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प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की इस अभिव्यक्ति से असहमति व्यक्त नहीं की जा सकती है कि देश में बढ़ती नकारात्मकता की राजनीति से संसार में भारत की छवि खराब हो रही है। लेकिन क्या उन्होंने कभी यह विचार किया है कि इसकी शुरुआत किसने की? क्या किसी भी मसले पर उन्होंने राजनीतिक दलों को विश्वास में लिया है? यदि वे समझते हैं कि सकारात्मक राजनीति का तात्पर्य है कि सरकार या उसको चलाने वाले चाहे जो करें, राजनीतिक दलों को हां ही भरनी चाहिए, तो यह न केवल उनकी भूल है बल्कि स्वार्थपरता की पराकाष्ठा भी है। भारत में उनके नेतृत्व में यह पहली सरकार है जिसके शासन में इतने भ्रष्टाचार उजागर हुए हैं; स्वयं उन पर प्रत्यक्ष आरोप तो लगा ही है, जिस परिवार के निर्देश पर वे काम करते हैं वह भी अब गंभीर आरोपों से घिर गया है। यदि सत्तारूढ़ पक्ष सकारात्मक राजनीतिक आचरण करता तो अब तक प्रधानमंत्री सहित उनके मंत्रिमंडल के कई सदस्य और सत्ता को निर्देशित करने वाले परिवार के कुछ सदस्य, कई उद्योग घरानों के प्रमुख और बड़ी संख्या में नौकरशाह जेल में होते। जिन नैतिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए राजनीति की जाती है, उसके शीर्ष से स्खलन से आज सारा समाज प्रभावित है।
समझो जनता की व्याकुलता
देश की जनता का मिजाज हाल में सम्पन्न हुए दो उपचुनावों- टिहरी और जांगीपुर- के परिणाम भर से नहीं समझा जा सकता है। जनता के मिजाज की पहली बार झलक तब मिली थी जब अण्णा हजारे ने रामलीला मैदान में आंदोलन किया था। देशभर में बिना किसी संगठन के जनता के उठ खड़े होने का वह दृश्य जयप्रकाश नारायण के संपूर्ण क्रांति अभियान की स्मृति ताजा कर गया था। जयप्रकाश बाबू के आंदोलन में राजनीतिक भेदभाव नहीं था, न राजनीतिक दलों को घेरने की प्रगल्भता थी। जयप्रकाश को अर्जुन के समान चिड़िया की आंख की तरह भ्रष्टाचार मात्र ही दिखाई पड़ रहा था, वही उनकी सफलता का कारण बना। अण्णा हजारे का अभियान विभाजित होकर राजनीतिक बनने के पूर्व ही सभी राजनीतिक दलों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश में अपनी छाप खो चुका है। उनकी 'टीम' को अपने अलावा कोई ईमानदार दिखाई ही नहीं देता था। फलत: अण्णा तो उससे अलग हो ही गए, अब जो 'टीम केजरीवाल' है उसने ऐसा अभियान छेड़ दिया है जो किस राह जाएगा, वह साफ नहीं है।
पिछले दिनों किसी विश्लेषक ने लिखा कि भारत को इस समय उत्तम सरकार और निष्कलंक विपक्ष की आवश्यकता है। गांधी, लोहिया या जयप्रकाश के आंदोलनों की सफलता का कारण जहां उनका जन-आकांक्षाओं के अनुरूप होना था वहीं वह राजनीतिक लाभ-हानि की सोच से परे भी था। आज स्थिति यह है कि वे राजनीतिक कुनबे, जो स्वयं वर्तमान केंद्रीय सत्ता के समान भ्रष्टाचार की देहरी पर खड़े हैं, गिरने के भय से जनभावना को समझते हुए भी सीबीआई के डर से कांग्रेसोन्मुखी हैं।
बिखरी हुई मुहिम
