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पाकिस्तानी आतंकवाद पर अमरीकी खामोशी क्यों?
कश्मीर पर जगमोहन की पुस्तक का परिवर्धित संस्करण
पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्री जगमोहन लंबे समय तक जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल रहे हैं। एक कुशल प्रशासक के नाते उन्होंने जम्मू-कश्मीर के विकास कार्यों में एक नई गति पैदा की थी। सुरक्षा की दृष्टि से अति संवेदनशील इस प्रदेश में इस दौरान उन्होंने आतंकवाद तथा पृथकतावाद की समस्या का बारीकी से अध्ययन किया। अपने इसी अनुभव को उन्होंने अपनी पुस्तक “माई फ्रोजन टरब्यूलेंस इन कश्मीर” में कलमबद्ध किया था। पुस्तक की बहुत प्रशंसा हुई क्योंकि इसमें श्री जगमोहन ने आतंकवाद की समस्या का गहन विश्लेषण प्रस्तुत किया था। अब उनकी उसी पुस्तक का सातवां परिवर्धित संस्करण (प्रकाशक-एलायड पब्लिशर्स प्रा. लि., 1/13-14, आसफ अली रोड, नई दिल्ली-2, पृष्ठ 875, मूल्य- 475 रु.) प्रकाशित हुआ है, जिसमें जनवरी 2006 तक की घटनाओं का ब्यौरा समाहित किया गया है। यहां हम उसी परिवर्धित संस्करण के कुछ प्रमुख अंश प्रकाशित कर रहे हैं जिनमें आतंकवाद को लेकर अमरीका के दोहरे मापदण्डों का जिक्र हुआ है। -सं.
आतंकवाद जारी है…
…”बातचीत”, “संयुक्त वक्तव्यों”, “शांति प्रक्रियाओं” और “विश्वास बढ़ाने वाले कदमों” के बावजूद आतंकवादियों की गतिविधियों में कोई कमी नहीं आई है। 29 अक्तूबर, 2005 को दिल्ली में आतंकवादियों द्वारा किए गए तीन बम विस्फोटों, जिसमें महिलाओं और बच्चों सहित 62 निर्दोष व्यक्ति मारे गए, न केवल उनकी बर्बर प्रकृति को उजागर करते हैं बल्कि आतंकवादी हमला करने की उनकी व्यापकता को भी दर्शाते हैं। निरंतर जारी आतंकवाद के संबंध में यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि अफगानिस्तान से सोवियत संघ की सेनाओं की वापसी के बाद पाकिस्तान को कश्मीर में आतंकवाद फैलाने के आवश्यक समस्त संसाधन उपलब्ध हो गए। उस समय तक इंटर सर्विसेज इंटेलीजेंस (आई.एस.आई.) दुनिया की सबसे खतरनाक, शक्तिशाली और संसाधनयुक्त खुफिया एजेंसियों में से एक बन चुकी थी। हजारों प्रशिक्षित, सशस्त्र और उन्मादी युवा “मुजाहिदीन” उसके पास उपलब्ध थे। इससे पहले, आई.एस.आई. ने अमरीका द्वारा अफगान युद्ध के लिए पाकिस्तान भेजे गए मारक और हल्के हथियारों की एक बड़ी खेप को चालाकी से हथिया लिया था।
अमरीकी कांग्रेस की एक रपट के अनुसार, तब आई.एस.आई. ने 60 प्रतिशत आधुनिक हथियार अपने इस्तेमाल के लिए रख लिए। अफगान युद्ध के लिए भेजे गए धन की भी कमोबेश यही स्थिति थी। हथियारों की तस्करी और “मुजाहिदों” की और अधिक भर्ती और उनके प्रशिक्षण के लिए नशीले पदार्थों के व्यापार से कमाए धन का इस्तेमाल किया गया। एक अनुमान के अनुसार सिर्फ 1992 में पाकिस्तान से 13 अरब अमरीकी डालर मूल्य के नशीले पदार्थों का व्यापार हुआ।
