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आख्यान

by
Dec 12, 2004, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Dec 2004 00:00:00

नरेन्द्र कोहली

मानवाधिकार-2

अपराध स्वीकार

“क्या कारण है तुम्हारा वहां जाने का। मानव तो यह भी है।” इंस्पेक्टर ने कहा।

“यह मानव है?” चोर ने घृणा से कहा, “इसने मुझे अपनी हत्या नहीं करने दी। इसने मुझे गोली मारी है। मेरे साथ, एक मानव के साथ, अमानवीय व्यवहार किया है। अब पुलिस इसका साथ देगी, तो मैं पुलिस की भी शिकायत करुंगा। और अपनी गवाही के लिए किसी डाक्टर को बुला लूंगा।

पुलिस इंस्पेक्टर डर गया। “चलो, तुम्हें अस्पताल ले चलें। मरहम पट्टी तो करवा लो।”

“नहीं! नहीं जाऊंगा अस्पताल। तुम मामले को रफा-दफा करना चाहते हो।”

“तो चल तुझे मानवाधिकार आयोग ही ले चलूं।” इंस्पेक्टर को भी क्रोध आ गया, “मैं तुम्हें भागने तो नहीं दूंगा।”

“तुम इनके घर में क्यों घुसे थे?” आयुक्त ने चोर से पूछा।

“चोरी करने और यदि यह चोरी न करने दे तो इसकी हत्या करने।”

“क्यों? हत्या करना तो अपराध है।” आयुक्त ने कहा।

“होगा; किन्तु यह प्रतिदिन अपनी पत्नी से मार खाता था। मुझसे इसकी पीड़ा देखी नहीं जाती थी। मैं इसे इसके यातनामय जीवन से मुक्ति दिलाना चाहता था।” चोर बोला, “मैं इसका शुभचिंतक हूं। मानवता का त्राता हूं।”

“आपकी पत्नी आपको रोज पीटती थी?” आयुक्त ने व्यक्ति से पूछा। “जी!”

“क्यों पीटती थी?”

“जी हम दोनों में कुछ मतभेद हैं।” “कैसे मतभेद, जो मारपीट तक जा पहुंचते हैं।”

“जी! वह गंभीर विचारों की है। हर बात को बहुत गंभीरता से ग्रहण करती है।”

“और आप?”

“मैं कुछ हल्का-फुल्का, विनोदी आदमी हूं। जीवन को कभी मैंने उस प्रकार गंभीर दृष्टि से नहीं देखा।”

“यह क्या मतभेद हुआ?”

“जी! इससे अधिक मुंह खोलूंगा, तो नारी अधिकारों का हनन हो जाएगा और नारी आंदोलन की सदस्याएं, मुझे भरे बाजार में जूते मारेंगी।”

“तो आपने प्रतिकार क्यों नहीं किया?”

“जी प्रतिकार करता तो वह महिला आयोग में चली जाती।”

“तो आप मार खाते रहे?”

“तो आप क्या करते हैं? आपकी पत्नी आपको मारती नहीं, या धिक्कारती नहीं, या अपमानित नहीं करती? आपने कभी प्रतिकार किया।” “बात तुम्हारी और तुम्हारी पत्नी की है।” आयुक्त ने बुरा-सा मुंह बनाया। मुझे क्यों बीच में घसीटते हो?”

“मैंने तो उदाहरण दिया है श्रीमान!”

“ऐसे घटिया उदाहरण मत दिया करो, इससे मानव के अधिकारों का हनन होता है।” आयुक्त बोले, “तो तुम अपना दोष स्वीकार करते हो। तुम पर दोहरे आरोप हैं।”

“जी! क्या-क्या?”

“तुम अपनी पत्नी से पिटते रहे और कुछ नहीं बोले। उससे मानव के अधिकारों का हनन हुआ।” आयुक्त ने कहा, “दूसरा, तुमने अपने घर में तुम्हारी हत्या के उद्देश्य से घुस आए इस चोर को गोली मारी। चोरों और हत्यारों के साथ ऐसा अमानवीय दुव्र्यवहार नहीं करना चाहिए।”

“जी सरकार! माई बाप!”

“अपना अपराध स्वीकार करते हो?”

“जी! माई बाप। स्वीकार करता हूं।”

“तो फिर उसका दंड भी स्वीकार करो।” आयुक्त उसका दंड लिखने में व्यस्त हो गए। (समाप्त)

(पाक्षिक स्तंभ)

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