'कैश फॉर वोट?'
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समदर्शी
अपने पिछले कार्यकाल में 'मनरेगा' और कृषि कर्ज माफी जैसी योजनाओं से मतदाताओं को फुसलाने में सफल रही कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार इस बार 'कैश ट्रांस्फर' यानी नकदी अंतरण योजना ले कर आयी है। शायद इसी के सहारे लोकसभा चुनाव वैतरणी पार हो जाये। कहा जा रहा है कि सरकारी योजनाओं के तहत दी जाने वाली सब्सिडी अब सीधे वास्तविक पात्रों के बैंक खातों में जमा करायी जायेगी, ताकि बीच में गोलमाल न होने पाये। अगर सही ढंग से अमल हो पाया तो यह वाकई चमत्कार होगा, पर न तो वैसी मंशा है और न ही कोशिश। मतदाताओं को फुसलाने की मांग तो जगजाहिर है, कोशिश का भी आलम यह है कि मनमोहन सिंह सरकार ने पहले इसे एक जनवरी से 16 राज्यों-केंद्र शासित प्रदेशों के 53 जिलों में लागू करने का ऐलान किया था, लेकिन अब इसे महज 20 जिलों में ही लागू किया जा सका है, क्योंकि तैयारियां ही पूरी नहीं हैं। रसोई गैस समेत पेट्रोलियम पदार्थों पर मिलने वाली सब्सिडी को इस योजना से फिलहाल बाहर ही रखा गया है। शुरुआत भी उन राज्यों से की गयी है, जिनमें विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। जो आधार कार्ड इस योजना का असली आधार बताया जा रहा था, वह ही बहुत कम लोगों को मिल पाया है, सो अब बिना 'आधार' भी यह चलेगी। इसके बावजूद योजना लागू करने का ऐलान करते हुए केंद्रीय वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने कहा कि यह खेल बदलने वाली साबित हो सकती है। जब सरकार के लिए ही यह योजना खेल है, जाहिर है वोटों का, तो फिर गुण-दोष पर बहस कैसी?
वही मुंसिफ
बीते साल के अंत में देश की राजधानी दिल्ली की सड़कों पर चलती बस में सामूहिक बलात्कार की शिकार बनी छात्रा की सिंगापुर के अस्पताल में हुई मौत देश को झकझोर भी गयी और व्यवस्था को बेनकाब भी कर गयी, लेकिन सत्ता तंत्र है कि न सुधरने पर आमादा है। इस शर्मनाक घटना में सबसे बड़ी नाकामी दिल्ली पुलिस की रही, लेकिन जिस केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन वह आती है, उसी के सचिव ने उसे शाबाशी दे दी। बात यहीं खत्म नहीं हो गयी। सरकार ने दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा की समीक्षा के लिए जो कार्यबल बनाया, उसकी कमान भी केंद्रीय गृह सचिव महोदय को सौंप दी गयी। उसमें दिल्ली पुलिस के वह आयुक्त भी सदस्य बनाये गये हैं, जिन्होंने बलात्कार पीड़िता का बयान लेने गयी एसडीएम पर अनुचित दबाव डालने वाले अपने अधीनस्थों को न सिर्फ बचाने की कोशिश की, बल्कि पुलिस को शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने वालों के दमन के लिए भी प्रेरित किया। इन प्रदर्शनों के दौरान दिल का दौरा पड़ने से मृत पुलिसकर्मी की मौत को, पोस्टमार्टम रपट आने से पहले ही, हत्या बताते हुए निर्दोष युवाओं को भी फंसाया। अब ऐसा कार्यबल कैसा समीक्षा कार्य करेगा, यही अनुत्तरित सवाल आम आदमी को परेशान कर रहा है।
मौन राजनीति
आये दिन होने वाली बलात्कार की घटनाओं पर जवाबदेही से मुख्यमंत्री शीला दीक्षित महज इस बहाने बच निकलती हैं कि दिल्ली पुलिस उनके अधीन नहीं हैं, वह तो एक कांस्टेबल का स्थानांतरण तक नहीं कर सकतीं। बेशक यह सच भी है, पर क्या उनकी सरकार के अधीन आने वाले सभी विभाग सही काम कर रहे हैं? वह जवाब न भी दें, पर सच सभी को मालूम है कि किस तरह दिल्ली सरकार में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है। फिर यह भी सच है कि केंद्र में भी पिछले आठ वर्षों से अपनी ही पार्टी की सरकार होने के बावजूद शीला दीक्षित ने कभी भी दिल्ली पुलिस को अपने अधीन करने के लिए दबाव नहीं डाला, जबकि उनकी गिनती कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के करीबियों में होती है। इसके बावजूद अब जबकि इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं, वे अपनी छवि सुधार कर लोगों को फुसलाने का कोई मौका नहीं छोड़ रहीं। जबर्दस्त विरोध के बावजूद मीडिया कवरेज की खातिर मृतका को जंतर मंतर पर श्रद्धाञ्जलि की औपचारिकता पूरी करने पहंुच गयीं तो फिर महिला सुरक्षा मार्च भी निकाला। लोग समझ नहीं पा रहे कि दिल्ली में तो वह खुद मुख्यमंत्री हैं ही, केंद्र में भी उन्हीं की पार्टी की सरकार है, फिर भला वह किसे और क्या संदेश देना चाह रही हैं?
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