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सामान्य दिनों में सुबह की दिल्ली कुछ तेज ही भागती है। सुबह 9 बजे से 11 बजे के बीच हर तरफ भीड़-भाड़, भागम-भाग, अपने गंतव्य तक पहुंचने की जल्दी। किसे पता होता है कि यह भाग-दौड़ भरी, मेहनतकश जिंदगी भी इंसानियत के दुश्मनों को नागवार गुजरती है। इसलिए जब लोग न्याय के मंदिर के बाहर लाइन लगाए अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे, तभी हुए भीषण विस्फोट से भागती-दौड़ती जिंदगी न केवल थम-सी गई, बल्कि अनेक परिवारों की आगे की यात्रा बहुत दुष्कर हो गई। 11 लोग मौके पर ही मारे गए 75 से अधिक घायल हो गए, जिनमें से 2 की अस्पताल में मौत हो गई। इसीलिए किसी दुर्घटना या हादसे में अपनों को खो देने पर 'भगवान का न्याय' मानकर सांत्वना दे देने वाले लोग आक्रोश और हताशा में थे कि यह 'ऊपर वाले का न्याय' नहीं, सत्ता में बैठे लोगों की कमजोरी और सुरक्षा तंत्र की लापरवाही है, कि हमें अपने आत्मीय जनों के हाथों-पैरों को बीनना पड़ रहा है, परखच्चे उड़ चुके शवों को समेटकर उनका अंतिम संस्कार करना पड़ रहा है, और जो घायल हैं उन्हें जीवन भर सहेजना होगा। और यह एक बार ही तो नहीं होता, बार-बार होता है, हर जगह होता है।
7 सितम्बर की सुबह दिल्ली उच्च न्यायालय के द्वार पर यही कारुणिक दृश्य था। अति विशिष्ट क्षेत्र में, इंडिया गेट के निकट शेरशाह सूरी मार्ग पर स्थित दिल्ली उच्च न्यायालय की द्वार संख्या 5 पर आतंकवादियों ने एक सूटकेस में रखे शक्तिशाली बम से धमाका कर दिया। इस द्वार पर स्थित आगंतुक कक्ष (रिसेप्शन) के सामने वादी-प्रतिवादी व उनकी सहायता करने आए अधिवक्ता प्रवेश पर्ची बनवाने के लिए लाइन में लगे थे। सुबह ठीक 10.15 पर जब धमाका हुआ तो द्वार पर लगभग 200 लोगों की लाइन थी और उधर प्रवेश द्वार से कारें पार्किंग की ओर जा रही थीं, इसलिए भी भीड़ अधिक थी। बुधवार वैसे भी जनहित याचिकाओं पर सुनवाई का दिन होता है, इसलिए भीड़ अधिक थी। आतंकवादियों ने योजनावद्ध तरीके से दिन व समय देखकर अत्यंत भीड़भाड़ वाला स्थान चुना और वे एक बार फिर सफल रहे और हमारा गुप्तचर और सुरक्षा तंत्र एक बार फिर नाकाफी साबित हुआ।
इन दिनों दिल्ली उच्च न्यायालय के सामने एक भूमिगत बहुमंजिली कार पार्किंग का निर्माण कार्य चल रहा है। भूमिगत विद्युतीकरण के काम में लगे एम.वी. मुख्तार और एन. विनोद अभी गड्ढे में उतरे ही थे कि धमाके की आवाज सुनकर ऊपर भागे, चारों तरफ फैला धुंआ जब कुछ कम हुआ तो कुछ जलने का आभास हुआ, उन्हें लगा कि कहीं इनकी 'केबल' तो नहीं जली जिससे धमाका हुआ। पर मुंह पर रूमाल रखकर जब पास गए तो जुबान तालू से चिपक गई और शरीर कांपने लगा। आगे की बात मुख्तार के मुंह से ही सुनिए, ' सामने बहुत सारी लाशें पड़ीं थीं। किसी के भी शरीर पर कपड़ा नहीं था। बहुत सारे लोगों के कमर के ऊपर का हिस्सा था तो पैर का पता नहीं। कुछ देर तो समझ ही नहीं आया कि क्या करूं। फिर एक आदमी की छटपटाहट दिखाई दी, वह बोल नहीं पा रहा था, पर घिसट रहा था, सबसे पहले मैंने उसको संभाला, तब तक कुछ और लोग भी आ गए, और… करीब 22 लोगों को मैंने एम्बुलेंस में रखवाया, उनमें से कितने जिंदा थे कितने मरे, पता नहीं।' जब मुख्तार यह बता रहे थे तब तक उनके खून से भीगे कपड़े सूखे तक नहीं थे। उसी द्वार के सामने पार्किंग के निर्माण में कार्यरत मजदूर जगदम्बा तो इतना बदहवाश था कि दोपहर 1 बजे तक भी बोल नहीं पा रहा था, क्योंकि मात्र 19 वर्ष की आयु में उसने जीवन में पहली बार एक ऐसे इंसान को देखा था जिसका न सर था, न पैर।
