वर्ष 2016 में एक दिल दहला देने वाली तस्वीर वायरल हुई थी, जिसमें लाल-लाल रंग के पानी में लोग गाड़ियां चला रहे थे। यह दिल दहला देने वाली इसलिए थी क्योंकि वह बांग्लादेश की थी और पानी में लाल रंग नहीं बल्कि उन पशुओं का खून था, जिनकी कुर्बानी बकरीद के मौके पर दी गई थी। वह तस्वीर जब भी सामने आती है तो दिल केवल पशु कुर्बानी की भयावहता को लेकर ही नहीं दहलता है बल्कि साथ ही इसलिए भी दहलता है कि जो पानी खून में मिलकर इस तरह सड़कों पर बह रहा है वही पानी नदियों में मिलेगा, वही पानी अंतत: सागर में मिलेगा।
यह प्रदूषण की वह पराकाष्ठा है, जिस पर सहज कोई बात नहीं करता है। मगर प्रश्न यह उठता है कि आज किसी त्योहार पर होने वाले प्रदूषण की बात क्यों हो रही है? यह बात इसलिए हो रही है क्योंकि हाल ही में बकरीद के मौके पर खून से लाल हुई सड़कों पर चुप रहने वाले कथित पर्यावरणविद बंगाल की भूमि पर दुर्गापूजा के विरोध में इस तर्क के साथ आ गए हैं कि मूर्ति विसर्जन से जल प्रदूषण होगा।
नदियों में गंदगी फैलेगी, इसलिए बांग्लादेश में कट्टरपंथी संगठन अब यह प्रदर्शन कर रहे हैं कि दुर्गा पूजा पर मूर्ति विसर्जन नहीं होना चाहिए। शेख हसीना को हटाने वाला कथित छात्र आंदोलन अब धीरे-धीरे अपने असली रूप में आ रहा है। यह आंदोलन कभी भी शेख हसीना के खिलाफ नहीं था, यह आंदोलन पाकिस्तान की पहचान की ओर लौटने का आंदोलन था। यह आंदोलन दरअसल उस मजहबी पहचान की ओर लौटने का आंदोलन था, जिसकी शुरुआत तो ढाका से ही हुई थी, मगर 1971 में शेख मुजीबुर्रहमान ने उससे छीन ली थी।
भूमि की अपनी एक पहचान होती है, बिना धार्मिक/मजहबी या रिलीजियस पहचान के कोई भूमि नहीं होती। भूमि की पहचान पर अतिक्रमण होता रहता है। जैसे ढाकेश्वरी देवी के नाम पर बसे ढाका के साथ हो रहा है। जैसे प्रभु श्रीराम के पुत्र के नाम पर बसे नगर लवपुर के साथ हुआ और अब लवपुर की सारी स्मृतियाँ विलोपित हो चुकी हैं और वह लाहौर के रूप में पाकिस्तान में है।
पाकिस्तान किसी मुल्क का नाम न होकर एक मजहबी पहचान है। जमीन की पहचान। जिस पहचान के लिए ढाका के नबाव ने मुस्लिम लीग की नींव रखी थी, और जिसकी मुस्लिम लीग वाली पहचान के लिए उन्हीं शेख मुजीबुर्रहमान ने मजहब के आधार पर भारत से अलग होने के लिए दंगों तक में प्रतिभागिता की थी। पूर्वी पाकिस्तान भाषा की अस्मिता के आधार पर अलग हुआ मुल्क नहीं था, बल्कि वह मजहब के आधार पर अलग हुआ मुल्क था।
शेख हसीना उसी देश के नजदीक होने का दावा करती थीं, जिस देश की पहचान से घृणा के आधार पर यह मुल्क बना है। जिस देश की धार्मिक पहचान से घृणा के कारण यह मुल्क बना था।
शेख हसीना को बहुत ही सुनियोजित तरीके से बांग्लादेश से बाहर करने के बाद, वहाँ के कुछ (अधिकांश) मुस्लिम समूहों ने अब शायद जमीन की पहचान को पूरी तरह से मजहबी करने का निश्चय कर लिया है। यही कारण है कि जिस बंगाल को माँ दुर्गा के कारण शक्ति की भूमि कहा जाता है, जहां पर साक्षात ढाकेश्वरी माता स्थापित हैं, वहीं पर दुर्गा पूजा को लेकर प्रतिबंध की बात इस आधार पर हो रही है कि वहाँ पर दुर्गा पूजा करने वाले बचे ही कितने हैं।
‘इंसाफ कीमकरी छात्र-जनता’ जैसे कट्टरपंथी समूहों ने इस बार उन हिंदुओं को धमकी दी है, जो अभी भी उस भूमि के चरित्र को माँ शक्ति की भूमि बनाए हुए हैं। जैसे पाकिस्तान में कटास राज से संबंधित पहचान समाप्त हुई, जैसे लवपुर की पहचान समाप्त हुई और जैसे शेष प्राचीन मंदिरों की पहचान समाप्त हुई, वैसे ही पूर्वी पाकिस्तान अर्थात नया बांग्लादेश उसी के नक्शेकदम पर चलते हुए हिंदुओं को उनके पर्व मनाने पर भी प्रतिबंध लगाने पर अड़ने जैसा प्रतीत हो रहा है।
बांग्लादेश में ऐसा नहीं है कि पहली बार दुर्गापूजा को लेकर तनाव हुआ है। ऐसा पूर्व में हो चुका है और वर्ष 2021 में दुर्गापूजा के विरुद्ध जो षड्यन्त्र हुआ था, उसे भी शायद ही कोई भूला हो। वहाँ पर कुरान के अपमान को लेकर पूजा पंडालों और हिन्दू मंदिरों पर हमले किए गए थे।
कहीं ऐसा तो नहीं है कि हिंदुओं पर यह नए हमले इस बात की लड़ाई है कि बांग्लादेश और पाकिस्तान में से जिन्ना और अल्लामा इकबाल की विरासत को आगे ले जाने वाला असली पाकिस्तान कौन सा है? क्या यह पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के असली मुस्लिम पाकिस्तान होने की प्रतिस्पर्धा तो नहीं है?
बंगाली हिंदुओं की अपनी भूमि पर उन्हें उनकी उसी देवी की पूजा करने पर धमकी मिलना, कोई छोटी बात नहीं है? क्योंकि प्रदूषण तो काटे जाने वाले पशुओं के कारण जितना होता है, वह वर्ष में एक बार प्रतिमा विसर्जन से तो नहीं होगा? और न ही होता है। फिर वह क्या कारण है जिसके चलते उन्हें उसी देवी की शक्ति का पर्व नहीं मनाने दिया जा रहा है, जिस देवी की शक्ति के चलते उस भूमि की पहचान है?
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