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देश की सत्ता के शीर्ष-पुरुष महामहिम राष्ट्रपति के आवास के सामने राजपथ पर दिसम्बर की कंपकपाती सर्दी और खून को जमा देने वाली रात में भी देश की जनता, विशेषकर भावी भारत के कर्णधार युवा जमा थे। वे व्याकुल थे अपनी असुरक्षा को लेकर, दु:खी थे देश की राजधानी दिल्ली में एक युवती के साथ दरिंदगीपूर्ण बलात्कार की घटना से, और आक्रोश प्रकट कर रहे थे कि बलात्कारियों को फांसी देने का कानून क्यों नहीं है। 22 और 23 दिसम्बर को तो ये युवक-युवतियां पुलिस द्वारा की गई पानी की मार से भीगते-गिरते-पड़ते रहे, पुलिस द्वारा छोड़े गए अश्रु गैस के गोलों और बाद में लाठीचार्ज के बावजूद वहां डटे रहे। उन्हें उम्मीद थी कि देश के प्रथम नागरिक तक उनकी आवाज पहुंच जाएगी और वे उनका दर्द समझ सकेंगे। लेकिन दुर्भाग्य, देश के प्रथम नागरिक के सांसद पुत्र अभिजीत मुखर्जी ने जो कहा वह उस सोच की अभिव्यक्ति है जिस सोच को लेकर सोनिया-मनमोहन की सरकार आंदोलनकारियों-प्रदर्शनकारियों से निपट रही थी। अभिजीत मुखर्जी बोले-'छात्राओं के नाम पर रैलियों में डेंटेड–पेंटेड (रंगी–पुती) महिलाएं पहुंच रही हैं। दिल्ली में जो हो रहा है वह गुलाबी क्रांति है, जिसका जमीनी हकीकत से कोई लेना–देना नहीं है। पहले ये महिलाएं कैंडल (मोमबत्ती) लेकर जुलूस निकालती हैं और फिर शाम को अपने दोस्तों के साथ डिस्को जाती हैं।'
यह एक सामान्य आदमी की सोच-समझ नहीं है बल्कि यह उस व्यक्ति की टिप्पणी है जिससे देश की संसद में बैठकर बलात्कारियों के खिलाफ सख्त कानून बनाने की उम्मीद की जा रही है, सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी का प्रतिनिधि है और अपने पिता श्री प्रणव मुखर्जी के राष्ट्रपति बन जाने के बाद उनके परंपरागत निर्वाचन क्षेत्र जांजगीर की जनता का प्रतिनिधि चुना गया है। पता नहीं महामहिम अपने पुत्र की इस सोच पर कितना कुपित हुए होंगे, लेकिन उनकी पुत्री शर्मिष्ठा मुखर्जी अपने भाई की इस टिप्पणी पर शर्म से पानी-पानी थीं।
यह तो है कांग्रेस के एक सांसद की सोच, पर जो देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हैं, वे कितनी समझ रखते हैं यह तब सामने आया जब एक तरफ देश के 'निस्तेज प्रधानमंत्री' डा.मनमोहन सिंह 24 दिसम्बर को टेलीविजन के माध्यम से देश को सम्बोधित कर रहे थे और स्वयं को तीन बेटियों का बेचारा पिता बताकर जनता को आत्मविश्वास से भरने की बजाय निरुत्साहित करने वाला बयान दे रहे थे, तो दूसरी ओर 'नाकाबिल गृहमंत्री' एक टेलीविजन चैनल पर साक्षात्कार के दौरान कह रहे थे कि कल यदि माओवादी हथियारों के साथ इंडिया गेट पर प्रदर्शन करने आ जाएंगे तो क्या मैं (एक गृहमंत्री के नाते) उनसे भी बात करने जाऊंगा। देश का दुर्भाग्य है कि आंतरिक और नागरिक जीवन की सुरक्षा के प्रति जिम्मेदार गृहमंत्री की सोच इतनी सतही है जो माओवादियों और आंदोलनकारियों के बीच भेद नहीं कर सकती। माओवादी आज देश की एकता और अखंडता के लिए खतरा बने हुए हैं। देश के 200 से ज्यादा जिलों में माओवादी सक्रिय हैं। नेपाल सीमा से लेकर आंध्र प्रदेश तक एक लाल (खूनी) गलियारा बना चुके हैं। देश-विदेश से मिल रही सहायता के बूते बिहार, झारखंड, प.बंगाल, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और आंध्र प्रदेश के एक सीमित क्षेत्र में समानांतर सरकार चला रहे हैं, आए दिन सुरक्षा बलों को बारूदी सुरंगों से उड़ा रहे हैं। वे अगर हथियार लेकर प्रदर्शन करने दिल्ली तक आ जाएं तो इसे आपका निकम्मापन ही कहा जाएगा गृहमंत्री जी!!
