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होम भारत

गौरवमय अतीत मंगलमय भविष्य

भारत के जनजातीय समाज को सनातन संस्कृति से काटने के षड्यंत्र ब्रिटिश शासनकाल से ही चलते आ रहे हैं। लोभ या दबाव के दम पर जनजातीय बंधुओं को ईसाइयत के पाश में बांधने की ऐसी कोशिशों का जनजातीय समाज ने अपने अग्रजों की अगुआई में सदा कड़ा प्रतिकार किया है। स्वाभिमान पर इस समाज ने कभी समझौता नहीं किया

by पाञ्चजन्य ब्यूरो
Nov 13, 2024, 02:31 pm IST
in भारत, धर्म-संस्कृति
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भारतीय सनातन संस्कृति सदैव आक्रमणकारियों के निशाने पर रही है। भारत की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-आध्यात्मिक-वैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों की सर्वोत्कृष्टता तथा समृद्धि को देखकर विभिन्न विदेशी शक्तियों यथा तुर्क, मंगोल, अरब, मुगल, अंग्रेजों आदि ने तलवार की नोंक पर अथवा आपसी फूट तथा भारतीयों की क्षमादान प्रवृत्ति का फायदा उठाकर समय-समय पर आक्रमण कर यहां की सत्ता एवं संसाधनों पर कब्जा जमाया। इतना ही नहीं, उन्होंने भारत की संस्कृति को विखंडित करने के लिए क्रूरतम अत्याचारों से राष्ट्र को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है।

ऐसी विदेशी ताकतों की क्रूरताओं का अध्याय विभीषक त्रासदियों से भरा पड़ा है। उन्होंने हमारे असंख्य मंदिरों को खंडहर में बदल दिया तो कभी मंदिरों के ऊपर गुंबद बनाकर उसे ‘मस्जिद’ बना दिया। हमारे धर्मग्रंथों को जलाया, हमारी स्त्रियों की अस्मिता भंग की एवं नरसंहार से हमारी धरती को रक्तरंजित किया। पाश्चात्य शैली का अंधानुकरण कर भारत की आत्मा को सेक्युलरिज्म की विषबेल के सहारे छलनी करने वाले सेकुलर सत्ताधारियों तथा उनके संरक्षण में वामपंथियों ने अकादमिक स्तर पर हमारे इतिहास बोध को विकृत किया। उन्होंने हमें चेतनाविहीन करने का घिनौना खेल भी खेला।

आक्रांताओं के चंगुल में वर्षों जकड़े रहने के बावजूद भारतीय सनातन संस्कृति आज भी अपने अस्तित्व को बनाए रखे है। इसकी वजह यही है कि भारतीय संस्कृति की जड़ें अपने सांस्कृतिक-आध्यात्मिक, परिवर्तनशील एवं समन्वयपूर्ण मूल्यों में गहरे समाहित हैं। अंग्रेजों ने हमारी संस्कृति को नष्ट करने के लिए कन्वर्जन करवाया तथा हमारे धर्मग्रंथों में मिलावट की। हमारी सनातनी शिक्षा व्यवस्था सहित हमारी चेतना को मूर्छित करने के ध्वंसात्मक कृत्य व्यापक पैमाने पर किए। ईसाई मिशनरियों ने जनजातियों का शोषण किया, भोले-भाले जनजातीय समाज को प्रलोभनों में फंसाकर उनका कन्वर्जन करवाया।

कर्नाटक की कोंडावा जनजातीय समाज के प्रतिनिधि

‘मूल निवासी’ का भ्रमजाल

अपने उन्हीं मंसूबों को मूर्तरूप देने के लिए आज भी ईसाई मिशनरी, भारत के अंदर छिपे धर्म विरोधी वामपंथी और शहरी नक्सलियों द्वारा जनजातीय समाज को सनातन समाज से अलग बताने एवं उनकी जड़ों को काटने के कुत्सित षड्यंत्र चल रहे हैं। हमारे जनजातीय समाज को कभी ‘मूल निवासी’ तो कभी उन्हें भ्रमित करते हुए उनके ‘अधिकारों के हनन’ की झूठी कहानियों से बरगलाने के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा एवं आर्थिक प्रलोभनों के द्वारा लुभाकर अलगाववाद का भाव फैलाने के प्रयास किए जा रहे हैं, जबकि भारतीय संविधान में हमारे जनजातीय समाज के उत्थान एवं उनके अधिकारों के पर्याप्त उपबंध किए गए हैं।