भारत के नरम रवैये, उसकी पूर्वाग्रही राजनीति और अपने ही स्वप्निल संसार में खोए रहने की उसकी आदत ने आई.एस.आई. के लक्ष्य को आसान कर दिया। दूसरी तरफ, अमरीका सहित दूसरे पश्चिमी देशों ने आतंकवादी गतिविधियों की तीव्र भत्र्सना करने की बजाय कथित मानवाधिकार उल्लंघन की बातों को बेवजह तरजीह दी, जिससे आतंकवादियों को प्रचार के रूप में अत्यधिक समर्थन मिला।
आतंकवादी समस्याओं के एक विशेषज्ञ स्टीफन इमर्सन के मुताबिक, न तो अमरीका ने और न ही उसके यूरोपीय मित्र देशों ने आतंकवाद के संकट पर कभी गंभीरता से विचार किया। उन्हें तो आतंकवाद से अपने नागरिकों के प्रभावित होने पर होश आया। इन देशों ने भारत की ओर से लगातार दी जाने वाली चेतावनी कि पाकिस्तान आतंकवाद की शरणस्थली बन चुका है, और इन्हें विभिन्न प्रकार से पाकिस्तान की आई.एस.आई. और लगातार बढ़ रहे निजी सशस्त्र गुटों से मदद मिल रही है, पर भी कोई ध्यान नहीं दिया।
ऐतिहासिक भूल
अमरीका और उसके सहयोगी देशों ने आतंकवाद के राक्षस को आरंभ में ही समाप्त न करके सही मायनों में ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में एक गलती की। उन्होंने इस वास्तविकता की अनदेखी की कि कश्मीर के कथित “स्वतंत्रता सेनानी” दुनियाभर में उभर रहे आतंकवादी तंत्र का हिस्सा थे, जो किसी भी कोने में मौजूद अपने “दुश्मन” को खत्म करने के लिए तत्पर थे। जब तक अमरीका और दूसरे पश्चिमी देशों की आंखें खुलीं, आतंकवाद का खतरा सब जगह फैल चुका था। आतंकवादी अपने निशाने पर कहीं भी हमला करने में सक्षम हो चुके थे, फिर वह न्यूयार्क, नई दिल्ली, मैड्रिड, बाली, मिस्र हो अथवा लंदन। लंदन इंस्टीटूट आफ इंटरनेशनल सिक्युरिटी द्वारा 2004 में किए गए एक अनुसंधान के अनुसार करीब 60 देशों में लगभग 18000 संभावित आतंकवादी सक्रिय थे और सन् 2003-2004 के बीच आतंकवादी घटनाओं में जबर्दस्त वृद्धि हुई जब इनकी संख्या 175 से बढ़कर 651 तक पहुंच गई। आतंकवाद एक विकराल रूप लेता जा रहा है। यहां तक कि आतंकवादियों को “कम्प्यूटर हॅकर” और वेबसाइट की दुनिया में गड़बड़ी करने के उद्देश्य से भी तैयार किया जा रहा है।
मदरसे
अकेले पाकिस्तान में हजारों ऐसे मदरसे हैं जो एक तरह से आतंकवादी संगठनों को लगातार आतंकी मुहैया करवाने का कार्य कर रहे हैं। जहां 1947 में 137 मदरसों में कुल 20 हजार छात्र पढ़ते थे वहीं अब इन मदरसों की संख्या 10 हजार तक पहुंच चुकी है, जिसमें करीब 15 लाख छात्र हैं। सैद्धान्तिक रूप से ये मदरसे गरीब मुस्लिम छात्रों को मजहबीखिदमत के लिए तैयार करने के हिसाब से मुफ्त मजहबी शिक्षा, रहने और खाने की सुविधा प्रदान करते हैं। पर इसके उलट व्यावहारिक तौर पर इन मदरसों में से अधिकांश, खासकर वे जो कट्टरपंथी संगठनों द्वारा प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से संचालित हैं, कट्टरपंथ, संकुचित मजहबी सोच और आतंकवाद के लिए एक उर्वर जमीन बन चुके हैं। सन् 2002 में इन्होंने केवल घरेलू स्रोतों से ही 70 अरब रुपए एकत्र किए। विदेशों में बसे पाकिस्तानी मूल के लोगों द्वारा दिए जाने वाले पैसे की मात्रा भी अच्छी खासी है।
