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देवेन्द्र स्वरूप
यह कायरता है या विवेकपूर्ण आस्था?
हिन्दू मानस इस समय गहरी अन्तर्वेदना और आत्मालोचन की मन:स्थिति से गुजर रहा है। एक ओर वह व्यथित है यह देखकर कि जिस देश में इमामों और पादरियों के विरुद्ध गैर-जमानती वारंट क्रियान्वित नहीं होते, जहां न्यायालयों द्वारा घोषित अपराधी मंत्री बन कर घूमते हैं, जहां देशद्रोही गतिविधियों के संदेह में बंदी बनाए गए शेख अब्दुल्ला को सुविधा-सम्पन्न कोठियों में नजरबंद रखा जाता है, जहां ब्रिटिश सरकार तक ने गांधी और मौलाना आजाद के लिए आगा खां पैलेस को कारावास बनाया था, वहीं भारत के धार्मिक जगत में सर्वाधिक आदरणीय कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य पद पर आसीन श्रीमत् जयेन्द्र सरस्वती को दीपावली पर्व की आधी रात में एक धार्मिक अनुष्ठान के बीच बन्दी बनाया गया, विशेषादेश से रात्रि भर खुले रखे गए न्यायालय में बैठाये रखा गया, सामान्य चोर-उचक्कों के समान एक पुलिस गाड़ी में ले जाया गया, टेलीविजन चैनलों के माध्यम से इस लज्जाजनक, हृदय विदारक दृश्य का लगातार प्रदर्शन किया गया।
अपने एक श्रद्धा केन्द्र पर इस आकस्मिक प्रहार से आहत, स्तब्ध हिन्दू मन अभी संभल भी नहीं पाया था, इस त्वरित घटना चक्र के मर्म को पूरी तरह समझ भी नहीं पाया था कि उसकी छाती पर रेंगते अनास्थावादी नास्तिक पुत्रों ने जयेन्द्र सरस्वती को निमित्त बनाकर समूचे धार्मिक जीवन एवं आस्थाओं का उपहास उड़ाना शुरू कर दिया। जयेन्द्र जी के विरुद्ध आरोप सिद्ध होने के पूर्व ही उन्हें अपराधी घोषित कर दिया। किसी टेलीविजन चैनल ने “शंकराचार्य सांसत में” तो किसी ने “अपवित्र सांठ-गांठ” जैसे शीर्षकों से चटपटी, आस्था विरोधी कहानियों को परोसना प्रारंभ कर दिया। साथ ही उन्होंने “न धरती कांपी, न पत्ता डोला” जैसे शीर्षक देकर अपनी लेखनी से हिन्दू समाज को ताने मारना शुरू कर दिया कि या तो उसमें अपने धर्मगुरुओं के प्रति सच्ची श्रद्धा नहीं है, या वह पूरी तरह कायर व निकम्मा है। उनकी दृष्टि में इस दृश्य का कोई महत्व नहीं कि 95 वर्षीय पूर्व राष्ट्रपति आर.वेंकट रमन अपने एकांत से बाहर निकल कर क्यों सार्वजनिक धरने में सम्मिलित हो गए? कौन सी पीड़ा है जिसने दो पूर्व प्रधानमंत्रियों -चन्द्रशेखर जी और अटल जी को एक धर्मगुरु आसाराम जी बापू के साथ एक स्वर में बोलने के लिए बाध्य कर दिया? सभी शंकराचार्य, सभी अखाड़ों के साधु-संत, सड़कों पर उतर आए। केरल से लेकर नेपाल तक पूरे देश में जयेन्द्र जी की अपमानजनक ढंग से गिरफ्तारी एवं व्यवहार के प्रति विरोध व निन्दा का स्वर गूंज उठा। विरोध के इस प्रतिनिधि स्वर के कारण उदासीनता का स्वांग रचने वाली केन्द्रीय सरकार के प्रधानमंत्री को भी तमिलनाडु की मुख्यमंत्री को असहमति व चेतावनी का पत्र भेजना पड़ा। तमिलनाडु में विपक्षी नेता करुणानिधि को, जिन्होंने अपने राजनीतिक लाभ के लिए शंकराचार्य जी की गिरफ्तारी के लिए तमिलनाडु सरकार पर दबाव बनाया था और उनकी गिरफ्तारी को अपनी राजनीतिक विजय मानकर जिनकी बांछें प्रसन्नता से खिल उठी थीं उन्हें भी देशव्यापी विरोध प्रदर्शन के पीछे विद्यमान गहरी जन भावनाओं को भांप कर अपनी प्रसन्नता को छिपाना पड़ा अपना स्वर बदलना पड़ा और जयेंद्रजी की गिरफ्तारी के पीछे व्यक्तिगत वैमनस्य की दुर्गंध आने लगी।
