देश का चित्र बदलने के लिए आगे आएं युवा
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डा.सतीश चन्द्र मित्तल
किसी भी राष्ट्र में लोकतांत्रिक प्रणाली की प्रगति में सर्वाधिक महत्व उस राष्ट्र के सांसदों की कर्मठता, प्रशासकों की निपुणता तथा नागरिकों की जागरूकता का होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो प्रजातंत्र की उन्नति में बाधक तत्व वहां की सरकार की उदासीनता तथा उत्तरदायित्व का अभाव, प्रशासकों की निष्क्रियता तथा घूस लेने की प्रवृत्ति तथा जनता में व्याप्त अशिक्षा तथा गरीबी होते हैं।
नौकरशाही के रंग–ढंग
एक प्रसिद्ध विद्वान के अनुसार भारतीय नौकरशाही में 26 ऐसे मुद्दे हैं जो ऊपर से नीचे तक व्याप्त हैं। ये मुद्दे हैं-सर्वत्र भ्रष्टाचार, निर्दयता, लाल फीताशाही, झूठ बोलना, जान- बूझकर काम में देरी करना, परिस्थिति को टालना, बहाने बनाना, जांच को बढ़ाना, भूलना, जोर से चिल्लाना, अव्यवस्था, फाइलें न मिलना, 'फाइल कतार में लगी है' बताना, असफलता आदि। अनेक कार्यों में उनकी भूमिका घुमावदार, अपराधपूर्ण तथा कपटी जैसी होती है। विश्व में भारत के नौकरशाहों को सर्वाधिक खतरनाक शक्तियों से युक्त माना जाता है। ये शक्तियां गला घोटने वाली, सुस्त तथा कष्टदायक हैं। इन्हें प्राय: भ्रष्ट राजनीतिज्ञों का संरक्षण तथा लालची व्यापारियों का सहयोग प्राप्त रहता है। इसमें भ्रष्ट दलाल की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है।
भारतीय नौकरशाहों को एशियाई देशों में सर्वाधिक भ्रष्ट माना जाता है। हांगकांग की एक अत्यंत प्रतिष्ठित संस्था 'पालिटिकल एंड इकोनॉमिक रिस्क कासंलिएटरी' ने अपनी एक रपट में एशिया के 12 प्रमुख देशों के अध्ययन के आधार पर यह स्थिति बताई है। इसमें सर्वाधिक भ्रष्टाचार के दस अंक रखे गये तथा उसी अनुपात में सभी देशों को अंक दिये गये हैं। इसमें सबसे कम भ्रष्टाचार सिंगापुर में अर्थात 2.25 बताया गया है। हांगकांग में यह 3.53, थाइलैंड में 5.25, ताइवान 5.57, जापान में 5.77, दक्षिण कोरिया में 5.87 तथा मलेशिया में 5.89 है। इसी भांति यह वियतनाम में 8.54, इंडोनेशिया में 5.37, फिलीपींस में 7.57 तथा चीन में 7.11 है। इस रपट के अनुसार सर्वाधिक भ्रष्टाचार भारत में है, जो 9.21 है।
सामान्यत: भारत में नौकरशाहों की संख्या प्रति लाख जनसंख्या के अनुपात में उतनी ही है जितनी संयुक्त राज्य अमरीका में है। 2011 में भारत में यह संख्या 1,66,228 थी, जबकि अमरीका में कुल 7689 थी। परंतु भारत में 'ग्रुप सी' के 59.69 प्रतिशत तथा 'ग्रुप डी' के 29.37 प्रतिशत थे। अर्थात निपुण तथा प्रबुद्ध नौकरशाहों की संख्या कम थी।
यूं बदला अंदाज बाबुओं का
इसमें कोई संदेह नहीं है कि वर्तमान नौकरशाही व्यवस्था अंग्रेजों की देन है। परंतु उस समय ये नौकरशाह अंग्रेजी शासन के प्रति पूर्णत: राजभक्त तथा शासन के रक्षा कवच की भांति होते थे। सामान्यत: प्रत्येक जिले के कलेक्टर (प्रशासक) को जनता अपना 'माई बाप' समझती थी। वस्तुत: 1937 में भारत के सात प्रांतों में कांग्रेस के मंत्रिमंडल बन जाने के पश्चात इनकी निपुणता में कमी आई तथा भ्रष्टाचार बढ़ा। स्वयं महात्मा गांधी इससे बहुत दु:खी थे। यदि महात्मा गांधी के 'कलेक्टेड वर्क्स' में दिये गये उनके तत्कालीन वक्तव्यों, पत्रों तथा भाषणों को पढ़ें तो यह स्पष्ट हो जाता है। भारत की स्वतंत्रता के पश्चात प्रधानमंत्री पं.जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय नौकरशाही के कार्यों को 'महानतम दु:ख' कहा था। भारत के प्रथम उप प्रधानमंत्री एवं गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने पहली बार भारतीय प्रशासकों के सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए उनसे राजभक्ति से देशभक्ति की ओर प्रवृत्त होने का आह्वान किया था। परंतु उनकी शीघ्र मृत्यु हो जाने के कारण वे उनमें कोई परिवर्तन न ला सके।
क्या सभी प्रशासक भ्रष्ट हैं?
