भवानी भाई का भावपूर्ण स्मरण
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डा.शिवओम अम्बर
नई कविता की विधा के सर्वाधिक लोकप्रिय कवि भवानी प्रसाद मिश्र के शताब्दी वर्ष में जगह-जगह उन पर केन्द्रित कार्यक्रम हुए, उन पर व्याख्यान दिये गये, किन्तु उनका एक अद्भुत भावपूर्ण स्मरण किया गया कोलकाता की सुप्रसिद्ध संस्था भारतीय संस्कृति संसद द्वारा। दूसरे 'तार सप्तक' के प्रथम कवि भवानी भाई ने कहीं कहा है – 'हमारे हर कवि का हर एक में अंश पड़ा हुआ है, हर लेखक को, हर कवि को, हर नाटक को जिन्दा रखिये, केवल स्मृति-समारोह मत बनाइये। ……..जो आदमी जितनी ज्यादा दूर अपने माध्यम से नहीं, दूसरों के माध्यम से पेश किया जायेगा, वो उतना ज्यादा जियेगा।' ……..इन पक्तियों को अक्षरश: कोलकाता में जिया गया। मुझे प्रसन्नता है कि मैं इस अनुष्ठान का साक्षी बना, इसमें सहभागिता की। संस्कृति संसद के अध्यक्ष डा. विट्ठलदास मूंधड़ा एवं सचिव-द्वय रतन शाह जी तथा डा. तारा चन्द दूगड़ के द्वारा पेषित आमन्त्रण-पत्र की भाषा अनायास सम्मोहन में डालने वाली थी – 'मानवीय अर्थों और आशयों के सजग, सचेत वाहक भवानी प्रसाद मिश्र प्रखर राष्ट्रीयता, प्रशस्त सामाजिकता एवं श्रम के सच्चे गायक थे। ऐसी विरल विभूति के जन्म शताब्दी वर्ष पर संस्था के सदस्यों ने कुछ चुनी हुई कविताओं की काव्य आवृत्ति द्वारा उनके बहुरंगी रचना-संसार को उद्घाटित करने का एक लघु प्रयास किया है।' ……..सुरुचिपूर्ण ढंग से छापे गये आमन्त्रण-पत्र पर जगमगा रही थीं अर्थगर्भ कविता-पंक्तियां-
शब्द अपनी गवाही देंगे
मगर उसके आगे
जो उनके पीछे तक देखता है!
समग्र आयोजन एक बड़े रचनाकार के संकेतमय शब्दों की सन्निधि में श्रद्धा के साथ बैठने का एक सारस्वत उपक्रम था, नैष्ठिक तथा भावोच्छल।
सभाकक्ष में प्रवेश करते ही जगह-जगह लगे भवानी भाई की कविताओं के कलात्मक भित्ति पत्र (पोस्टर) एक भावमय परिवेश रचते प्रतीत हुए। कवि कहीं दर्द उठने पर उसे नकारने का मन्त्र दे रहा था तो कहीं अपनी अन्तिम आकांक्षा के रूप में अपने आराध्य की अपने समीप अनुभूति को शब्दायित कर रहा था। कहीं हुक्मरानों की परिभाषा लिखी हुई थी तो कहीं आदमीयत की। कुछ पंक्तियां उद्धृत कर रहा हूं –
हम दुनिया के सत्ताधारियों को
दुनिया की जनता के सामने
खड़ा करना चाहते हैं,
दुनिया की जनता को
दुनिया के सत्ताधारियों से
बड़ा करना चाहते हैं!
तथा –
क्या कोई गिनकर बता सकता है
कि आदमी को आदमी
दिन में कितनी बार सता सकता है ?
कई जबाब हैं इसके –
एक – नहीं बता सकता
दो – जब मन में आये तब
तीन – यह सवाल आदमी के बारे में नहीं है
आदमी आदमी हो तो
वह किसी को भी
कैसे सतायेगा!
एवं एक सार्वकालिक सूत्र-वाक्य –
कुछ लिख के सो
कुछ पढ़ के सो
तू जिस जगह जागा सवेरे
उस जगह से बढ़ के सो!