जबकि यहां दिल्ली में एक युवती से किए गए जघन्यतम बलात्कार के बाद जनता के मन में संचित अपमान, असुरक्षा और उपेक्षा की भावना आक्रोश बनकर फूट पड़ी थी। इस प्रदर्शन के पीछे न कोई विचारधारा थी, न कोई चेहरा, न कोई संगठन और न ही कोई स्पष्ट मांग, थी तो सिर्फ गुस्से और आक्रोश की अभिव्यक्ति। यह आक्रोश है असुरक्षा को लेकर, भविष्य की चिंता को लेकर, जिसके बारे में केन्द्र सरकार न केवल लापरवाह है बल्कि हद दर्जे तक संवेदनहीन भी है। 16 दिसम्बर की रात चलती बस में सामूहिक बलात्कार के बाद मरणासन्न स्थिति में छोड़ देने वाले 6 दरिंदे पुलिस की गिरफ्त में हैं और लगभग मृतप्राय उस युवती को दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल से सिंगापुर के अस्पताल में स्थानांतरित कर दिया गया है। समाचार लिखे जाने तक वह युवती जीवन के लिए जूझ रही है और देश भर से उसके लिए दुआओं के साथ उसको इस हाल में पहुंचाने वालों के लिए फांसी-फांसी-फांसी की ही मांग उठ रही है। देश भर में प्रदर्शन हो रहे हैं। दिल्ली के इंडिया गेट से लेकर राष्ट्रपति भवन तक प्रकटे जबरदस्त जनाक्रोश के बाद सत्तामद में चूर सोनिया-मनमोहन सरकार की नींद टूटी। जन दबाव के बाद दिल्ली में 'फास्ट ट्रैक अदालतें', महिलाओं से संबंधित मामलों में नियमित सुनवाई, बलात्कार के जघन्य मामलों में फांसी की सजा देने वाले कानून का प्रस्ताव, सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति जे.एस.वर्मा की अध्यक्षता में महिलाओं की सुरक्षा संबंधी सुझाव देने वाला एक आयोग आदि-आदि कुछ किया गया। पर इसके बावजूद प्रदर्शन नहीं रुके, जनाक्रोश बढ़ता ही गया। और तो और इस जनाक्रोश को दबाने के लिए दिल्ली पुलिस ने जिस प्रकार दमन की नीति अपनायी, निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर बर्बरतापूर्वक लाठीचार्ज किया गया, उससे दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित व उनके सांसद पुत्र संदीप दीक्षित भी मैदान में कूद पड़े और गृह मंत्रालय के अधीन काम कर रही दिल्ली पुलिस को राज्य सरकार के अधीन करने और पुलिस उपायुक्त नीरज कुमार को हटाने की मांग सार्वजनिक रूप से करने लगे तो गृहमंत्री शिंदे के बचाव के लिए निवर्तमान गृहमंत्री पी.चिदम्बरम को आना पड़ा। वही चिदम्बरम जिनके गृहमंत्रित्व काल की उपलब्धि यह है कि राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का गठन कर उससे समझौता एक्सप्रेस में बम विस्फोट के मामले की दोबारा जांच कराकर उसमें स्वामी असीमानंद सहित कुछ हिन्दुओं को फंसाकर देश में 'भगवा आतंकवाद' का जुमला उछाला गया और दिल्ली के रामलीला मैदान में स्वामी रामदेव