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गुजरात और हिमाचल प्रदेश में अभी संपन्न हुए निर्वाचन में एक भी मतदान केंद्र ऐसा नहीं रहा जहां किसी भी कारण से पुनर्मतदान की आवश्यकता पड़ी हो। दोनों मुख्य दलों-कांग्रेस और भाजपा ने भी चुनाव आयोग से मतदान के दिन भी चुनाव आयोग से कोई शिकायत दर्ज नहीं की। इसके पूर्व उत्तर प्रदेश सहित जिन राज्यों में निर्वाचन हुआ, उसमें भी किसी प्रकार की गंभीर शिकायत दर्ज नहीं हुई। स्पष्ट है कि निर्वाचन प्रक्रिया में निरंतर सुधार होता जा रहा है। हां, चुनाव प्रचार के दौरान भाषण के बीच असंयमित भाषा के संदर्भ में शिकायतें अवश्य होती रही हैं। निर्वाचन आयोग ने इन शिकायतों का संज्ञान भी लिया। जैसे, उसने निर्वाचन के दौरान ही गरीबों को नगद अनुदान उनके बैंक खाते में सीधे पहुंचने की प्रक्रिया और केन्द्रीय मंत्री वीरप्पा मोइली द्वारा छूट वाले छह गैस सिलेंडरों की संख्या को नौ किए जाने की घोषणा पर केन्द्र सरकार और मोइली को फटकार लगाई।
इससे पूर्व भी उत्तर प्रदेश विधानसभा के निर्वाचन में तीन केंद्रीय मंत्रियों- श्रीप्रकाश जायसवाल, बेनी प्रसाद वर्मा और सलमान खुर्शीद से जवाब-तलब किया था। तीनों के आचरण पर नाराजगी जाहिर की थी क्योंकि उनकी अभिव्यक्तियां सम्प्रदायिक उन्माद बढ़ाने वाली थीं। निर्वाचन आयोग ने पोस्टर, बैनर और झंडा लगाने की प्रक्रिया को लगभग शून्य कर दिया है। मतदाताओं को पर्ची पहुंचाने की जिम्मेदारी स्वयं आयोग ने संभालकर उम्मीदवारों को बड़े खर्चे से बचा लिया है। इसके बावजूद उम्मीदवारों के व्यय की सीमा निरन्तर बढ़ती जा रही है। आयोग ने राजधानी या किसी अन्य क्षेत्र से धन ले जाने की सीमा भी निर्धारित कर दी है, लेकिन उम्मीदवारों का व्यय बढ़ता जा रहा है। एक विधानसभा में बड़ा मुकाबला होने पर अनुमानत: चार से पांच करोड़ रुपया खर्च होता है। सामान्य क्षेत्रों पर भी मुकाबले के उम्मीदवार एक-एक करोड़ रुपए तक व्यय करते हैं। राजनीतिक दल भी पच्चीस से पचास लाख रुपया तक उम्मीदवारों को देते हैं। लोकसभा चुनाव में तो कुछ उम्मीदवार दस करोड़ रूपए से भी ज्यादा खर्च कर देते हैं। यदि कोई बहुत महत्वपूर्ण उम्मीदवार है तो व्यय की सीमा का अनुमान लगाना कठिन हो जाता है।
पैसे का बढ़ता चलन
चुनाव में पोस्टर, बैनर, झंडे का खर्च भले ही कम हो गया हो, उम्मीदवार के वाहनों की संख्या निर्धारित हो, झंडे लगे निजी वाहनों को भी चुनावी खर्च में शामिल कर लिया गया हो, लेकिन नगद रुपया बांटने का चलन बढ़ गया है। अब चुनाव प्रचार बिना झंडे वाली गाड़ियों से किया जाता है। आयोग ने कई उम्मीदवारों या उनके समर्थकों को नगद रुपया बांटते हुए पकड़ा भी है, लेकिन कार्रवाई चेतावनी और फटकार से आगे नहीं बढ़ सकी। आयोग ने देश के कई प्रमुख दलों को आचार संहिता के उल्लंघन के आरोप पर दल की मान्यता क्यों न समाप्त कर दी जाए, इसके लिए नोटिस भी दिया, पर उत्तर से संतुष्ट न होने के बावजूद 'कड़ी चेतावनी' देने के अलावा कुछ भी नहीं किया। कुछ मामलों में पुलिस में प्राथमिकी भी दर्ज कराई गई, लेकिन किसी को दंड नहीं मिला, क्यों?
