महिला आक्रोश की रणभेरी
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राजनीतिक पैंतरेबाजी और पुलिस बल से खामोश नहीं होगी
नरेन्द्र सहगल
नारी के सम्मान और सुरक्षा के लिए अतुलनीय बलिदान
अविश्वास की अभिव्यक्ति है आक्रोश
प्राचीन ग्रंथों में वर्णित जघन्य राक्षसी कुकृत्यों को भी पछाड़ देने वाली सामूहिक दुष्कर्म और मौत की हालिया घटना ने देश और दुनिया को झकझोर कर रख दिया है। भारत की एक युवा बेटी ने पहले बलात्कारियों (राक्षसों) से जंग लड़ी। फिर लचर सुरक्षा व्यवस्था और पुलिसिया बद-इंतजामी के कारण भयंकर ठंडी रात को खुली सड़क पर डेढ़ घंटे तक निर्वस्त्र पड़ी रही। बाद में देश के सबसे बड़े अस्पताल में मौत से जूझती रही और अंत में अपने देश से बाहर सिंगापुर के अस्पताल में दुर्गा और कन्या पूजन की चिर पुरातन प्रथा की रस्मअदायगी करने वाले भारत को अनेक चुनौतियों के घेरे में छोड़कर चिरनिद्रा में सो गई। राक्षसी दमन से टकराने वाली वह युवती मरी नहीं है बल्कि एक ऐसे बैकुंठ में चली गई है जहां बलात्कारी नहीं रहते, जहां नारियों के चीत्कार से मुंह फेरने वाला पुरुष समाज नहीं है और जहां लचर कानून और बेकाबू सुरक्षा व्यवस्था (पुलिस) का हंटर लेकर जनाक्रोश को दबाने वाले कांग्रेसी सत्ताधारी नहीं हैं। उसके बलिदान और उसके बाद संघर्ष के मैदान में उमड़े स्वयंस्फूर्त्त जनांदोलन ने सत्ता को कटघरे में खड़ा कर दिया है।
सड़कों पर उतरे इस महाक्रोश का संबंध उस आधी दुनिया के स्वाभिमान से है जिसने सारी दुनिया को जन्म दिया है। इस युवा आंदोलन का कोई राजनीतिक स्वरूप नहीं है। इसमें किसी नेता का जिन्दाबाद मुर्दाबाद नहीं हो रहा। यह आन्दोलन नौकरियां, संरक्षण, वेतनवृद्धि, मूल्यवृद्धि अथवा वोट मांगने के लिए भी नहीं है। इस आक्रोश को राजनीतिक रंग देने की कुचेष्टा को भी छात्र/छात्राओं ने कुचल दिया है। इस देशव्यापी सामूहिक प्रतिकार का सीधा संबंध उस नारी स्वाभिमान से जुड़ा हुआ है जिसे भारत की सांस्कृतिक धरोहर में दुर्गास्वरूप मातृशक्ति कहा गया है। ऐसा भी नहीं है कि इससे पहले कभी इस तरह की वहशियाना हरकतें नहीं हुईं। अकेले दिल्ली में गत वर्ष छ सौ इस तरह की घटनाएं पुलिस थानों में दर्ज हुई हैं। (केवल दो आरोपियों को सजा मिली)। सारे देश में घटित इन हादसों की सूची तो बहुत लम्बी है। एक नग्न सत्य सबके सामने है कि लगभग सभी मामलों में केन्द्र और प्रदेश की सरकारें इस सामाजिक गंदगी को मिटाने में नाकाम साबित हुई हैं। यही नाकामी अब अविश्वास में बदल गई है। वर्तमान आक्रोश इसी की अभिव्यक्ति है।
जेहन में न कोई दर्द और आंखों में न कोई शर्म
यही है कांग्रेस की बेरहम राजनीति
मां–बहनों की अस्मिता और सम्मान की रक्षा के लिए देश के कोने-कोने में आंदोलित हो रहे 'लोक' का भरोसा 'तंत्र' से अचानक नहीं टूटा। पिछला काला इतिहास छोड़कर यदि दिल्ली में अंजाम दिए गए इस ताजा दुष्कर्म की ही समीक्षा करें तो स्पष्ट दिखाई देगा कि पुलिस अधिकारी से लेकर प्रधानमंत्री तक ने यह सिद्ध कर दिया है कि उनके जेहन में न कोई दर्द है और न ही आंख में कोई शर्म। देश की राजधानी की सड़कों पर छह बार चालान कटवा चुकी बस घंटों दौड़ती रही। उसमें राक्षसी तांडव होता