विस्फोट स्थल का मौका मुआयना करने आए गुप्तचर विभाग (आई.बी.) के पूर्व संयुक्त निदेशक श्री एस.के. शर्मा ने बातचीत में कहा कि विस्फोट की भीषणता को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि उस सूटकेस में 4 से 5 कि.ग्राम अमोनियम नाइट्रेट होगा, जिसका इस्तेमान इन दिनों आतंकवादी कर रहे हैं। इसके साथ ही उसके बीच में 750 ग्राम के लगभग उच्च तीव्रता वाला विस्फोटक जैसे टी.ई.एन.टी. या आर.डी.एक्स. भी होगा। डेटोनेटर और टाइमर का इस्तेमाल तो आतंकवादी करते ही हैं। भीड़भाड़ वाले स्थानों पर हर आदमी की सघन तलाशी संभव नहीं होती, इसी का लाभ आतंकवादी उठाते हैं। जहां ज्यादा भीड़ हो, वहां हर आदमी पर नजर रख पाना कठिन होता है। वहीं हादसे में अपने एक सहयोगी के हताहत होने से आहत एडवोकेट प्रमोद कुमार शर्मा का कहना था कि, 'अगर आप संसद पर हमला करने वाले को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई फांसी की सजा के बावजूद 'स्मारक बनाकर संरक्षित रखोगे' तो आतंकवाद और आतंकवादियों के हौसले बढ़ेंगे ही। जब आतंकवाद से लड़ने का साहस और नीति ही नहीं है तो गुप्तचर एजेंसियों और सुरक्षा व्यवस्था के दिखावे से क्या फायदा?'
उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक व 'पुलिस में सुधार' के लिए सर्वोच्च न्यायालय तक संघर्ष कर चुके श्री प्रकाश सिंह का कहना है, 'इसे आप सिर्फ सुरक्षा बलों की नाकामी और खुफिया विभाग की विफलता के रूप में मत देखिए। यह विस्फोट राजनेताओं और सत्ताधारियों की बेशर्मी, संवेदनहीनता और उनमें इच्छाशक्ति के अभाव का परिणाम है। उसे इस तरह के बम धमाकों या कुछ लोगों की लाशों से कोई अंतर पड़ने वाला नहीं। उसे अगर लोगों की जान की इतनी ही परवाह होती तो 1992 से जो धमाकों का सिलसिला चला आ रहा है, वह थमा क्यों नहीं? क्यों नहीं कोई ठोस नीति बनाई गई? राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एन.आई.ए.) ने अब तक क्या नया किया? उसमें क्या कहीं बाहर से प्रशिक्षित लोग आए हैं? क्यों नहीं पुरानी जांच एजेंसियों को ही राजनीतिक दवाब मुक्त कर स्वतंत्र रूप से काम करने दिया गया? पुलिस में सुधार क्यों नहीं किया गया? उसे राजनीति और अफसरशाही से मुक्त कर अधिक कारगर क्यों नहीं बनाया गया? जब तक जांच एजेंसियों और सुरक्षा बलों को वोट बैंक के लालची राजनीतिक भेड़ियों के चंगुल से मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक भारत में तेजी से फैल रहे 'देशी मुजाहिदीनों' पर लगाम लगा पाना असंभव है।'
