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प्राचीन सभ्यताओं का संगम

डिब्रूगढ़ में आई.सी.सी.एस. ने आयोजित किया आठवां अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन। इसमें 33 देशों के प्रतिनिधियों ने एक-दूसरे की प्रथाओं और परंपराओं को जानने और समझने का प्रयास किया

by रवि शंकर
Feb 22, 2024, 03:24 pm IST
in भारत, असम, संस्कृति
सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में अतिथियों के साथ (बाएं से) श्री हेमंत बिस्व सरमा और श्री मोहनराव भागवत

सम्मेलन के उद्घाटन सत्र में अतिथियों के साथ (बाएं से) श्री हेमंत बिस्व सरमा और श्री मोहनराव भागवत

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विश्व की प्राचीन सभ्यताओं के वाहकों का भी जुटान हुआ, जिन्हें ‘एल्डर’ कहा जाता है। सम्मेलन का मुख्य विषय था- साझा स्थायी विकास और जीवंत प्राचीन संस्कृतियां। विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में व्याप्त स्थायी विकास के बिंदुओं में साझापन तलाशने के लिए यह सम्मेलन आयोजित किया गया।

गत दिनों शिक्षा वैली स्कूल, डिब्रूगढ़ (असम) में इंटरनेशनल सेंटर फॉर कल्चरल स्टडीज (आई.सी.सी.एस.) ने पांच दिवसीय अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। इस अवसर पर विश्व की प्राचीन सभ्यताओं के वाहकों का भी जुटान हुआ, जिन्हें ‘एल्डर’ कहा जाता है। सम्मेलन का मुख्य विषय था- साझा स्थायी विकास और जीवंत प्राचीन संस्कृतियां। विश्व की प्राचीन संस्कृतियों में व्याप्त स्थायी विकास के बिंदुओं में साझापन तलाशने के लिए यह सम्मेलन आयोजित किया गया।

सम्मेलन का उद्घाटन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत तथा असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने किया। उद्घाटन से पूर्व एक शोभायात्रा भी निकाली गई। इसमें विदेशों से आए विभिन्न समुदायों के लोग अपनी पारंपरिक वेशभूषा तथा वाद्ययंत्रों के साथ शामिल हुए। इनके साथ पूर्वोत्तर के कुछ जनजातीय समुदाय भी थे।

सम्मेलन को संबोधित करते हुए श्री मोहनराव भागवत ने कहा कि आज विश्व में भरपूर भौतिक विकास हुआ है और समृद्धि आई है, परंतु इसके साथ-साथ ढेर सारी समस्याएं भी बढ़ी हैं। इनका एकमात्र समाधान है आध्यात्मिक एकात्मता की भारतीय दृष्टि। पूरे विश्व को एकात्म भाव से देखने की भारतीय दृष्टि से ही समस्त वैश्विक समस्याओं का समाधान संभव है। उन्होंने कहा कि समस्याओं का समाधान करने के लिए विभिन्न सिद्धांतों और वादों का निर्माण किया गया, परंतु उससे अधिक लाभ नहीं हुआ। उन्होंने यह भी कहा कि भारत की यह एकात्म दृष्टि विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं में प्राप्त होती है। उसका संरक्षण और संवर्धन आवश्यक है।

आज विश्व में भरपूर भौतिक विकास हुआ है और समृद्धि आई है, परंतु इसके साथ-साथ ढेर सारी समस्याएं भी बढ़ी हैं। इनका एकमात्र समाधान है आध्यात्मिक एकात्मता की भारतीय दृष्टि। पूरे विश्व को एकात्म भाव से देखने की भारतीय दृष्टि से ही समस्त वैश्विक समस्याओं का समाधान संभव है। – मोहनराव भागवत

 प्राचीन संस्कृतियां और परंपराएं संग्रहालय में रखने की वस्तु या फिर केवल पुस्तकों में पढ़ने के विषय मात्र नहीं हैं। ये जीवंत परंपराएं हैं। आज की वैश्विक व्यवस्था का भाग हैं और इसलिए वैश्विक नीतियों के निर्माण में इनकी भूमिका होनी चाहिए।
-दत्तात्रेय होसबाले  