चुनाव में कदाचरण या भ्रष्ट तरीके अपनाकर जीतने वालों के विरुद्ध एक ही विकल्प है न्यायालय में याचिका। जिसका फैसला अधिकांशत: अब सदस्यता की अवधि बीत जाने के बाद ही होता है। सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में वर्तमान वित्त मंत्री पी. चिदंबरम के खिलाफ मतगणना में हेरफेर कराकर जीतने का आरोप लगाते हुए जो याचिका दायर हुई है, उसकी सुनवाई अब शुरू हुई है। ऐसे अनेक मामले हैं जिसमें अब याचिका का फैसला सदस्यता की अवधि बीत जाने के बाद होता है। जहां पुनर्गणना को ही आधार बनाकर याचिका दायर हुई हो, उसमें तो तत्काल-एक महीने के भीतर ही- पुनर्गणना हो सकती है।
चुनाव आयोग के सकारात्मक कदम
इसमें कोई संदेह नहीं कि नख-दंत विहीन होने के बावजूद आयोग ने चुनाव प्रक्रिया के सुधार के लिए जो कदम उठाये हैं, वे सराहनीय हैं, लेकिन अपर्याप्त है। अन्य तमाम स्वायत्त आयोगों के समान नहीं, बल्कि चुनाव आयोग को केवल अपनी धमक के सहारे ही काम करना पड़ रहा है। काले धन का सबसे व्यापक उपयोग चुनाव के दौरान ही होता है। करोड़ों रुपए खर्च करने बाद प्रत्येक उम्मीदवार निर्धारित सीमा से भी बहुत कम व्यय का ब्योरा दे देता है। मुझे स्मरण है कि 1977 में रायबरेली से श्रीमती इंदिरा गांधी को हराने वाले राज नारायण ने अपने कुल व्यय का ब्यौरा चौदह हजार रुपया और श्रीमती इंदिरा गांधी ने ग्यारह हजार रुपए से कुछ अधिक का दिया था। अभी जो व्यवस्था है उसमें निर्वाचन आयोग किसी राजनीतिक दल को मान्यता दे सकता है, राष्ट्रीय दल के रूप में मान्यता प्राप्त दल को कम मत पाने के आधार पर उसे क्षेत्रीय दल बना सकता है, लेकिन उसकी मान्यता समाप्त नहीं कर सकता। आयोग ने अपनी ओर से निर्वाचन प्रक्रिया को पारदर्शी और भ्रष्टाचार मुक्त करने के लिए अनेक सुझाव दिए हैं, जो सरकार व राजनीतिक दलों द्वारा 'निरंतर विचाराधीन' है। हाल ही में आयोग ने राजनीतिक दलों की एक बैठक बुलाई थी, जिसमें यह प्रस्ताव रखा था कि राजनीतिक दल अपने दल के खाते में जमा धन का ब्योरा देने के साथ-साथ उसकी प्राप्ति का ब्योरा भी दें। पर एक भी राजनीतिक दल इसके लिए तैयार नहीं हुआ, चाहे वह राष्ट्रीय हो या क्षेत्रीय। वैसे तो राजनीतिक दलों के खाते में जमा धन भी 'अज्ञात' व्यक्तियों से ही आता है, लेकिन दलों के खाते में जितना धन जमा होता है उससे कई सौ गुना अधिक उनके 'व्यक्तियों' के पास होता है। इसके लिए घोटाले किए जाते हैं। संप्रग शासनकाल के दूसरे चरण में एक के बाद एक जिन घोटालों का पर्दाफाश हो रहा है, वह इसका सबूत है। इसका और भी बड़ा और प्रत्यक्ष सबूत है कुछ घरानों की सम्पत्ति में आसमान छूती वृद्वि। श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1968 में कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को चंदा देने पर रोक लगा दी थी, तब चंद्रभानु गुप्त ने इस प्रतिबंध के प्रबल समर्थक चंद्रशेखर से कहा था कि इसका प्रभाव यह होगा कि पूंजीपति दलों को चंदा देने की बजाय मंत्रियों को मेज के नीचे से लिफाफा देने लगेंगे। वह लिफाफा अब सूटकेस में परिवर्तित हुआ और अब देश के बाहर के बैंकों में पहुंचने लगा है।