के नेतृत्व में राष्ट्रीय स्वाभिमान जगाने आए हजारों निर्दोष लोगों को रात के अंधेरे में उनके ही निर्देश पर दिल्ली पुलिस ने सोते हुए पीटा। जिसमें एक युवकी की मौत हो गयी। तब उस युवती राजबाला की हत्या या हत्या के प्रयास का मामला किसी पर दर्ज नहीं हुआ, जबकि इस बार राजपथ पर प्रदर्शन के दौरान 23 दिसम्बर को प्रदर्शनकारियों को खदेड़ने के दौरान दौड़ते हुए दिल का दौरा पड़ने से मारे गए पुलिसकर्मी सुभाष चंद तोमर के मामले को हत्या बताकर धारा 307 के अन्तर्गत यहां- वहां से उठाकर 8 निर्दोष व निरपराध युवकों को सलाखों के पीछे पहुंचा देने वाली दिल्ली पुलिस को चिदम्बरम 'क्लीन चिट' देते घूम रहे हैं और कह रहे हैं कि सरकार की कार्रवाई के बाद इन प्रदर्शनों का कारण उनकी समझ में नहीं आ रहा। ये हैं सरकार की संवेदनाएं।
चिदम्बरम को शिंदे के सहयोग के लिए इसलिए भी सामने आना पड़ा क्योंकि 31 जुलाई, 2012 को मंत्रिमंडल में फेरबदल के बाद बिजली मंत्री से गृहमंत्री बने सुशील कुमार शिंदे न केवल नाकाम साबित हो रहे हैं बल्कि अपने बचकाना और स्तरहीन बयानों के कारण लगातार आलोचनाओं का शिकार भी हो रहे हैं। पर वे पहले ऐसे गृहमंत्री नहीं हैं। दरअसल सोनिया गांधी के नेतृत्व वाले संप्रग के लिए गृह मंत्रालय यानी आम नागरिकों की सुरक्षा कभी महत्वपूर्ण रही ही नहीं। पहले गृहमंत्री शिवराज पाटिल 13 सितम्बर, 2008 को दिल्ली में हुए बम विस्फोट के दौरान कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में अलग, पत्रकार वार्ता में अलग और फिर सोनिया गांधी के साथ पीड़ितों को अस्पताल देखने जाते समय अलग-अलग वेशभूषा में नजर आए। उनके इस 'ड्रेसिंग सेंस' की तब खूब आलोचना हुई, तो उन्हें गृह मंत्रालय से चलता कर दिया गया। चिदम्बरम के गृहमंत्री रहते असम जला और शिंदे ने गृहमंत्री बनने के बाद पाकिस्तानी क्रिकेट टीम को न्योता देते समय कहा कि बीती बातें भुला दें। तब (स्व.) बाला साहब ठाकरे ने शिंदे को 'निशान-ए-पाकिस्तान' देने की बात कहते हुए पूछा था कि क्या मुम्बई पर हमला भुला दें। दरअसल शिंदे की एकमात्र काबिलियत यही है कि वे नेहरू वंश के प्रति वफादार रहे हैं, अमेठी में वे श्रीमती सोनिया गांधी के पहले चुनाव अभियान के प्रभारी थे, उपराष्ट्रपति का चुनाव हारने के बाद आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बनाए गए, पर मर्यादा में रहना रास नहीं आया तो फिर सक्रिय राजनीति में आ गए। उनके बिजली मंत्री रहते देश अंधकार में डूबा, पर 'मैडम' की कृपा से वे अगले दिन ही गृहमंत्री बना दिए गए ताकि देश की सुरक्षा भी अंधकार में डुबा दें। यही गृहमंत्री अब पूछ रहे हैं कि, 'हमने