छात्राओं को संस्कृत व वेदशास्त्रों की शिक्षा देने लगीं। वे स्वामी रामकृष्ण परमहंस तथा स्वामी विवेकानंद जी के विचारों से बहुत प्रभावित हुईं। वे प्राय: स्वामी विवेकानंद जी के पास जाकर धर्म व राष्ट्र की चर्चा करती थीं। उन्होंने स्वामी जी से आग्रह किया कि वे किसी दिन उनकी महाकाली पाठशाला आकर छात्राओं को आशीर्वाद दें।
मई 1889 में अपने शिष्य शरतचन्द्र चक्रवर्ती को साथ लेकर स्वामी जी कोलकाता के चोर बागान स्थित महाकाली पाठशाला पहुंचे। श्री शरतचन्द्र चक्रवर्ती ने 'द लॉयन आफ इंडिया–भारत केसरी' पुस्तक में तपस्विनी माता से भेंट का वर्णन किया है। बाद में यह पुस्तक हिन्दी में अनुवादित हुई तथा 'विवेकानंद के संग' के नाम से छपी। श्री चक्रवर्ती लिखते हैं-'घोड़ागाड़ी पाठशाला के द्वार पर पहुंची तो चार भद्र पुरुषों ने उनको प्रणाम कर स्वागत किया। ऊपर के कक्ष में पहुंचने पर तपस्विनी माता ने खड़े होकर विनम्रतापूर्वक स्वामी जी का सत्कार किया। थोड़ी देर बाद ही माता जी स्वामी जी को पाठशाला की एक कक्षा में ले गईं। कुमारियों ने खड़े होकर स्वामी जी की अभ्यर्थना की। उन्होंने माता जी के आदेश से शिवजी के ध्यान की स्वरसहित आवृत्ति करनी प्रारंभ की। संस्कृत में मंत्रोच्चारण कर पूजा विधि बताई। स्वामी जी हर्षित नेत्रों से यह दृश्य देखकर आनंदित हो उठे। वे उन्हें एक अन्य श्रेणी में लेकर पहुंचीं। माता जी ने एक छात्रा को रघुवंश के तृतीय अध्याय के प्रथम श्लोक की व्याख्या सुनाने को कहा। छात्रा ने संस्कृत में शुद्ध उच्चारण में व्याख्या सुनाई। स्वामी जी यह सुनकर गद्गद् हो उठे। वे माता जी से बोले, 'आपके द्वारा कन्याओं को संस्कृत शिक्षा व हमारी पूजा पद्धति के प्रशिक्षण का अनूठा कार्य हो रहा है, यह अत्यंत संतोष की बात है।' माता जी ने विनय से कहा, 'महाराज मैं कुमारियों को सुशिक्षित व संस्कारित करना अपना कर्तव्य मानकर इस कार्य में लगी हुई हूं। विद्यालय स्थापित करके यश–लाभ प्राप्त करना मेरा उद्देश्य कदापि नहीं है।'
श्री शरतचन्द्र चक्रवर्ती लिखते हैं- 'लौटते वक्त स्वामी जी ने उनसे वार्तालाप में कहा, 'देखो कहां इनकी जन्मभूमि, किंतु इतनी दूर आकर कन्याओं को शिक्षित व संस्कारित करने के महत्वपूर्ण कार्य में लगी हुई हैं।' स्वामी जी ने प्राचीन काल की भारतीय महिलाओं का गौरवमान करते हुए कहा, 'यह देश वही है जहां सीता और सावित्री का जन्म हुआ था। पुण्यक्षेत्र भारत में अभी तक स्त्रियों में जैसा चरित्र, सेवा भाव, स्नेह, दया, तुष्टि और भक्ति पाये जाते हैं, पृथ्वी पर और कहीं ऐसे नहीं पाए जाते। पाश्चात्य देशों में स्त्रियों को देखने पर कुछ समय तक वे यह नहीं जान सकते थे कि वे स्त्रियां हैं। एकमात्र भारत वर्ष में ही स्त्रियों में लज्जा, विनय इत्यादि देखकर नेत्रों को शांति मिलती है। आज भी उन्हें ज्ञान ज्योति के माध्यम से उचित शिक्षा देकर आदर्श स्त्रियां बनाया जा सकता है।' स्वामी जी कहते हैं, 'ज्ञान-दान विद्यादान सर्वश्रेष्ठ दान है। कुमारियों को शिक्षा के साथ साथ सीता, सावित्री, दमयंती, लीलावती, मीराबाई आदि के जीवन चरित्र पढ़ाकर उन्हें संस्कारित व आदर्श बनाया जाना चाहिए। तभी कन्या शिक्षा की सार्थकता है।
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