किंतु हमारे कलमशूर बुद्धिजीवियों की दृष्टि में ऐसे शांत, संयत और गरिमापूर्ण प्रातिनिधिक विरोध प्रदर्शनों का कोई महत्व नहीं। वे हिंदू समाज को ताना मार कर पूछ रहे हैं कि -“लोग अपने अपने घर से निकल कर सड़क पर क्यों नहीं आ गए? संत समाज भी कुल मिला कर शांत क्यों रहा? जिस विरोध में निरंतरता न हो क्या उसे भी विरोध कहा जा सकता है?” (जनसत्ता,20-11-04)। शायद वे चाहते हैं कि जिस प्रकार अभी हाल में हैदराबाद में गुजरात पुलिस द्वारा एक मुस्लिम मौलवी नसीरुद्दीन की गिरफ्तारी पर मुस्लिम स्त्री-पुरुषों की भीड़ ने पुलिस थाने पर धावा बोल दिया था, या केरल में एक मुस्लिम मंत्री के विरुद्ध बलात्कार का आरोप प्रकाश में आने के बाद उसके अनुयायियों ने पत्रकारों की जमकर पिटाई कर दी थी, या जिस प्रकार दिल्ली में एक प्रदर्शन के दौरान कुरान की प्रति के जलाए जाने की अफवाह की प्रतिक्रियास्वरूप आंध्र प्रदेश, कर्नाटक और महाराष्ट्र के अनेक नगरों में उन्मादी भीड़ सड़कों पर उतर आई थी, विध्वंस व हिंसा पर उतारू हो गई थी, या जिस प्रकार इंडियन एक्स्प्रेस के बेंगलूर संस्करण में पैगंबर मुहम्मद के बारे में कोई लेख प्रकाशित होने से उत्तेजित भीड़ ने अखबार के दफ्तर पर धावा बोल दिया था और उसके संपादक को हाथ जोड़ कर, कान पकड़कर माफी मांगने के लिए मजबूर कर दिया था वैसा ही दृश्य कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य पद के लिए श्रद्धा रखनेवाले करोड़ों-करोड़ों हिंदुओं ने खड़ा क्यों नहीं किया? उनका विरोध प्रदर्शन इतना शांत, इतना संयत, इतना सांकेतिक एवं प्रातिनिधिक बनकर क्यों रह गया?
हिंदू समाज को कायरता का ताना देने वाले ये वही लोग हैं जो 6 दिसंबर 1992 को अयोध्या में देश के कोने-कोने से एकत्र हुए लाखों रामभक्तों की उपस्थिति में, बिना किसी भगदड़ के, बिना किसी हिंसा के राष्ट्रीय अपमान के एक प्रतीक के शांतिपूर्ण विध्वंस के दृश्य को देख कर स्तंभित हो गए थे। उस अभूतपूर्व दृश्य को देख कर भी उन्होंने यह सोचने की आवश्यकता नहीं समझी कि कैसा है यह समाज जो साढ़े चार सौ साल तक उस राष्ट्रीय अपमान की पीड़ा को पीढ़ी दर पीढ़ी अपने अंतःकरण में संजो कर जीता रहा, उस अपमान के प्रतीक को अपनी आंखों के सामने से हटाने के लिए शांतिपूर्ण समझौते के प्रयास करता रहा, सभी रास्ते बंद हो जाने पर एक दिन आया, और शांतिपूर्ण ढ़ंग से उस प्रतीक को हटा कर चुपचाप वापस लौट गया।