इस पूरे षड्यंत्र में यूरोपीय शक्तियां पर्दे के पीछे से काम कर रही हैं। इसी कड़ी में विश्व मजदूर संगठन (आईएलओ) के ‘इंडिजिनस पीपुल’ शब्द के प्रयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसका अर्थ प्राय: ‘मूल निवासी’ से लगाया जाता है, जबकि विभिन्न राष्ट्रों के संबंध में इसका अर्थ लगाना एवं इसे परिभाषित करना अत्यंत कठिन है। भारत के लिए ‘मूल निवासी’ तथा ‘इंडिजिनस पीपुल’ को परिभाषित करना और भी कठिन है, क्योंकि भारतीय इतिहास आधुनिक इतिहास की थ्योरी से अलग चलता है। हमारा धार्मिक एवं पौराणिक कालक्रम लाखों-करोड़ों वर्षों के बोध को स्पष्ट करता है। इसलिए ‘इंडिजिनस पीपुल’ की व्याख्या करना भारतीय दृष्टि के अनुसार महत्वहीन है। आधुनिक इतिहास में वर्णित आक्रांताओं के अलावा भारत भूमि में निवास करने वाला एवं राष्टÑ की पूजा करने वाला प्रत्येक व्यक्ति यहां का ‘मूल निवासी’ है। भारतीय चेतना में जो भारत भूमि को माता मानकर पूजता है तथा प्रकृति का उपासक है, वह यहां का मूल निवासी है।

जनजातीय समाज के अधिकार

विश्व मजदूर संगठन के गठन के उपरांत इसी ‘इंडिजिनस पीपुल’ शब्द के भ्रमजाल में 13 सितंबर, 2007 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा विश्व के ‘आदिवासी’ या जनजातीय समाज के अधिकारों के लिए घोषणापत्र जारी किया गया। प्रतिवर्ष 9 अगस्त का दिन ‘अंतरराष्ट्रीय आदिवासी दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा, जिसकी घोषणा दिसंबर 1994 में की गई थी। भारत ने भी राष्ट्र की प्रजातांत्रिक प्रणाली एवं संवैधानिक दायरे के अनुसार संप्रभुता, अस्मिता, अखंडता के आधार पर इस पर अपनी सहमति दी, जिसका पालन भारतीय संविधान के अनुरूप ही किया जाता है।

2006 में जापान में आयोजित अंतरराष्ट्रीय कानून संगठन के अधिवेशन में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई.के.सबरवाल ने जनजातीय एवं गैरजनजातीय समाज में समानता के विभिन्न बिंदुओं को स्पष्ट करते हुए कहा था-‘‘भारत के आधिकारिक मत के अनुसार भारत में रहने वाले सभी लोग ‘ट्राइबल’ अथवा ‘मूल निवासी’ अथवा देशज हैं। इन सभी में से कुछ समुदायों को ‘अनूसूचित’ किया गया है, जिन्हें सामाजिक, आर्थिक, न्यायिक व राजनैतिक समानता के नाते विशेष उपबंध दिए गए हैं।’’ आज जिस जनजातीय समाज को सनातन हिन्दू धर्म से अलग बताने के प्रयास एवं षड्यंत्र हो रहे हैं, इस परिप्रेक्ष्य में इस ओर ध्यानाकर्षित करने की आवश्यकता है कि भारत के इतिहास में जनजातीय समाज का योगदान कभी किसी से कम नहीं रहा है। हमारे जनजातीय समाज में समय-समय पर ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने अपनी सनातन संस्कृति पर हो रहे कुठाराघातों/कन्वर्जन का संगठित होकर पुरजोर विरोध करते हुए अपने शौर्य से परिचित करवाया है।