डा. तारा चन्द दूगड़ के प्रभावी संचालन में मंच पर युवकों-युवतियों-बच्चों और वयोवृद्धों के अलग-अलग समूह आये और उन्होंने भवानी भाई की विविधवर्णी कविताओं की एकल तथा समवेत प्रस्तुति की। प्रस्तुतियों के पीछे अभ्यास का श्रम और हृदय की श्रद्धा सहज परिलक्षित हो रही थी। ये रचनाएं समय के श्रावणी आकाश पर भावनाओं का इन्द्रधनुष आरेखित कर रहीं थीं और सहृदय, सुधी श्रोता-समाज साहित्यिकता की सात्विकता से आवेष्टित होकर किसी अतीत का अनुश्रवण नहीं कर रहा था अपितु कालातीत का अनुभावन कर रहा था। भवानी भाई के व्यक्तित्व के प्रति सहज श्रद्धान्वित तथा उनके विराट कृतित्व के एक-एक स्पन्दन के लिये संवेदनशील श्री लक्ष्मण केडिया ने उन पर, उनकी रचनावली के प्रकाशन पर, इस प्रक्रिया में रह गई भूलों पर तथा भविष्य की अपनी योजनाओं पर एक सारगर्भित वक्तव्य दिया। कुछ देर के लिये भवानी भाई की आवाज़ में रिकार्ड की गई उनकी कुछ कविताएं मंच से सुनवाई गईं, उस समय सभी जैसे सांस रोके उन्हें सुन रहे थे, आत्मसात् कर रहे थे। अपना वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए मैंने भवानी भाई को सहज संवाद, प्रखर प्रतिवाद और आत्मिक आह्लाद के कवि के रूप में निरूपित किया। उनकी कविताएं सदैव सहृदय भावक के साथ सहज संवाद करती रहीं, उसके कन्धे पर हाथ रखकर एक आत्मीय की तरह उसे अपना हमराज़ बनाती रहीं। किन्तु ये ही अभिव्यक्तियां आपातकाल में त्रिकाल संध्या करने वाली तपस्वी की वाणी से अन्याय और अत्याचार के लिये आदि कवि का शाप भी बनीं और अन्तत: अर्पण, तर्पण और समर्पण के सोपानों पर संचरण करते हुए सर्व के प्रति स्व का निष्काम प्रणाम बनकर विराम को प्राप्त हुईं -यह मैंने बताने की चेष्टा की।
शब्द–समर का अटल – अभिवन्दन
भोपाल के एक पाक्षिक 'शब्द – समर' ने पूर्व प्रधानमन्त्री कविवर अटल बिहारी वाजपेयी के जन्म-दिवस की पूर्व संध्या पर उनके कवि-रूप को प्रणति निवेदित करने के लिये एक काव्य-समारोह का आयोजन किया। भीषण शीत के बावजूद भोपाल में उस दिन अटल जी के अनुरागियों और काव्य-प्रेमियों के एक बड़े वर्ग ने देर रात तक कविता की दीप शिखाओं से श्रद्धा के स्वस्तिक रचे। ब्रजेन्द्र चकोर का शिष्ट हास्य, कुंवर जावेद के राष्ट्रवादी मुक्तक और वरिष्ठ कवि वसीम बरेलवी के सूफ़ी ढंग वाले अशआर मेरी दृष्टि में आयोजन की रेखांकित करने योग्य उपलब्धियां थीं। यूं तो सभी रचनाकारों ने एक सकारात्मक माहौल बनाया-कुछ तो एकदम अभिनव स्वर थे जिनकी कलात्मकता तो नहीं, किन्तु सच्चाई पर्याप्त प्रभावित कर रही थी। संचालकीय दायित्व निभाते हुए मैंने अर्द्धरात्रि के वक्त सबको तारीख़ बदल जाने की याद दिलाई और फिर 25 दिसम्बर की मंगलविधायिनी वेला में श्रद्धेय अटल जी को समस्त साहित्यानुरागियों की अशेष शुभकामनाएं देते हुए उनकी कुछ महत्वपूर्ण पंक्तियों को पढ़ा। सहृदय भावकों ने इन पंक्तियों के साथ पूरी तरह जुड़ते हुए अटल जी के सन्देश को जीवन-निर्देश के रूप में स्वीकार किया –
आदमी को चाहिये कि वह जूझे
परिस्थितियों से लड़े,
एक स्वप्न टूटे तो दूसरा गढ़े!
किन्तु कितना भी ऊंचा उठे
मनुष्यता के स्तर से न गिरे,
अपने धरातल को न छोड़े
अन्तर्यामी से मुंह न मोड़े।
अभिव्यक्ति मुद्राएं
(पद्म भूषण नीरज जी 04 जनवरी को 88
वर्ष के हुए, बधाई, उनके कुछ अशआर)
इतने बदनाम हुए हम तो इस ज़माने में,
तुमको लग जायेंगी सदियां हमें भुलाने में।
आदमी खुद को कभी यूं भी सजा देता है,
रोशनी के लिए शोलों को हवा देता है।
मुझको उस वैद्य की विद्या पे हंसी आती है,
भूखे लोगों को जो सेहत की दवा देता है।
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