परंतु यह निष्कर्ष निकालना अत्यंत भ्रामक तथा अन्यायपूर्ण होगा कि भारत के सभी नौकरशाह भ्रष्ट हैं। यह सही है कि ईमानदार प्रशासकों की संख्या बहुत कम है तथा वे वर्तमान ढांचे से बड़े निराश हैं तथा उन्हें सुधारों की भी आशा कम ही है। इस संदर्भ में मैं अपने केवल दो अनुभव बताना चाहूंगा। कुछ वर्ष पूर्व एक राज्य के सेवानिवृत्त मुख्य सचिव से भेंट हुई। उन्होंने मिलते ही कहा, 'मित्तल जी, मैंने अपने सेवाकाल में ही निश्चय कर लिया था कि अपने पुत्र को आईएएस नहीं बनाना है।' मैंने पूछा, 'क्या बात, ऐसा क्यों?' उन्होंने क्षुब्ध होकर उत्तर दिया, 'देखिए एक अनपढ़ विधायक भी अपना अनुचित काम न हो पाने पर हमें धमका जाता है।' एक दूसरे अनुभव में मेरे एक शिष्य (आईएएस) ने, जो एक महानगर में नियुक्त था, मुझसे पूछा, 'चारों ओर भ्रष्टाचार है। मेरे रिश्वत न लेने से मेरे साथी मुझसे नाराज रहते हैं, सर बताओ क्या करूं?'
वोट की राजनीति और संसद में संख्या के गणित ने अपराधी भूमिका वाले लोगों को राजनीतिक क्षेत्र की ओर प्रवृत किया। कुछ नौकरशाहों ने भी उनकी सहायता की। रातों-रात कुछ जनप्रतिनिधि हजारपति से लखपति, लखपति से करोड़पति बनने लगे। वर्तमान संंसद में लगभग 238 सांसद करोड़पति हैं। सांसद में लगभग 75 ऐसे सांसद हैं जिन पर कर चोरी, हत्या, गबन, बलात्कार, डकैती जैसे गंभीर अपराधों में मामले दर्ज हैं। विभिन्न विधानसभाओं में इनकी संख्या इससे भी अधिक है।
सत्ता पक्ष की उदासीनता
भ्रष्ट प्रशासकों की लाल फीताशाही व निरंकुशता, अपराधों में आरोपित सांसद और जोड़-तोड़ की राजनीति ने प्रजातंत्र की कड़ियां ढीली कर दी हैं। निश्चय ही सरकार की उदासीनता से श्रेष्ठ नौकरशाहों का उत्साह भी कम हो गया है। यद्यपि इस दिशा में भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह द्वारा 21 अप्रैल, 2012 को विज्ञान भवन (दिल्ली) में 'भारतीय सिविल सर्विसेस डे' पर दिया गया भाषण महत्वपूर्ण है, जिसमें उन्होंने दबी जुबान से भारतीय नौकरशाहों को बिना किसी हिचक या झिझक के साहसिक फैसले लेने को प्रेरित किया। भारतीय जनता तथा प्रजातंत्र के लिए यह बड़ा सुखदायी होगा, यदि उन्होंने इस संदेश को गंभीरता से लिया।
परन्तु पूर्व के अनुभव भिन्न परिणाम ही बतलाते हैं। भारत के वित्त मंत्रालय के मुख्य सलाहकार कौशिक बसु ने अमरीका के एक अध्ययन संस्थान में दिए अपने व्याख्यान में आर्थिक क्षेत्र में भारत सरकार की उदासीनता तथा नकारात्मकता को कारण बताते हुए आर्थिक सुधारों में अनिर्णयता की स्थिति को प्रकट किया। भारत के मुख्य चुनाव आयोग ने स्वयं प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर चुनावों में सुधारों की मांग की, परंतु अभी तक कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया है। द्वितीय प्रशासक सुधार आयोग ने भी अपने