सरदार पूंजा का योगदान

महाराणा प्रताप के वन निर्वासन के दौरान उनकी सेना एवं सरदार पूंजा, जिन्हें बाद में महाराणा प्रताप ने ‘राणा’ की उपाधि दी, के नेतृत्व में हल्दीघाटी के युद्ध में मुगलों को परास्त करने में हमारे भील बंधुओं की महती भूमिका रही थी। इसकी निशानी आज भी मेयो कॉलेज के प्रतीक चिह्न में अंकित है। टंट्या भील को जनजातीय समाज देवतुल्य पूजता है। उन्होंने मराठों के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई लड़ी थी। गुलाब महाराज संत के रूप में विख्यात हुए, उन्होंने जनजातीय समाज का धर्म के प्रति निष्ठावान रहने का आह्वान किया था। वहीं, कालीबाई एवं रानी दुर्गावती जैसी वीरांगनाओं के शौर्य एवं बलिदान ने जनजातीय समाज की नारी शक्ति के महानतम त्याग एवं शौर्य की गूंज से संपूर्ण राष्ट्र में चेतना का सूत्रपात कर स्वर्णिम अध्याय लिखा। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में भीमा नायक ने अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति देकर राष्ट्रयज्ञ के लिए जीवन समर्पित कर यह सिखाया कि राष्ट्र की स्वतंत्रता ही जीवन का ध्येय होना चाहिए। जनजातीय समाज के गोविन्द गुरु एवं ठक्कर बापा के समाज सुधार कार्यों एवं उनकी सनातन निष्ठा से भला कौन परिचित नहीं होगा?

सनातन के प्रसारक भगवान बिरसा

जनजातीय समाज के गौरव भगवान बिरसा मुंडा ने हिन्दू धर्म का प्रसार करते हुए ईसाई कन्वर्जन के विरुद्ध रणभेरी फूंकी थी। उन्होंने कन्वर्टिड बंधुओं की सनातन में वापसी के लिए ‘उलगुलान’ के बिगुल के रूप में जिस क्रांति की ज्वाला को प्रज्ज्वलित किया था वही तो हमारे सनातन समाज की सांस्कृतिक विरासत है। यदि जनजातीय समाज हिन्दू धर्म से अलग होता तो क्या भगवान बिरसा मुंडा धार्मिक पवित्रता, तप, जनेऊ धारण करने, शाकाहारी बनने, शराब त्याग के नियमों को जनजातीय समाज में लागू करवाते?

भगवान बिरसा मुंडा ने जो धार्मिक चेतना जाग्रत की थी उसमें उनके अनुयायी ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, मातृदेवी, दुर्गा, काली, सीता के स्वामी, गोविंद, तुलसीदास एवं सगुण-निर्गुण उपासना पद्धति को मानते थे। यही तो सनातन संस्कृति का मूल स्वरूप है, जिसे गैरजनजातीय हिन्दू समाज बड़ी श्रद्धा एवं आदरभाव से पूजता है। यदि सेकुलर षड्यंत्रकारी बिरसा मुंडा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं तो यह स्वमेव सिद्ध हो जाता है कि जनजातीय समाज सनातन समाज का अभिन्न अंग है।

1929 में गोंड जनजाति के लोगों के मध्य भाऊसिंह राजनेगी ने सुधार आंदोलनों में यह स्थापित किया था कि उनके पूज्य ‘बड़ा देव’ और कोई नहीं बल्कि शिव के समरूप ही हैं। भाऊसिंह राजनेगी ने हिन्दू धर्म का प्रचार करते हुए मांस-मदिरा त्याग करने का आह्वान किया था। इसी प्रकार 19वीं एवं 20वीं शताब्दी में छोटा नागपुर में ‘भगतो’ का सनातन संस्कृति की रक्षा के लिए उदय विशेष रूप से दिखता है। गोरक्षा, कन्वर्जन का विरोध, मांस-मदिरा त्याग करने का सन्देश देने वाले जात्रा एवं बलराम भगत का योगदान चिरस्मरणीय है।

