भारत की सनातन हिन्दू संस्कृति में प्राचीनकाल से ही नाग पूजा का प्रचलन रहा है। नाग को धरती का प्राचीनतम जीव माना गया है, जिन्हें कई स्थानों पर ‘लोक देवता’ की संज्ञा दी गई है। आज भी देश के कई हिस्सों में नाग देवता को ही ग्राम देवता, कुल देवता और स्थान देवता माना जाता है। वैदिक युग से भारतीय समाज में नागों के पूजन की परम्परा चली आ रही है और सावन महीने के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को ‘नाग पंचमी’ पर्व मनाया जाता है, जो इस वर्ष 9 अगस्त को मनाया जा रहा है। हिंदू पंचांग के अनुसार इस वर्ष नाग पंचमी के दिन कई अद्भुत योग बन रहे हैं, जिनमें शिववास योग, सिद्ध योग, साध्य योग, बव और बालव, करण योग शामिल हैं। शिववास योग में भगवान शिव कैलाश पर्वत पर मां पार्वती के साथ वास करते हैं और मान्यता है कि इस समय भगवान शिव, माता पार्वती, भगवान गणेश और कार्तिकेय के साथ नाग देवता की पूजा करने से सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है। सिद्ध और साध्य योग में भगवान शिव की पूजा करने से साधक को हर कार्य में सफलता प्राप्त होती है। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार नाग पंचमी इस बार हस्त नक्षत्र के शुभ संयोग में मनाई जाएगी।
हिंदू धर्म में नागों को देवता माना जाता है, इसीलिए नागपंचमी का त्योहार हिंदू धर्म में बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। इस दिन नाग देवता की पूजा की जाती है और संर्पदंश के भय से मुक्ति के लिए प्रार्थना की जाती है। मान्यता है कि इस दिन नाग देवता की पूजा करने से कई प्रकार के लाभ मिलते हैं। उत्तर भारत के कई गावों में नागपंचमी के दिन घर के मुख्य द्वार पर गाय के गोबर से नाग बनाकर उनकी पूजा की जाती है। मान्यताओं के अनुसार इस पूजा से सांप से जुड़े तमाम तरह के भय दूर होते हैं। नाग पूजा का संबंध लोगों के जीवन में खुशहाली और सुख-समृद्धि से भी जुड़ा है। नाग पंचमी के दिन कालसर्प दोष निवारण पूजा कराने का विशेष महत्व माना गया है। दरअसल किसी व्यक्ति की कुंडली में जब राहु और केतु के बीच सभी ग्रह आ जाते हैं, तब कालसर्प दोष बनता है और ऐसा माना जाता है कि इस योग में रहने वाले व्यक्ति को कभी अच्छा फल नहीं मिल पाता, उसे हमेशा किसी न किसी चीज की परेशानी रहती है। नागपचंमी के दिन विधि-विधान से पूजा करके कालसर्प दोष से मुक्ति मिलती है। मान्यता है कि नासिक के त्रयंबकेश्वर, औरंगाबाद के घृष्णेश्वर, उज्जैन के महाकालेश्वर आदि ज्योतिर्लिंगों में नागपचंमी के दिन विधि-विधान से पूजा-पाठ करवाने से कालसर्प दोष से मुक्ति मिलती है।
हिंदू पुराणों में नाग देवता को पाताल के स्वामी बताया गया है और चूंकि सावन के महीने में बारिश होने पर नाग भूगर्भ से भूतल पर आ जाते हैं, ऐसे में वे किसी अहित का कारण न बनें, इसके लिए भी नाग देवता को प्रसन्न करने के लिए नाग पंचमी की पूजा की जाती है। पूरे श्रावण महीने में और विशेष रूप से नागपंचमी के दिन भूमि की खुदाई करना भी निषिद्ध माना गया है ताकि खुदाई के दौरान अनजाने में किसी नाग को नुकसान न पहुंचे। नागों को क्षेत्रपाल के नाम से भी जाना जाता है और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी नाग अथवा सर्प कृषक मित्र जीव हैं, जो खेतों में चूहों तथा फसलों के लिए हानिकारक साबित होने वाले अन्य जीवों का भक्षण कर कृषि संपदा की रक्षा करते हैं, इसलिए भी नागों की पूजा की जाती है और नाग पंचमी के दिन खुदाई नहीं की जाती। इस दिन सर्पहत्या को घोर महापाप माना गया है।