राजनीति का बदलता स्वरूप
दरअसल राजनीति अब व्यवसाय बन गयी है। जिस प्रकार कम पूंजी वाले के व्यापार को बड़ी पूंजी लगाने वाला बैठा देता है, उसी प्रकार की स्थिति राजनीति में हो रही है। प्राय: सभी दलों में उम्मीदवार के चयन में उसके स्वयं के द्वारा व्यय की क्षमता को प्राथमिकता दी जाती है। इसके कारण किसी भी दल से टिकट पाने वाले लोग विभिन्न राजनीतिक दलों के लोगों के पास कार्यालयों में मंडराते रहते हैं। उनके सामने पार्टी के आदर्श, सिद्धांत और मर्यादित आचरण के पक्षधर पीछे होते जा रहे हैं। चुनाव के समय ही सबसे ज्यादा दल-बदल हो रहा है। राजनीतिक विचारधारा और दलीय दिशाहीनता के स्थान पर 'विनविल्टी' अर्थात जीतने की संभावना उम्मीदवार के चयन में सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गयी है। मतदाता भी इस 'राजनीतिक स्वभाव' से अछूता नहीं रह गया है। जाति-बिरादरी-संप्रदाय और क्षेत्रीयता के आधार पर मतदान के परिणाम का आकलन कर उम्मीदवारों को मत दिया जाता है। इस भाव की व्यापकता यदि कहीं निर्मूल हो रही है तो वह है गुजरात। नरेन्द्र मोदी की बिरादरी के तो गुजरात में दस हजार मतदाता भी नहीं होंगे। इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि यदि राजनीतिक दल सत्ता में आने पर जनहित और विकास के काम करें तो नरेन्द्र मोदी के समान देश और विदेश-व्यापी घृणात्मक प्रचार से भी मतदाताओं को प्रभावित होने से बचा सकते हैं। लेकिन जाति या संप्रदाय से ऊपर उठकर लोग मतदान करें, यह जिम्मेदारी सिर्फ आयोग नहीं संभाल सकता। वह तो महज आह्वान कर सकता है। लेकिन निर्वाचन की प्रक्रिया को मर्यादित और भ्रष्टाचार रहित और विभेदकारी बनाने से रोकने के लिए उसके पास कुछ अधिकार होने जरूरी हैं। संसद में लेखा महापरीक्षक के प्रतिवेदन पर तो कभी-कभी चख-चख हो जाती है, चर्चा नहीं, अन्यथा किसी भी स्वायत्तशासी संस्था द्वारा किए गए आकलन और प्रतिवेदन की प्रतियां आगे नहीं जा पातीं। काले धन का प्रभाव, सांप्रदायिकता और जातीयता से निर्वाचन प्रक्रिया को यदि मुक्त करना है तो निर्वाचन आयोग को चेतावनी या फटकार से आगे कार्रवाई करने के अधिकार से सम्पन्न करना होगा। उसे यदि हथियार न दें तो कम से कम नख और दंत के प्रयोग का अधिकार तो देना ही चाहिए।
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