गूंजा बंगम मांझी का संदेश

1980 बोरोबेरा के बंगम मांझी ने भी मांस-मद्य त्याग एवं खादी पहनने का सन्देश जनजातीय समाज को दिया था जिसके गवाह सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ.राजेंद्र प्रसाद उनकी सभाओं में अपनी उपस्थिति देकर बने। 1980 में ही लगभग 210 की संख्या में संथालों का उपनयन संस्कार भी हुआ था। उपनयन संस्कार तो सनातन धर्म के सोलह संस्कारों में से ही एक है, तो जनजातीय समाज हिन्दू धर्म से अलग कैसे? अंग्रेजों द्वारा मिदनापुर (पश्चिम बंगाल) के लोधाओं को ‘अपराधी जनजाति’ घोषित कर दिया गया था। ये वही लोधा थे जो वैष्णव उपासना पद्धति में विश्वास रखते थे, वे राजेंद्रनाथदास ब्रह्म के अनुयायी थे।

असम की (सिन्तेंग, लुशई, ग्रेरो, कुकी) जनजातियों ने अंग्रेजों का विरोध किया था, जो कि वैष्णव संत शंकर देव की अनुयायी थीं।इन सभी तथ्यों एवं जनजातीय समाज की गौरवपूर्ण शौर्यगाथा से यह एकदम से स्पष्ट एवं सिद्ध होता है कि षड्यंत्रकारी केवल और केवल जनजातीय समाज के माध्यम से उनका कन्वर्जन करवाकर भारत में वर्ग संघर्ष को जन्म देने तथा पांथिक आधार पर भारत के विभाजन का कुचक्र रच रहे हैं। लेकिन जनजातीय समाज अब इन षड्यंत्रकारियों की सच्चाई से अवगत हो चुका है। अब इस युग के बिरसा मुंडा, कालीबाई, दुर्गावती, राणा पूंजा, टंट्या भील, भाऊसिंह राजनेगी आदि आएंगे और ऐसे षड्यंत्रकारियों का संहार करेंगे!

मध्य प्रदेश के खंडवा में 1840 को जन्मे टंट्या भील को ‘टंट्या मामा’ के नाम से भी जाना जाता है। अपने 12 वर्ष के संघर्ष में वे अंग्रेजों से 24 युद्ध लड़े और अपराजेय रहे। उनका संबंध 1857 के स्वतंत्रता संग्राम से भी है, जिसमें वे तात्या टोपे के साथ थे। उन्होंने तात्या टोपे से ही गुरिल्ला युद्ध की बारीकियां सीखी थीं। टंट्या ने वनवासियों और पीड़ितों को एकत्रित कर अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम छेड़ा। उन्होंने 1700 गांवों में समानांतर सरकार चलाई और ‘टंट्या पुलिस’ नाम से एक विशेष दस्ता बनाने के साथ चलित न्यायालय भी स्थापित किए थे। 11 अगस्त, 1889 को अंग्रेजों ने उन्हें धोखे से पकड़ा, जब रक्षाबंधन के दिन वे अपनी मुंहबोली बहन से राखी बंधवाने के लिए पहुंचे। उन पर आपराधिक मामलों के साथ देशद्रोह का मुकदमा चला। 4 दिसंबर, 1889 को टंट्या भील को फांसी देने के बाद उनके पार्थिव शरीर को पाताल पानी के काला कुंड रेलवे ट्रैक पर फेंक दिया गया।
अमर बलिदानी डेलन शाह का जन्म 1802 में नरसिंहपुर जिले के मनदपुर में हुआ था। मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में गोंड जनजाति के वीर योद्धा डेलन शाह युवावस्था से ही अंग्रेजों से संघर्ष करने लगे थे। मात्र 16 वर्ष की आयु में उन्होंने चौरागढ़ में अंग्रेजों के किले पर आक्रमण कर दिया था। उन्होंने ब्रिटिश सरकार का झंडा यूनियन जैक भी उखाड़ फेंका, परंतु उनके गढ़ पर अधिकार नहीं कर सके। उन्होंने पुन: सेना संगठित कर 1836 में दूसरा प्रयास किया, लेकिन इस बार भी सफल नहीं हुए। अंतत: 1857 की क्रांति में उन्होंने तीसरा प्रयास किया और चांवरपाठा तथा तेंदूखेड़ा, दोनों को अंग्रेजों के कब्जे से स्वतंत्र करा लिया। इसके बाद 1858 में अंग्रेज बड़ी सेना लेकर आए और डेलन शाह को बंदी बना लिया। 16 मई, 1858 को वीर डेलन शाह को पीपल के पेड़ पर लटकाकर फांसी दे दी गई।

 

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