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रामलला के खिलाफ एक बार फिर साजिश शुरू कर दी गई है। इस साजिश के पीछे है कांग्रेस और केंद्र सरकार। इसके लिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति पलोक बसु को लगाया गया है। उन्हें एक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। अपनी सेकुलर छवि को और पुख्ता करने के लिए न्यायमूर्ति बसु अयोध्या के चंद रामविरोधियों को साथ लेकर रामजन्मभूमि परिसर में राममंदिर के बगल में मस्जिद बनाने के षड्यंत्र में शामिल हो गए हैं। लेकिन उनके इस प्रयास का तीखा विरोध भी किया जा रहा है। विश्व हिंदू परिषद के संरक्षक श्री अशोक सिंहल, रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष महंत नृत्यगोपालदास, गोरक्षपीठ के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ समेत प्रमुख संतों और महंतों ने इस 'मुलायम साजिश' की भर्त्सना करके ऐसे किसी भी प्रस्ताव को खारिज कर दिया है। उनका कहना है कि रामजन्मभूमि परिसर में केवल और केवल भगवान श्रीराम का भव्य मंदिर ही स्वीकार्य है। परिसर या उसके आस-पास किसी भी मस्जिद की कल्पना ही नहीं की जा सकती है। किसी को मस्जिद बनानी है तो वह अयोध्या की पंचकोसी शास्त्रीय परिक्रमा के बाहर ही संभव है।
न्यायमूर्ति बसु का प्रयास एक बड़े षड्यंत्र का हिस्सा माना जा रहा है। दरअसल केंद्र सरकार के साथ कांग्रेस भी इस पक्ष में है कि उच्च न्यायालय के आदेशों की आड़ में रामजन्मभूमि परिसर में मस्जिद की बात उछालकर मुस्लिम वोटों को पुख्ता किया जाए। 2014 में लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। महंगाई और केंद्र के भ्रष्टाचार से आजिज जनता का मानस मोड़ने के लिए यह सब किया जा रहा है। न्यायमूर्ति बसु पिछले दो साल से इस योजना पर गुपचुप काम कर रहे हैं। अयोध्या में रामविरोधियों के साथ उनकी कम से कम एक दर्जन बैठकें हो चुकी हैं। हिंदू-मुस्लिम समाज के कुछ जनाधारहीन लोगों को साथ लेकर इस मुहिम को आगे बढ़ाया जा रहा है। बसु के साथ ऐसे नाम जुड़े हैं जो प्रचार पसंद ज्यादा हैं और मुद्दे के प्रति उनकी गंभीरता कम ही है। बहरहाल, इन्हीं लोगों के बूते परिसर में मंदिर के साथ मस्जिद का प्रस्ताव तैयार किया गया है।
कुछ दिन पहले बसु ने इसी क्रम में अयोध्या के तुलसी स्मारक सदन में एक बैठक की थी। इस बैठक में रामजन्मभूमि न्यास का कोई सदस्य मौजूद नहीं था। आज हालात ऐसे हैं कि रामजन्मभूमि न्यास को शामिल किए बिना परिसर में किसी भी तरह के निर्माण की कल्पना भी नहीं की सकती है। फिर कौन लोग थे इस बैठक में? वे थे पीस पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष देव मोरारी बापू, जो फैजाबाद से चुनाव लड़ने के इच्छुक हैं और जिन्हें मुस्लिम वोट चाहिए। महंत जनमेजयशरण, गुमनाम 'ब्राह्मण संसद' के अध्यक्ष अमरनाथ मिश्र, महंत राम टहलदास, मनोज अवस्थी, हेमा पांडेय, फरीद सकमानी और अब्दुल लतीफ जैसे प्रचार पसंद लोग बैठक में थे। एक-दो नामों को छोड़ दिया जाए तो इनमें से किसी को उनके मुहल्ले के लोग भी नहीं जानते होंगे। मामले में मुख्य वादी हाशिम अंसारी भी बैठक में नहीं आए जबकि बसु की उनसे कई बार भेंट हो चुकी है।
इन्हीं लोगों के साथ बैठक कर न्यायमूर्ति पलोक बसु ने एक प्रस्ताव तैयार किया। उसके अनुसार गर्भगृह पर राम मंदिर बनाया जाए। अधिग्रहीत परिसर में यूसुफ आरा मशीन के पास मस्जिद के लिए जमीन की मांग की जाए। उच्च न्यायालय द्वारा अधिग्रहीत परिसर का जो हिस्सा मुस्लिम पक्ष का माना गया है, उसे उद्यान के रूप में विकसित करने का प्रस्ताव किया गया है। बताया गया कि इस पर अयोध्या और फैजाबाद के दोनों पक्षों के हर मोहल्ले से कम से कम 20 लोगों की सहमति बनाई जाए। इसके बाद रामजन्मभूमि परिसर के रिसीवर, मंडलायुक्त के माध्यम से इस प्रस्ताव को राज्य सरकार के पास भेजा जाए। राज्य सरकार से कहा जाए कि वह इस प्रस्ताव को सर्वोच्च न्यायालय में भेजे ताकि वहां से इस पर निर्णय हो सके।
लेकिन यह काम इतना सरल नहीं है, जितना ऊपर से लगता है। रामजन्मभूमि पर रामलला मंदिर के निर्माण के लिए न जाने कितनी लड़ाइयां लड़ी जा चुकी हैं। 1990 के दशक में राम मंदिर समर्थकों और केंद्र की तत्कालीन वीपी सिंह सरकार और उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह यादव की सरकार के बीच तीखी मुठभेड़ हो चुकी है। कारसेवकों ने जान की बाजी लगाकर कारसेवा की। इतने बलिदान के बाद अब वहां फिर मस्जिद की कवायद न केवल अर्थहीन है बल्कि हिन्दुओं के विरुद्ध एक षड्यंत्र है। मामले का हल्कापन इसी से समझा जा सकता है कि उक्त बैठक में बड़े आग्रह के बाद भी रामजन्मभूमि न्यास का कोई संत शामिल नहीं हुआ।
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