इस प्रकार के कुछ संस्थानों ने पर्याप्त ताकत प्राप्त कर ली है। उदाहरण के लिए लाहौर के निकट मुरीदके में स्थित मदरसे मरकज-ए-दावा अल इरशाद ने एक विशाल संगठनात्मक तंत्र स्थापित कर लिया है। उसने लश्कर-ए-तोयबा नामक अपना खुद का एक आतंकी संगठन बनाया है। यह संगठन बेहद सक्रिय है और इसने जम्मू एवं कश्मीर तथा भारत के दूसरे भागों में सैकड़ों आतंकवादी घटनाओं को अंजाम दिया है। यह व्यापक स्तर पर दुष्प्रचार के लिए भी कार्य करता है। मदरसे और मरकज-ए-दावा अल इरशाद सरीखे संस्थान एक ऐसा माहौल बना रहे हैं जो कि मजहबी कट्टरवाद और हिंसक मनोवृत्ति को बढ़ावा दे रहे हैं। क्या यह हैरानी की बात नहीं कि सन् 2001-2002 में पाकिस्तान में 58 मजहबी राजनीतिक दल और 24 मजहबी सैनिक संगठन (मिलिशिया) थे। अन्तरराष्ट्रीय स्तर की स्वतंत्र संस्था (इंटरनेशनल क्राइसिस ग्रुप) का कहना है, “इस (आतंकवाद की) समस्या की जड़ में मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा है। इसी नींव पर आतंकवादी कट्टरता या दूसरे प्रकार की इमारतें खड़ी होती हैं।” 9/11 आयोग (विश्व व्यापार केन्द्र की इमारतों पर हमले के बाद अमरीकी राष्ट्रपति द्वारा गठित किया गया एक 10 सदस्यीय स्वतंत्र आयोग) अपनी रपट के पहले भाग में इसी निष्कर्ष पर पहुंचा, “कुछ मदरसों का उपयोग हिंसक आतंकवाद की आधारभूमि के रूप में किया गया है।”
आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध
9/11 की घटनाओं के तुरंत बाद अमरीकी राष्ट्रपति जार्ज डब्ल्यू. बुश ने आतंकवाद के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करते हुए स्पष्ट कहा था, “हम इन हमलों की योजना बनाने वाले और उन्हें प्रश्रय देने वालों के बीच कोई अंतर नहीं करेंगे। आप या तो पूरी तरह हमारे साथ हैं अथवा पूरी तरह हमारे खिलाफ। इसमें लचीलेपन की कोई गुंजाइश नहीं है।” (11 सितम्बर, 2001 के भाषण का अंश)
दृष्टिकोण में बदलाव
पाकिस्तान के राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ उनमें से एक थे जिन्होंने इस संदेश को समझ लिया। उन्होंने तत्काल अपना दृष्टिकोण बदला। 12 जनवरी, 2003 को राष्ट्र के नाम एक संदेश में उन्होंने कुछ प्रासंगिक सवाल उठाए और “अल्पसंख्यक कट्टरपंथियों” की आलोचना की।
पाकिस्तान सरकार ने मजहबी कट्टरता और उन्मादी ताकतों को कुचलने के लिए कई कदम उठाए। 19 जून, 2002 को एक अध्यादेश जारी किया गया जिसमें सभी मदरसों को सोसाइटी पंजीकरण कानून के तहत पंजीकृत होने और प्राप्त दान राशि का ब्यौरा रखने को कहा गया। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के नवीनतम आतंकवाद विरोधी प्रस्ताव (सितम्बर, 2005) के तहत पाकिस्तान ने आतंकवाद रोकने के लिए कड़े कदम उठाने की कसमें खाईं हैं।
आधे-अधूरे कदम
पर राष्ट्रपति मुशर्रफ के शासन की तरह ये सभी कदम आधे-अधूरे ही साबित हुए। खुद पाकिस्तान में स्वतंत्र मीडिया रपटों ने उनकी प्रभावहीनता को जगजाहिर कर दिया है। उदाहरण के लिए प्रतिष्ठित पत्रिका “हेराल्ड” ने अगस्त 2005 के अपने अंक में मनशेरा परिसर में आज भी सक्रिय प्रशिक्षण केन्द्रों की सूची प्रकाशित की। प्रतिबंधित संगठनों ने मात्र अपने नाम बदलकर अपने केन्द्रों को पुनस्स्थापित किया है। कट्टरपंथियों के खिलाफ शुरू अभियान में पहले पकड़े गए इन संगठनों के लगभग सभी 15,000 सदस्यों को रिहा कर दिया गया है। अभी भी जमीनी स्तर पर एक दर्जन से अधिक निजी सेनाएं सक्रिय हैं। मदरसों के मामलों पर नजर रखने के लिए जारी अध्यादेश शक्तिहीन है। मदरसों का पंजीकरण और उनके उपलब्ध खातों की जांच अनिवार्य नहीं है। संक्षेप में, पूरे घातक स्वरूप के साथ पुरानी व्यवस्था ही जारी है। 