रहा। गश्ती पुलिस सोई रही। सड़क पर दो जिंदा लाशें तड़पती रहीं। बस का ड्राइवर और मुख्य बलात्कारी और हत्यारा कई मामलों का आरोपी था। बस के मालिक ने परमिट भी फर्जी दस्तावेजों से प्राप्त किया था। इस सारी शैतानियत के समय कहां थी दिल्ली पुलिस? जब दुष्कर्म के इस गैर इंसानी हादसे के विरोध में छात्र/छात्राएं सामने आए तो उन पर लाठियां बरसाई गईं। गिरफ्तार किए गए इन छात्र/छात्राओं पर थाने में भी बदसलूकी की गई। एक अध्यापिका से झाड़ू पोंछा लगवाया गया, उसे थप्पड़ मारे गए और गंदी गालियां देकर यह कहा गया 'तेरा रेप तो नहीं हुआ।'
दमन के खिलाफ साहस के साथ दम तोड़ने वाली युवती को श्रद्धांजलि देने गए लोगों पर भी पुलिस का पहरा लग गया। जिस युवती के बलिदान ने जुल्म के खिलाफ एक क्रांति को जन्म दिया उसका दाह संस्कार भी गुप्त रूप से कर दिया गया। अहिंसक और अनुशासित युवाओं के कथित प्रदर्शन के डर से सारी दिल्ली विशेषतया संस्कार स्थल को पुलिस छावनी बना डाला। लोगों के सांत्वना/श्रद्धांजलि देने के अधिकार भी छीन लिए गए। दिल्ली के छोटे से मध्य क्षेत्र में अर्द्धसैनिक बलों की 40 कंपनियां और दिल्ली पुलिस के 40 हजार जवानों की घेराबंदी। इतने इंतजाम तो संसद पर हुए हमले और इस महानगर में हुए अन्य आतंकी हमलों के समय भी नहीं हुए थे। प्रधानमंत्री की नींद भी सात दिन के बाद खुली। गृहमंत्री युवाओं के सामने आज तक नहीं गए। सोनिया भी आक्रोश के जोर पकड़ने पर ही 'द्रवित' हुयीं और युवराज राहुल का तो ऐसे मौकों पर अता-पता ही नहीं चलता। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पीड़िता का पता लेने अस्पताल नहीं गईं।
अकर्मण्य शासन व्यवस्था के कारण ही
विश्व में बिगड़ी भारत की छवि
महिलाओं के सम्मान की रक्षा करने में पूर्णतया विफल रहे सत्ताधारियों की निष्क्रियता, अकर्मण्यता और नासमझी के कारण ऐसी असंख्य बालाएं दुष्कर्मों का शिकार होकर बदनाम हो रही हैं, सताई जा रही हैं और मर रही हैं। केन्द्र सरकार की अदूरदर्शी और लचर नीतियों के कारण विश्व भर में भारत की छवि को ठेस लग रही है। देश की संसद और मुम्बई पर हुए पाकिस्तान प्रायोजित आतंकी हमलों के समय भी भारत की छवि बिगड़ी थी। अब इस महानृशंसकारी सामूहिक बलात्कार के बाद तो संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अपनी जुबान खोली है। मानवाधिकार प्रमुख नवी पिल्लै (भारतीय मूल के) को कहना पड़ा है 'यह समस्या भारत की सभी जातियों और वर्गों की महिलाओं को प्रभावित कर रही है। इसका राष्ट्रीय समाधान ढूंढना जरूरी है।' पिल्लै ने दुष्कर्म की इस हरकत को भारत की राष्ट्रीय समस्या करार देते हुए कहा है कि 'अतीत में भारत ने सामाजिक अभियानों के जरिए दिखाया है कि वह दुष्कर्म जैसी समस्याओं से छुटकारा पाने में समर्थ है।' पिल्लै ने भारत के जिस अतीत की ओर इशारा किया है उसकी तो कल्पना भी वर्तमान सत्ताधारियों के होते नहीं की जा सकती।