ऐसा ही दृश्य कुछ वर्षों पूर्व 1975 में पैदा हुआ था जब लोकनायक जयप्रकाश नारपायण के नेतृत्व में संपूर्ण क्रांति का ज्वार चारों ओर उमड़ रहा था। तब यकायक रात के अंधेरे में देश पर आपात स्थिति थोप दी गई, लोकनायक समेत सभी नेता रातों रात गिरफ्तार कर लिए गए, देश में सन्नाटा छा गया। इस सन्नाटे को अपनी विजय मान कर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने बंदी जयप्रकाश को दिल्ली की सड़कों पर घुमा कर ताना मारा था “देख लो, अपनी आंखों से देख लो, कहां गया तुम्हारा जनक्रांति का ज्वार, सब ओर सन्नाटा है, तुम्हारी गिरफ्तारी से न धरती कांपी, न पत्ता डोला।” पर उन्नीस महीने बाद उसी सन्नाटे ने सर्वशक्तिमान इंदिरा गांधी को उनके पूरे लावलश्कर के साथ पराजय की टोकरी में फेंक दिया, हिंसा के उन्माद का प्रदर्शन करके नहीं, बहुत शांतिपूर्ण अहिंसक मतदान के द्वारा केंद्र में सत्ता परिवर्तन के उस अकल्पित चमत्कार के पीछे अंतरतम की गहराइयों तक पैठा असंतोष और क्षोभ ही था।
हिंदू समाज की प्रकृति की इस विशेषता को गहराई से समझने की बहुत आवश्यकता है। सहस्त्रों वर्षों के संस्कारों के फलस्वरूप आध्यात्मिकता के प्रति गहरी आस्था उसके अचेतन मानस में व्याप्त है। यह आस्था ही उसे संपूर्ण दृश्य जगत्, उसकी संपूर्ण विविधता के पीछे एक निर्गुण, निराकार, चैतन्यमयी, आनंदमयी सत्ता के अस्तित्व का दर्शन कराती है। वह इस विविधता को उसी एक अंतिम सत्ता की अभिव्यक्ति के रूप में देखता है – “एकोऽहम बहुस्यामि”। वह तैंतीस करोड़ देवताओं की पूजा करता है। वह सभी 5 अवतारों, ऋषियों, मुनियों में उसी परमतत्व की विभूति का प्रकाश देखता है। सबके प्रति समान श्रद्धा लेकर वह देवत्व की ओर बढ़ने का अनेक जन्मों तक प्रयास करता है। दत्तात्रेय के समान सब उसके गुरु हैं- मकड़ी से लेकर मानव तक सब उसकी देवत्व की साधना में सहायक हैं। उसने किसी एक पैगम्बर-मुहम्मद या एक ईसा मसीह को ईश्वर का एकमात्र प्रतिनिधि नहीं मान लिया, उनके प्रति अंध श्रद्धा समर्पित नहीं कर दी, उनकी आलोचना के लिए अपने कान बंद नहीं कर लिए। उसकी संस्कार परम्परा ने जहां प्रत्येक विभूति के प्रति आदर भाव दिया है, वहीं प्रत्येक देवता, ऋषि और मुनि के जीवन में आने वाले अर्थ, काम और सत्ता मद के कारण उत्पन्न होने वाले स्खलन के प्रसंगों का भी उसे बार-बार स्मरण दिलाया है। कैसे मेनका ने विश्वामित्र की तपस्या भंग की, कैसे मत्स्यकन्या ने ऋषि पराशर के ब्राहृचर्य को खंडित किया। कैसे विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर ऋषि नारद के मद को तोड़ा, ऋषि दुर्वासा और परशुराम का क्रोधीरूप आदि। ऐसी अनेक कथाएं हैं जो हमारी राष्ट्रीय स्मृति में गहरी बैठी हुई हैं। जो हमें हर समय स्मरण दिलाती रहती हैं कि केवल परब्राहृ ही विकारों से मुक्त है, स्वयं पूर्ण है। पर, वह तो देश-काल से परे है, वहां न सूर्य की पहुंच है, न वहां चन्द्रमा प्रकाशित होता है, न बिजली चमकती है फिर बेचारे की तो बिसात ही क्या है। उसके प्रकाश से ही ये सब प्रकाशित हैं मानव देह धारण करते ही हम देश-काल की परिधि में आते हैं, अर्थ और काम की एषणाओं से ग्रस्त हो जाते हैं, त्रिगुणात्मक प्रवृत्ति के दास बन जाते हैं। अपनी त्रिगुणात्मक प्रवृत्ति और अपने मूल ब्राहृ भाव के पीछे झूलते रहते हैं। अपनी प्रकृतिजन्य एषणाओं-दुर्बलताओं पर विजय पाने के लिए संघर्ष करते रहते हैं। जिसने जितनी मात्रा में जब जब विजय पा ली वह तब तब उतनी ही मात्रा में हमारे लिए प्रेरणास्पद वन्दनीय बन जाता है। हम उसके लिए श्रद्धा भाव रखते हुए भी यह कभी नहीं भूलते कि वह एक देहधारी मानव है, पता नहीं कब उसके अन्दर ये एषणाएं जोर मार बैठें, कब कहां वह स्खलित हो जाए। किन्तु उसका यह तात्कालिक स्खलन उसकी जीवन भर की लम्बी साधना को निरर्थक नहीं बना देता है।