बलात्कार की घटना के बाद बहुत कुछ किया, इसके बाद भी प्रदर्शनकारी कह रहे हैं कि हमें न्याय चाहिए, इसका क्या अर्थ है।' इसका अर्थ स्पष्ट है गृहमंत्री जी, आप और आपकी सरकार जनता का भरोसा खो चुकी है। आपके हाथों में न यह देश सुरक्षित है और न उसका नागरिक। जनता के सरोकारों के प्रति आपकी सरकार इतनी संवेदनहीन है कि भय, भूख, भ्रष्टाचार, महंगाई और बढ़ते अपराध की बात छोड़िए, बलात्कार जैसे घिनौने कृत्य पर भी आपकी सरकार शर्मनाक हद तक लापरवाह है। और सबसे शर्मनाक आचरण प्रकट कर रहे हैं स्वयं को युवा कहने वाले, युवाओं को मंत्रिमंडल में जगह दिलाने वाले, पर्दे के पीछे से बैठकर सत्ता संचालित करने वाले, भावी प्रधानमंत्री का सपना पाल रहे राहुल गांधी, जो इंडिया गेट पर प्रकटे युवाओं के आक्रोश पर चुप रहे, न उनके बीच गए और न ही उनके दु:ख में सहभागी हुए।
नासमझ या नाकाबिल शिंदे?
बलात्कार के खिलाफ राजपथ पर प्रदर्शन कर रहे युवक-युवतियों के बीच जाने से इनकार करते हुए गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने कहा- 'यह कहना बहुत आसान है कि गृहमंत्री इंडिया गेट जाएं और बातचीत करें। कल अगर कोई अन्य राजनीतिक दल प्रदर्शन करता है कि गृहमंत्री को वहां क्यों नहीं जाना चाहिए। कल कांग्रेस, भाजपा प्रदर्शन करेगी, कल माओवादी यहां आएंगे और हथियारों के साथ प्रदर्शन करेंगे। तब भी क्या मैं उनसे मिलने जाऊं।' थ् 14 दिसम्बर से तीन दिन की भारत यात्रा पर आए पाकिस्तानी गृहमंत्री रहमान मलिक ने मुम्बई हमले की तुलना बाबरी ढांचे के ध्वंस से की और शिंदे जवाब देने की बजाय उनकी आवाभगत में लगे रहे। मलिक की यात्रा का राज्यसभा में विवरण देते हुए मुम्बई पर हमले के सूत्रधार के लिए भी शिंदे के मुंह से निकला-मिस्टर (श्री) हाफिज सईद। थ् मुम्बई हमले के आरोपी आमिर अजमल कसाब को 21 नवम्बर की सुबह फांसी दिए जाने के बाद शिंदे पत्रकारों से बोले-इस बेहद गोपनीय मिशन की जानकारी मैडम (सोनिया जी) और प्रधानमंत्री तक को नहीं थी। तब कांग्रेस ने संभलकर बोलने की सीख दी। थ् पुणे के एक समारोह में 16 सितम्बर को कोयला घोटाले के विषय में बोलते हुए बोले-'जनता की याददाश्त कमजोर होती है। जिस तरह लोग बोफर्स घोटाले को भूल गए, वैसे ही कोयला आवंटन मामले को भी भूल जाएंगे। एक बार हाथ धुल जाएं तो कोयले की कालिख भी मिट जाएगी। बाद में बोले- मजाक किया। थ् असम हिंसा पर 9 अगस्त 2012 को राज्यसभा में चर्चा का उत्तर देते हुए टोका-टाकी के कारण सांसद श्रीमती जया बच्चन से कहा- 'मैडम यह फिल्मी इश्यू (मामला) नहीं है।' बाद में माफी मांगी।
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