हमारी सरकार की नाकामियों की चर्चा अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी हो रही है। न्यूयार्क टाइम्स और गार्जियन जैसे समाचार पत्रों ने लिखा है कि भारत की कानून-व्यवस्था बहुत ढीली-ढाली है, कानून लचर है और उन पर अमल करने की मशीनरी काम नहीं कर रही। सर्वविदित है कि इन्हीं अखबारों ने गत वर्ष हमारे प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह को अयोग्य और निष्क्रिय बताया था। यही मीडिया आज लिख रहा है कि भारत में न केवल वहां की महिलाओं से दुर्व्यवहार होता है बल्कि विदेशी महिला पर्यटक भी सुरक्षित नहीं हैं। अत्यंत दुख की बात तो यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की इस हेटी की जिम्मेदारी लेने के लिए कोई तैयार नहीं है। 23 वर्षीय छात्रा के साथ हुए दुष्कर्म और मौत के समय दिल्ली की मुख्यमंत्री, राज्यपाल, पुलिस और गृहमंत्रालय के बीच छिड़े विवाद से तो यही लगता है कि वर्तमान सरकार नागरिकों को सुरक्षा देने और अपने संवैधानिक कर्तव्यों को निभाने में पूरी तरह अक्षम है।
समाज में बढ़ रही अनैतिकता के लिए जिम्मेदार
कथित प्रगतिशील और सेकुलर सोच
महिलाओं की इज्जत पर हुए इस गहरे प्रहार के बाद देश में एक विचार बिजली की तरह प्रकट हुआ है कि पुरुष प्रधान समाज अपनी सोच और दृष्टि को बदले। परंतु समाज की सोच बदलेगी कैसे? कहावत है यथा राजा तथा प्रजा। क्या देश की जनता राजनेताओं की सोच को सुधारने में सक्षम है? 'लड़कियां लिप्स्टिक लगाकर आंदोलन करती हैं और बाद में डांस करने चली जाती हैं'…'आजादी तो रात के 12 बजे मिली थी परंतु औरतों को आधी रात को घर से निकलने को किसने कहा था।'…'गीतिका तो कांडा की नौकरानी थी, जिसे उन्होंने गलती से रख लिया था।'…'लड़कियों को स्कर्ट नहीं पहननी चाहिए।'…इत्यादि शर्मनाक महिला विरोधी बयान देने वाले नेताओं की वृत्ति को कौन बदलेगा? विज्ञापनों में महिलाओं के अर्द्ध नग्न चित्र, रात-रात भर होटलों में बार बालाओं को नचाने वाला पब कल्चर और विदेशी रिवाज वेलेंटाइन डे पर प्रेम का बेहूदा प्रदर्शन आदि इन सभी महिला प्रतिष्ठा विरोधी कुरीतियों को कौन रोकेगा? कथित सेकुलरी सोच वाले नेता इनका विरोध करने वालों को तुरंत साम्प्रदायिक और फासीवादी घोषित कर देते हैं। वास्तव में यही 'प्रगतिशील' नेता सख्त कानून/सजा में बाधक बनते हैं।
जिस देश के विद्यालयों में मां सरस्वती की वंदना, सूर्य नमस्कार, भोजन से पूर्व मंत्रोच्चारण, संतों, महात्माओं के जीवन चरित्रों, धर्म आधारित नैतिक शिक्षा के पाठ्यक्रमों को साम्प्रदायिक कहकर प्रतिबंधित किया जाता हो वहां समाज की सोच भला कैसे बदली जाएगी? मनोरंजन और आधुनिकता के नाम पर आयोजित होने वाले फूहड़ किस्म के नाच गानों को सांस्कृतिक कार्यक्रम कहने वालों को कौन समझाएगा कि यह संस्कृति नहीं विकृति है। उस छात्रा ने अपना बलिदान देकर नारी सम्मान की रक्षा के लिए जिस मशाल को युवाओं के हाथों में थमाया है इसकी रोशनी से महिलाओं की सुरक्षा के सवाल पर छाया अंधेरा जरूर समाप्त होगा। दिल्ली के जंतर-मंतर पर कड़कड़ाती ठंड में दिन-रात मोमबत्तियों की लौ से अपने आक्रोश को व्यक्त कर रहे युवा छात्र/छात्राओं के रूप में उसकी आत्मा सक्रिय है। इससे पहले कि यह चिंगारी दावानल बन जाए सरकार को चेत जाना चाहिए। समाज और राजनेताओं की यही चेतना महिलाओं के प्रति सामाजिक सोच को बदलेगी और नारी सुरक्षा के लिए कड़े कानूनों की शुरुआत होगी।
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