सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन कहते हैं, “शिक्षक मनुष्य जीवन में अनेक संभावनाओं के द्वार खोलता है। शिक्षक तब गौरवशाली होता है जब उसके ज्ञान के आलोक में राष्ट्र का गौरव बढ़ता है और राष्ट्र अपने जीवन मूल्यों, राष्ट्र की संस्कृति व उत्कृष्ट परम्पराओं को नवजीवन देता है। कोई भी राष्ट्र तब सफल होता हैं जब उसका शिक्षक अपने उत्तरदायित्वों का; अपने कर्तव्यों का समुचित निर्वहन करता है। वही शिक्षक सफल माना जाता है जब वह अपने विद्यार्थियों में चरित्र निर्माण, राष्ट्रीयता, करुणा, संवेदनशीलता व सहभागिता का निर्माण करने में सफल होता है। एक बार डॉ. राधाकृष्णन विदेश में दर्शनशास्त्र पर भाषण देने गये हुए थे। भोज के समय एक अँग्रेज ने भारतीयों पर व्यंग्य करते हुए डॉ. राधाकृष्णन से कहा – हिन्दू संस्कृति कोई संस्कृति है? कोई गोरा है, कोई काला, कोई बौना है, कोई टोपी पहनता है तो कोई पायजामा। हमें देखिए हम सभी गोरे-गोरे, लाल-लाल। इस पर डॉ. राधाकृष्णन बोले- ठीक कहते हैं आप। घोड़े सभी अलग-अलग रंगों के होते हैं जबकि गधे सारे एक ही रंग के। अलग-अलग रंग एवं पहनावा तो विकास की निशानी है। कहते हैं कि उनकी ऐसी हाजिरजवाबी और राष्ट्रभक्ति देख भारतीयों पर व्यंग्य करने वाला अँग्रेज अवाक रह गया।
हम सब जानते हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. राधाकृष्णन योगदान निसंदेह अविस्मरणीय है। वह जाने-माने विद्वान, प्रखर वक्ता, कुशल प्रशासक, सफल राजनयिक होने के साथ एक बेहद लोकप्रिय शिक्षक भी थे। अपने जीवन में अनेक उच्च पदों पर काम करते हुए भी वे शिक्षा के क्षेत्र में आजीवन योगदान करते रहे। उनका कहना था कि यदि सही तरीके से शिक्षा दी जाए तो समाज की अनेक बुराइयों को मिटाया जा सकता है। डॉ. राधाकृष्णन की स्पष्ट मान्यता थी कि मात्र जानकारियां देना शिक्षा नहीं है। यद्यपि जानकारी का अपना महत्व होता है और आधुनिक युग में तकनीक की जानकारी होना काफी महत्वपूर्ण भी है तथापि व्यक्ति के सर्वांगीण विकास में संतुलित बौद्धिक विकास और लोकतांत्रिक भावना बहुत जरूरी है। यही गुण व्यक्ति को एक उत्तरदायी नागरिक बनाती है। शिक्षा का मूल लक्ष्य है ज्ञान के प्रति समर्पण की भावना और निरंतर सीखते रहने की प्रवृत्ति। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो व्यक्ति को ज्ञान और कौशल दोनों प्रदान करती है तथा इनका जीवन में उपयोग करने का मार्ग प्रशस्त करती है। करुणा, प्रेम और श्रेष्ठ परंपराओं का विकास भी शिक्षा का उद्देश्य है। वे कहते थे कि शिक्षक जब तक शिक्षा के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध नहीं होता और शिक्षा को एक मिशन नहीं मानता तब तक अच्छी शिक्षा की कल्पना नहीं की जा सकती। उन्होंने अनेक वर्षों तक अध्यापन किया। एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। उनका कहना था कि शिक्षक उन्हीं लोगों को बनना जाना चाहिए जो सबसे अधिक बुद्धिमान,सहृदय व धैर्यवान हों। शिक्षक को मात्र अच्छी तरह अध्यापन करके ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए। सम्मान शिक्षक होने भर से नहीं मिलता, उसे अर्जित करना पड़ता है। शिक्षक का काम है ज्ञान को एकत्र करना या प्राप्त करना और फिर उसे बांटना। उसे ज्ञान का दीपक बनकर चारों तरफ अपना प्रकाश विकीर्ण करना चाहिए।
डॉ. राधाकृष्णन अपनी बुद्धिमतापूर्ण व्याख्याओं, आनंददायी अभिव्यक्ति और हंसाने, गुदगुदाने वाली कहानियों से अपने छात्रों को मंत्रमुग्ध कर दिया करते थे। वे छात्रों को प्रेरित करते थे कि वे उच्च नैतिक मूल्यों को अपने आचरण में उतारें। दर्शन जैसे गंभीर विषय को भी वे अपनी शैली की नवीनता से सरल और रोचक बना देते थे। 1962 में जब डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन देश के राष्ट्रपति रूप में पदासीन हुए तो उनके चाहने वाले शिष्यों द्वारा उनका जन्मदिन मनाने की इच्छा जाहिर करने पर डा. राधाकृष्णन ने कहा था कि यदि आप मेरे जन्मदिन को “शिक्षक दिवस” के रूप में मनाएंगे तो मैं खुद को काफी गौरवान्वित महसूस करूंगा। शिक्षा के व्यवसायीकरण के विरोधी डा.राधाकृष्णन विद्यालयों को ज्ञान के शोध केन्द्र, व संस्कृतिक मूल्यों को विकसित करने की टकसाल के रूप में गढ़ना चाहते थे। यह डा. राधाकृष्णन का बड़प्पन ही था कि राष्ट्रपति बनने के बाद भी वे वेतन के मात्र चौथाई हिस्से से जीवनयापन कर समाज को राह दिखाते रहे। हालांकि आजादी के बाद बीते कुछ वर्षों में शिक्षा के व्यावसायीकरण के बाद से शिक्षक-शिष्य की पुरातन समृद्ध परम्परा में तमाम बदलाव आ चुके हैं।
नयी शिक्षा नीति एक सकारात्मक पहल
विश्वगुरु भारत की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए भारत सरकार की नयी शिक्षा नीति को एक सकारात्मक पहल के रूप में देखा जाना चाहिए। देश के जाने माने शिक्षाविद् डॉ. जयंती प्रसाद नौटियाल कहते हैं कि मोदी जी के प्रधानमंत्रित्व काल में राष्ट्र निर्माण की दिशा में जो भी महत्वपूर्ण कार्य हो रहे हैं, उनमें नयी शिक्षा नीति एक अत्याधिक महत्वपूर्ण कार्य है। यह कार्य आगामी वर्षो में सबसे युवा देश को सही दिशा प्रदान करने वाला एवं नई वैश्विक चुनौतियों पर विजय प्राप्त करने वाला सिद्ध होगा। वस्तुतः राष्ट्र निर्माण की दिशा में यह एक क्रांतिकारी कदम है। भारत को सतत ऊंचाईयों की ओर बढ़ने की दृष्टि से अति आवश्यक है कि भारत का युवा देश की विभिन्न सामाजिक, सांस्कृतिक और तकनीकी आवश्यकताओं, देश की कला, भाषा और ज्ञान परंपराओं के बारे में ठोस ज्ञान प्राप्त करे। आजीविका और वैश्विक पारिस्थितिकी में तीव्र गति से आ रहे परिवर्तनों के कारण ये आवश्यक है कि देश का युवा इतना सक्षम हो कि विश्व पटल पर उसके आत्मविश्वास के सधे पांव कभी लड़खड़ाएं नहीं।
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