नागपुर, उरगापुर, नागारखंड, नागवनी, अनंतनाग, शेषनाग, नागालैंड, भागसूनाग आदि भारत के कई शहरों के नाम नागों के आधार पर ही रखे गए हैं, जिसका अर्थ यही है कि इन क्षेत्रों में नाग देवता को सर्वाेपरि माना गया है। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में नागालैंड को तो नागवंशियों का मुख्य स्थान माना गया है। उत्तर और दक्षिण भारत में नाग देवता के कई प्राचीन मंदिर हैं। कर्नाटक के मंगलौर में स्थित कुकी सुब्रह्मण्यम् मंदिर तो काफी प्रसिद्ध नाग मंदिर है। माना जाता है कि मूलतः शैव, शाक्त, नाथ और नाग पंथियों और उनसे जुड़े उप-संप्रदायों में ही नागों की पूजा का प्रचलन था लेकिन वर्तमान में सभी संप्रदाय के लोग नाग पूजा करते हैं। बाली द्वीप पर वासुकि नाग को समुद्र का देवता माना जाता है। श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं ‘सर्पाणामस्मिवासुकि’ यानी सर्पों में मैं वासुकि हूं। मान्यता है कि समुद्र मंथन के समय अमृत प्राप्ति के लिए देवताओं और दानवों ने वासुकि नाग को ही मथानी की रस्सी की तरह उपयोग किया था और जगत कल्याण के लिए वासुकि नाग ने रस्सी के रूप में स्वयं को समर्पित कर अपना महान योगदान दिया था।
नागों का अस्तित्व अनादिकाल से ही देवी-देवताओं के साथ वर्णित है। हिंदू धर्म की मान्यताओं के अनुसार भगवान शिव ने वासुकि नाग को अपने गले में रखकर और भगवान विष्णु ने शेषनाग पर शयन करके नाग के महत्व को दर्शाया है। नागों को अपने जटाजूट तथा गले में धारण करने के कारण ही भगवान शिव को काल का देवता भी कहा गया है। जैन धर्म में भी पार्श्वनाथ को शेषनाग पर बैठा हुआ दर्शाया गया है। इसी प्रकार बौद्ध देवताओं के सिर पर भी ‘शेष’ छत्र होता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार हमारी धरती शेषनाग के फन पर ही टिकी हुई है और स्वयं भगवान विष्णु समुद्र में शेषनाग की शैय्या पर विराजते हैं। नाग वंशावलियों में शेषनाग को नागों का प्रथम राजा माना जाता है। शेषनाग को ही ‘अनंत’ नाम से भी जाना जाता है। इसी तरह आगे चलकर शेषनाग के बाद वासुकि हुए, फिर तक्षक और पिंगला। मान्यताओं के अनुसार वासुकि का कैलाश पर्वत के पास ही राज्य था जबकि तक्षक ने तक्षकशिला (तक्षशिला) बसाकर अपने नाम से ‘तक्षक’ कुल चलाया था। वासुकि, तक्षक और पिंगला, तीनों की गाथाएं पुराणों में भी मिलती हैं। उनके बाद ही कर्काेटक, ऐरावत, धृतराष्ट्र, अनत, अहि, मनिभद्र, अलापत्र, कम्बल, अंशतर, धनंजय, कालिया, सौंफू, दौद्धिया, काली, तखतू, धूमल, फाहल, काना इत्यादि नामों से नागों के वंश हुए। अग्नि पुराण में 80 प्रकार के नाग कुलों का वर्णन मिलता है, जिसमें वासुकि, तक्षक, पद्म, महापद्म प्रसिद्ध हैं।
नाग पंचमी पर नागों को दूध पिलाने की परंपरा भी देखी जाती है लेकिन विशेषज्ञों के मुताबिक नाग को दूध पिलाने के कुछ ही दिन में उसकी मृत्यु हो जाती है। विज्ञान के अनुसार नाग को कभी दूध नहीं पिलाना चाहिए। दरअसल नाग एक रेप्टाइल जीव हैं, न कि स्तनधारी और कोई भी रेप्टाइल जीव दूध को हजम नहीं कर सकता, इससे उसकी मृत्यु हो जाती है, इसलिए नाग पंचमी के दिन नागों को दूध पिलाने के प्रयास से बचना चाहिए। वास्तव में शास्त्रों में भी नाग को दूध पिलाने के लिए नहीं बल्कि दूध से स्नान कराने को कहा गया है। इस संबंध में एक प्रचलित कथा के अनुसार एक बार एक श्राप के कारण नागलोक जलने लगा था, तब नागों पर दूध चढ़ाकर उनकी जलन को शांत किया गया था, उस दिन पंचमी तिथि थी। मान्यता है कि तभी से पंचमी तिथि पर ही नागों को दूध से नहलाने की प्रथा चली आ रही है।
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