अरुणाचल प्रदेश की सांस्कृतिक विविधता का उल्लेख करते हुए उनके बीच के सामंजस्य को रेखांकित किया और यह भी बताया कि किस प्रकार उनकी सरकार इस सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है। -मुख्यमंत्री पेमा खांडू 

उन्होंने इन प्राचीन समुदायों के प्रमुखों की प्रशंसा करते हुए कहा कि भरपूर विरोधी वातावरण में भी उन्होंने सभ्यता की अपनी परंपरा को जीवित रखा है और इसके लिए वे बधाई के पात्र हैं। हिमंत बिस्व सरमा ने कहा कि असम सांस्कृतिक वैविध्य का ज्वलंत प्रतीक है, परंतु आज यहां की मौलिक तथा प्राचीन संस्कृति खतरे में है। कन्वर्जन और सांस्कृतिक परावर्तन जैसी समस्याएं उनके अस्तित्व के लिए संकट का निर्माण कर रही हैं। उन्होंने कहा कि असम सरकार असम की प्राचीन संस्कृति और उसके वाहक समुदायों की रक्षा के लिए सतत् प्रयत्नशील है।

सम्मेलन की विशेषता थी विश्व के प्राचीन समुदायों का जीवंत प्रदर्शन। यहां केवल भाषण और शोधपत्रों का वाचन नहीं हुआ, बल्कि प्राचीन परंपराओं का प्रत्यक्ष प्रदर्शन भी किया गया। प्रतिदिन सम्मेलन का प्रारंभ इन प्राचीन समुदायों की उपासना से ही किया गया। लगभग डेढ़ घंटे के इस सत्र में विश्व के अलग-अलग समुदाय अपनी परंपरा के अनुसार प्रार्थना और उपासना करते थे और उनके साथ सम्मेलन में आए सभी प्रतिनिधि भी उसमें सहभागी होते थे। इन विभिन्न उपासना पद्धतियों और उनकी प्रार्थनाओं में एक साझा बात जो देखने में आई, वह थी अग्नि, सूर्य तथा अपने पूर्वजों आदि की उपासना।

लगभग सभी पद्धतियों में अग्नि की पूजा की जाती थी और आर्मेनिया, लिथुआनिया आदि यूरोपीय देशों से लेकर कोलंबिया, बोलिविया आदि दक्षिण अमेरिकी देशों तथा अफ्रीकी देशों तक की परंपराओं में भी अग्नि में आहुति देने की परंपरा देखी गई। सभी समुदाय अपनी-अपनी भाषा में अग्नि की स्तुति करते हुए उसमें आहुति प्रदान करते थे। आहुति की सामग्री भी स्थानीय होती थी, परंतु उसमें एक समानता फिर भी दिखती थी और वह थी सुगंधित पदार्थों की। सम्मेलन की दूसरी विशेषता थी सायंकाल होने वाली कार्यशालाएं। इनमें विश्व के विभिन्न समुदायों की सांस्कृतिक परंपराओं का प्रदर्शन हुआ और सम्मेलन के प्रतिभागी अपनी रुचियों के अनुसार विभिन्न कार्यशालाओं में सहभागी हुए। उदाहरण के लिए कोलंबिया की कथावार्ता परंपरा की कार्यशाला में कोलंबिया में प्रचलित कहानी कहने की प्राचीन परंपरा को प्रदर्शित किया गया।