सलमान खुर्शीद प्रकरण के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या कोई मंत्री अपनी अध्यक्षता वाली संस्था के लिए सरकारी अनुदान ले सकता है? सांसद निधि के उपयोग में यह प्रावधान है कि अगर कोई सांसद किसी संस्था से किसी तरह से सम्बन्धित है तो वह उसको उस निधि से धन नहीं दे सकता। मंत्रियों पर भी यही बात लागू होती है। सलमान के केंद्रीय मंत्री होने का लाभ केंद्र और राज्य सरकार से उनकी अध्यक्षता वाले ट्रस्ट को मिला है इसलिए वे मंत्री रहने के हकदार नहीं रह जाते। जिस बेशर्मी से कांग्रेस भ्रष्टाचार पर पर्दा डालने के लिए किसी को 'नाली का कीड़ा', किसी को 'नीच', किसी को 'धोखेबाज' आदि शब्दों का प्रयोग कर जवाब दे रही है उसका एकमात्र कारण है- भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में विसंगतता। कई लोकतांत्रिक देशों में न केवल मंत्रियों, बल्कि प्रधानमंत्री, यहां तक कि राष्ट्रपति ने भी सरकार और मंत्रियों के खिलाफ आपराधिक आचरण के प्रमाण संवैधानिक संस्थाओं में पेश किए हैं, अपना पद छोड़ा है और उनमें से कुछ जेल भी गए हैं। लेकिन भारत के सत्ताधारी आरोपों की जांच तक कराने के लिए तैयार नहीं हैं; जब कोई सुब्रह्मण्यम स्वामी न्यायालय का द्वार खटखटाता है तब जांच शुरू होती है और उस प्रक्रिया को इतना शिथिल कर दिया जाता है कि अभियुक्त जमानत पर छूटकर फिर वही सब करने लगता है जिसके कारण उसे जेल जाना पड़ा था। राष्ट्रमंडल खेल घोटाला हो या 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन, सबमें यही हुआ। कोयला घोटाला, वीरभद्र सिंह प्रकरण, सलमान खुर्शीद या राबर्ट वाढरा के मामले को न्यायालय में ले जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, क्योंकि अधिकांश राजनीतिक दलों में इतना दम नहीं है कि वह अपने कार्यकर्ताओं को ही जेल जाने के लिए राजी कर सकें। बिना सत्याग्रह करे, जेल भरे जनता पूरी तरह से घोटाले के अपराधियों को चुनावी दंड नहीं देगी और जहां तक न्यायालय का सवाल है वहां इन मामलों को लटकाए रखने की बहुत सी तरकीबें हैं। कांग्रेस से उत्तम सरकार की अपेक्षा समाप्त हो गई है।
बरास्ते अहमद
कुछ महीने पहले कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य मणिशंकर अय्यर ने एक टीवी साक्षात्कार में कहा था कि 'यदि आपको कुछ काम करवाना है तो पहले अहमद पटेल से मिलिए, वे आपकी बात सुनकर उस पर 10, जनपथ की प्रतिक्रिया से अवगत करायेंगे। पर अगर अहमद पटेल से ही मिलना मुश्किल है तो 10, जनपथ तक पहुंच कैसे हो सकती है?' सोनिया गांधी पर ऐसी तीखी टिप्पणी इससे पूर्व शायद ही किसी ने की हो। उन्होंने आम कांग्रेसजन की भावना अभिव्यक्त की थी। लेकिन वर्तमान स्थिति के प्रति रोष प्रगट करने वालों में 'परिवार' के प्रति मुखरित होने की वह हिम्मत नहीं है जो कभी महावीर त्यागी, चंद्रशेखर, रामधन, कृष्णकांत या मोहन धारिया ने दिखायी थी। सोनिया गांधी ने अपने साथ-साथ कांग्रेस की छवि को इतनी न्यून स्थिति में पहुंचा दिया है कि उनके 'युवराज' में गुजरात में चुनाव प्रचार के लिए जाने का भी साहस नहीं रह गया है। सत्ता के प्रति ऐसी जनभावना कभी नहीं थी। इसे ठीक से समझकर जो राजनीतिक दल आचरण नहीं करेगा वह जनता में अपनी विश्वसनीयता खोता जाएगा।
टिहरी उपचुनाव ने यह साबित कर दिया है कि धनबल तथा इस प्रकार के अन्य उपायों से मतदाता को बरगलाया नहीं जा सकता। कांग्रेस की जो स्थिति है उसमें वह तो सत्ता से बाहर हो ही जाएगी, लेकिन सवाल कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने भर का नहीं है। सवाल ऐसा विकल्प देने का है जिस पर जनता को भरोसा हो कि वह संगठन सत्ता का उपयोग जनहित में करेगा, दलगत या व्यक्तिगत हित में नहीं।
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