9/11 आयोग ने 14 नवम्बर, 2005 में जारी अपनी तीसरी रपट में भी राष्ट्रपति मुशर्रफ के साम्प्रदायिकता, कट्टरवाद और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली ताकतों के खिलाफ अपर्याप्त कदम उठाने की बात को रेखांकित किया है। “पाकिस्तान से आए आतंकवादी कश्मीर में अपनी गतिविधियों को अंजाम दे रहे हैं। पाकिस्तान को आतंकवाद के वित्तीय स्रोतों को नियंत्रित करने के लिए कानून बनाना चाहिए और उसे सख्ती से लागू करना चाहिए। हमें खेद है कि मुशर्रफ ने इस दिशा में ज्यादा कुछ नहीं किया है।”‚
द्विसूत्रीय रणनीति
समय बीतने के साथ-साथ यह साफ होता जा रहा है कि राष्ट्रपति मुशर्रफ ने आतंकवाद के मुद्दे पर अपनी नई नीति के तहत द्वि-स्तरीय रणनीति अपनाई है। जहां तक अमरीका, ब्रिटेन और दूसरी यूरोपीय ताकतों का सवाल है, वह उन्हें खुश करने के लिए कदम उठा रहे हैं। सी.आई.ए. और एफ.बी.आई.को उनके द्वारा वांछित आतंकवादियों को खोजने और गिरफ्तार करने में पूरा सहयोग दे रहे हैं। जहां तक भारत का सवाल है, राष्ट्रपति मुशर्रफ की आतंकवाद के ढांचे को खत्म करने की कोई मंशा नहीं है। सन् 2005 में केवल जम्मू और कश्मीर में आतंकवाद से संबंधित घटनाओं में करीब 700 व्यक्तियों की मौत हुई है। पाकिस्तान सरकार ने ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं। पाकिस्तानी सेना ने “नियंत्रण रेखा” पार करते किसी आतंकवादी को नहीं पकड़ा है।
हालांकि कोई यह नहीं कह सकता कि हालात बिल्कुल नहीं सुधरे हैं। “विश्वास बढ़ाने वाले कुछ उपायों” के ठोस नतीजे निकले हैं। कुछ हद तक सीमा पर शांति कायम हुई है। पुराने यात्रा मार्ग दोबारा शुरू हुए हैं और नए खुले हैं। दोनों देशों के बीच कैदियों का आदान-प्रदान हुआ है। दोनों देशों के बीच एक-दूसरे को अपने प्रक्षेपास्त्र परीक्षण के बारे में पहले से सूचना देने पर सहमति बनी है। पर अगर पाकिस्तान सभी प्रकार के आतंकवादी ढांचे को समाप्त करने के लिए उचित और ठोस कदम नहीं उठाता है तो ये सभी उपाय बेमानी हो जाएंगे।
समय की मांग
आज समय की मांग है कि समूचा अंतरराष्ट्रीय समुदाय अपने को तैयार करके अपने समस्त संसाधनों- वित्तीय, सैन्य और कूटनीतिक को जुटाकर आतंकवाद के सभी रूपों और प्रकारों को लक्ष्य बनाए। मौजूदा आतंकवाद एक प्लेग की भांति है, जिसे दुनिया के हर कोने से समाप्त करने की जरूरत है। राष्ट्रपति मुशर्रफ की घोषणाओं को सुनिश्चित कराने के लिए अमरीका और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा पाकिस्तान को दी जाने वाली सहायता को कट्टरवाद को समाप्त करने की प्रतिबद्धता से जोड़ा जाना चाहिए।
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