आतंकवादियों ने दिल्ली उच्च न्यायालय को 25 मई, 2011 के साढ़े तीन महीने बाद ही एक बार फिर निशाना बनाकर सिद्ध कर दिया कि उनकी पहुंच हर स्थान तक है। इन दिनों लोकसभा का सत्र भी चल रहा था, इसलिए दिल्ली पुलिस को गृह मंत्रालय ने 'हाई अलर्ट' पर रखा था। इसके बावजूद भीषण बम धमाका कर आतंकवादियों का आराम से बच निकलना यह बताता है कि सुरक्षा तंत्र कितना 'अलर्ट' है। धमाके के बाद एन.एस.जी., एन.आई.ए., आई.बी., आदि सब जुट गए हैं, आतंकवादियों का रेखाचित्र जारी कर दिया गया है, दिल्ली उच्च न्यायालय के परिसर में सी.सी.टी.वी. न लगे होने पर एतराज जताया जा रहा है, कहा जा रहा है कि उसके 'फुटेज' मिलते तो आतंकवादियों को पकड़ने में आसानी होती। अब जल्दी ही दिल्ली उच्च न्यायालय में सी.सी.टी.वी. कैमरे लग जाएंगे। पर, 'कित्थे-कित्थे लांण गे सी.सी.टी.वी., टी.वी. लग जांण ते मेरा अमनप्रीत लौट आऊगा, हाय ओ रब्बा! हुण मेरा की होऊ, मेरे पुत्तर ने किसी दा की बिगाड़या सी।' राम मनोहर लोहिया अस्पताल में रोती-बिलखती एक मां के सवालों का जवाब है किसी के पास? अमनप्रीत बस 21 साल का ही तो था। दिल्ली के इन्द्रप्रस्थ कालेज में विधि स्नातक (एलएलबी) द्वितीय वर्ष की परीक्षा पास करने के बाद उसने उच्च न्यायालय के एक अधिवक्ता के सहायक के तौर पर प्रशिक्षण प्राप्त करने अभी कुछ ही दिनों पहले जाना शुरू किया था। बहुत उम्मीद थी उससे उसकी मां को, पर वही मां अब उसके क्षत-विक्षत शव को देखकर पछाड़ खा-खा कर रो रही थी। शायद उसके जीवन में अब रोने के सिवाय कुछ बचा ही नहीं था। और जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके 82 वर्षीय निजामुद्दीन की ऐसी दर्दनाक मौत हुई कि उनका बेटा मेराजुद्दीन पूछने पर चीख उठा, 'अल्लाह गारत करे उन नामुरादों पर जिनकी वजह से मैं अपने अब्बा को टुकड़ों-टुकड़ों में सीकर सुपुर्दे खाक करने पर मजबूर हुआ हूं।' राम मनोहर लोहिया अस्पताल के चिकित्सक डा. अश्विनी ने बताया कि अधिकांश घायल गंभीर अवस्था में हैं, सबको कमर के नीचे अधिक चोटें हैं। शायद इसलिए कि लाइन में लगे लोगों के पैरों के पास सूटकेस रखा था। इस बीच घायलों को देखने व सांत्वना देने सभी दलों के बड़े नेता अस्पताल आने लगे। कांग्रेस के महासचिव राहुल गांधी जब अस्पताल पहुंचे तो 'शर्म करो-शर्म करो' के नारे लगे, 'अफजल को फांसी दो' भी गूंजा। उधर कांग्रेस के प्रवक्ता शकील अहमद टेलीविजन पर गंभीर चर्चा के दौरान 'हिन्दू आतंकवाद' का नारा उछालते दिखे। पर सरकार की मंशा को प्रकट करने वाली टिप्पणी की केन्द्रीय पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय ने। मुम्बई में हाल ही में हुए बम धमाके के बाद शाम को 'रैम्प' पर कमर मटका कर चलने वाली 'मॉडलों' का तमाशा देखने पहुंचे सहाय इस बार बोले, 'दिल्ली में कोई पहली बार धमाका तो नहीं हुआ। लोग अब इस सबके आदी हो चुके हैं।' दरअसल सहाय को 'टूरिज्म' और 'टेरेरिज्म' में अधिक अंतर समझ नहीं आता। पर, असहाय जनता की तस्वीर दिखी इस नारेबाजी, बयानबाजी व राजनीति से अलिप्त, दूर कोने में अस्पताल के खम्भे से टिके शून्य को ताकते एक आदमी में। उससे कुछ पूछने की हिम्मत तक नहीं पड़ी, साथ खड़े लोगों ने बताया, 'अभी-अभी लाशों की लाइन में शिनाख्त कर ये अपने बेटे को पहचान कर आए हैं।' पर
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