ग्रीस की कार्यशाला में वहां सूर्योपासना के प्रकारों के बारे में बताया गया, तो विएतनाम की चाम परंपरा की कार्यशाला में उनकी पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों की जानकारी दी गई। दक्षिण अफ्रीका के जुलू समुदाय में पारिवारिक व्यवस्थाओं पर कार्यशाला में जानकारी दी गई तो, घाना की कार्यशाला में उनके पारंपरिक भजनों के साथ घाना के प्रतिभागियों ने भारतीय भजन भी प्रस्तुत किए। नेपाल की कार्यशाला में वहां की पारंपरिक ध्वनि चिकित्सा का प्रदर्शन किया गया तो लिथुआनिया की कार्यशाला में अग्नि और पृथ्वी माता की स्तुतियों की परंपरा पर चर्चा की गई। अन्य कार्यशालाओं में दक्षिण अमेरिका की माया और जापान की शिंतो परंपराओं की जानकारी दी गई, तो किसी कार्यशाला में आर्मेनिया और न्यूजीलैंड के पारंपरिक माओरी नृत्य शैलियां सिखाई गईं।

‘रिवाच’ एक शोध संस्थान है, जहां प्राचीन संस्कृतियों के ज्ञान के संरक्षण और संवर्धन के लिए शोध कार्य किया जाता है। यहां पर प्राचीन विश्व संस्कृतियों का एक संग्रहालय भी है। सम्मेलन में आए अनेक प्रतिनिधियों ने अपने समुदाय की कुछ पारंपरिक वस्तुएं यहां के संग्रहालय के लिए दान भी कीं।

प्रतिभागियों ने बहुत ही उत्साह के साथ इन परंपराओं को जानने का प्रयास किया, नृत्य में सहभागी हुए, उनके गीत गाए और उपासना की विभिन्न पद्धतियों में उपासना की, विश्व की विभिन्न भाषाओं में प्रार्थनाओं और स्तुतियों का गायन किया। यह सब कुछ एक चकित कर देने वाला दृश्य था, जो आज के संघर्षशील विश्व में दुर्लभ है। सभ्यताओं के संघर्ष की स्थापना देने वाली वैश्विक व्यवस्था को यह आयोजन एक चुनौती देता हुआ प्रतीत हो रहा था कि हम आज भी संवाद और सहअस्तित्व की बात कर रहे हैं, संघर्ष की नहीं।

सम्मेलन के चौथे दिन अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पेमा खांडू ने अपने संबोधन में अरुणाचल प्रदेश की सांस्कृतिक विविधता का उल्लेख करते हुए उनके बीच के सामंजस्य को रेखांकित किया और यह भी बताया कि किस प्रकार उनकी सरकार इस सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण के लिए प्रतिबद्ध है। इस दिन के अंतिम सत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि यहां उपस्थित प्राचीन संस्कृतियां और परंपराएं संग्रहालय में रखने की वस्तु या फिर केवल पुस्तकों में पढ़ने के विषय मात्र नहीं हैं। ये जीवंत परंपराएं हैं। आज की वैश्विक व्यवस्था का भाग हैं और इसलिए वैश्विक नीतियों के निर्माण में इनकी भूमिका होनी चाहिए।

सम्मेलन के आखिरी दिन सभी प्रतिनिधि आई.सी.सी.एस. की ही एक परियोजना ‘रिवाच’ को देखने के लिए गए, जो कि अरुणाचल प्रदेश के रोइंग नामक स्थान में है। ‘रिवाच’ एक शोध संस्थान है, जहां प्राचीन संस्कृतियों के ज्ञान के संरक्षण और संवर्धन के लिए शोध कार्य किया जाता है। यहां पर प्राचीन विश्व संस्कृतियों का एक संग्रहालय भी है। सम्मेलन में आए अनेक प्रतिनिधियों ने अपने समुदाय की कुछ पारंपरिक वस्तुएं यहां के संग्रहालय के लिए दान भी कीं। परस्पर आत्मीयता और एकात्मता को अनुभूत करते हुए सभी प्रतिनिधि एक-दूसरे के साथ संपर्क बनाए रखने के संकल्प के साथ इस सम्मेलन से विदा हुए।

Topics: मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमासूर्योपासनापाञ्चजन्य विशेषप्राचीन संस्कृतियांराष्ट्रीय स्वयंसेवक संघरिवाचRashtriya Swayamsevak SanghAncient CulturesसरसंघचालकSuryopasnaश्री मोहनराव भागवतRivachSarsanghchalakShri Mohanrao BhagwatChief Minister Himanta Biswa Sarma
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