महत्वपूर्ण सुझावों को सरकार को सौंप दिया है, परंतु वे अभी तक ठंडे बस्ते में बंद हैं। शिक्षा आयोगों के सुझावों की प्राय: लम्बे काल से उपेक्षा होती रही है। उनके सुझावों को गंभीरता से लेने की बजाय उन्हें रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है। राधाकृष्णन आयोग (1948) से लेकर यशपाल कमेटी (2005) तक की दुर्गति हुई। अप्रैल, 2011 में भारत के प्रधानमंत्री के वैश्विक सलाहकार समिति के अध्यक्ष सी. एन. राव ने अत्यधिक परीक्षाओं से क्षुब्ध होकर कहा, 'भारत में परीक्षा व्यवस्था है, परंतु ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जिसको परीक्षाओं से बचाकर युवाओं को कुछ महत्वपूर्ण कार्य करने में उपयोगी बनाये।' 1957 में सरकार द्वारा संस्कृत आयोग के सुझाव को, जिसमें भारतीय इतिहास तथा संस्कृति को समझने के लिए संस्कृत को अनिवार्य विषय बनाने को कहा था, स्वीकार किया। अब अप्रैल, 2012 से संस्कृत भाषा को केन्द्रीय विद्यालयों से हटाकर फ्रेंच तथा जर्मन भाषाओं को लाया जा रहा है। संस्कृत को मृत भाषा के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। मुस्लिम तुष्टीकरण तथा चुनाव की राजनीति के कारण हिन्दी को देश निकाला देने के प्रयत्न हो रहे हैं। अत: सभी आयोगों, जिन पर भारतीय जनता का भारी धन व्यय होता है, के निष्कर्ष क्रियान्वित नहीं होते।
मूकदर्शक जनता
आखिर प्रजातंत्र में अशिक्षा तथा गरीबी में जकड़ी भारतीय जनता क्या करे? विश्व भूख सूचकांक, (अक्तूबर 2010) की रपट के अनुसार भारत में भूख को चिंताजनक अवस्था में बतलाया है। 84 विकासशील देशों में भारत का स्थान 67वें स्थान पर बताया गया है। उसकी स्थिति सूडान व रवांडा जैसे विश्व के गरीब देशों से भी निम्न बतलाई गई है। एक आंकड़े के अनुसार दुनिया के 40 प्रतिशत गरीब अकेले भारत में हैं। बालकों के कुपोषण के मामले में भारत की शर्मनाक स्थिति है। यही अवस्था उच्च शिक्षा के गिरते स्तर की भी है। भारतीय किसानों द्वारा आत्महत्या की संख्या भी निरन्तर बढ़ती जा रही है। बेरोजगार युवाओं की संख्या भी तेजी से बढ़ रही है।
ऐसी विषम परिस्थिति में जब विश्व के दूसरे सबसे बड़ी जनसंख्या वाले प्रजातंत्र में सरकार रेंग रही हो, देश की नौकरशाही चपरासी से लेकर निदेशक तक अथवा क्लर्क से लेकर मुख्य सचिव तक भ्रष्टाचार तथा लाल फीताशाही में लिप्त हो, भारत का अन्नदाता कहलाने वाले किसान का जीवन दूभर हो, क्या यह आवश्यक नहीं लगता कि भारत के प्रजातंत्र को सबल बनाने के लिए युवा आगे आएं? भारतीय युवा शक्ति राष्ट्रीय गौरव तथा राष्ट्रीय चरित्र से प्रेरित हो, भारत के वर्तमान चित्र को बदले। व्यक्तिगत तथा दलों की राजनीति को तिलांजलि दे। भारतीय समाज राष्ट्रहित तथा लोकशक्ति को सर्वोपरि स्थान näùù*n
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