जयेन्द्र सरस्वती जी का 50 वर्ष लम्बा जीवन हमारे सामने है। उन्होंने कांची कामकोटि पीठ को एकान्तिक अध्यात्म साधना से बाहर निकाल कर लोकशिक्षण, जनकल्याण और समाज सुधार के रास्ते पर बढ़ाने का अथक प्रयास किया। उन्होंने मठ को कर्मकाण्ड से आगे बढ़ाकर जन जीवन के साथ जोड़ा। वे हरिजनों के द्वार पर गए, उन्होंने अस्पृश्यता की दीवार को ढहाने की कोशिश की, वेद-विद्या के साथ-साथ आधुनिक ज्ञान-विज्ञान के आलोक को फैलाने के लिए अनेक शिक्षा संस्थान स्थापित किए, दीन-दुखियों के इलाज के लिए बड़े-बड़े अस्पताल बनवाए, पूरे भारत का भ्रमण कर एकता और अध्यात्म का संदेश फैलाया। गुवाहाटी जैसे दूरस्थ क्षेत्र में जनसेवा के संस्थान स्थापित कर राष्ट्र की भौगोलिक एकता को पुष्ट किया। अयोध्या विवाद का समाधान ढूंढने के लिए हिन्दू और मुस्लिम समाजों के नेतृत्व को एकत्र लाने की कोशिश की। उनका यह विशाल कर्तृत्व हिन्दू समाज की आंखों के सामने है, उसके प्रति वह आज भी कृतज्ञ है, आगे भी रहेगा। किन्तु उन्हें हमने भगवान या ब्राहृ कभी नहीं कहा, हो सकता है उनके देह धर्म ने कभी उनके जीवन में भी दुर्बल क्षण पैदा किए हों। यदि ऐसा है तो उनकी पूरी छानबीन आवश्यक है। किन्तु वह छानबीन पूरी तरह पारदर्शी और तटस्थ भाव से होनी चाहिए। अभी तक की छानबीन का जो रूप सामने आ रहा है, वह उसकी निष्पक्षता के प्रति गंभीर संदेह पैदा करती है। पुलिस तन्त्र, न्यायतंत्र, प्रशासनतंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार कोई छिपी बात नहीं है। सर्वोच्च न्यायालय स्वयं ही तमिलनाडु की न्याय-व्यवस्था को पक्षपातपूर्ण घोषित कर चुका है वहां की मुख्यमंत्री के विरुद्ध मामलों को राज्य के बाहर भेज कर कांचीपुरम के पुलिस अधीक्षक प्रेम कुमार के विरुद्ध भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं, जिनके लिए वे दंडित भी होते रहे हैं। तब, यदि मुख्यमंत्री जयललिता का यह सार्वजनिक कथन प्रामाणिक है कि वे कांची मठ के प्रति गहरी श्रद्धा रखती हैं और जयेन्द्र सरस्वती जी की गिरफ्तारी का निर्णय उनके जीवन का सबसे कठिन व कष्टदायक निर्णय रहा है तो उन्हें अपनी प्रामाणिकता को सिद्ध करने के लिए जयेन्द्र सरस्वती जी के विरुद्ध आरोपों की छानबीन का दायित्व सी.बी.आई. जैसी किसी बाहरी एजेंसी को सौंपने की मांग करनी चाहिए, तमिलनाडु पुलिस को उससे अलग रखना चाहिए। उनके विरुद्ध आरोपी की सुनवाई भी अपने राज्य के बाहर करानी चाहिए। तभी यह समाज उन आरोपों की सत्यता पर विश्वास कर सकेगा और उनके सत्य सिद्ध होने पर अपने संतुलन को बनाए रख सकेगा।
(3-12-2004)
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