‘कृष्ण दूर करते हैं जीवनपथ से कांटे’ 
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‘कृष्ण दूर करते हैं जीवनपथ से कांटे’ 

कृष्ण का चरित्र निभाने के बाद आपमें क्या बदलाव आया। परिवर्तन केवल पात्र को निभाने भर से नहीं आता। जीवन में केवल गुलाब की पंखुड़ियों भरे रास्ते ही नहीं होते, उसके साथ कांटे भी होते हैं। जब भी मुझे मेरे जीवन पथ में कांटा चुभा, मैंने केवल बिहारी जी की शरण ली है। 

by हितेश शंकर
Jan 25, 2024, 07:21 am IST
in भारत, साक्षात्कार, दिल्ली
अभिनेता नीतीश भारद्वाज

अभिनेता नीतीश भारद्वाज

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सुप्रसिद्ध धारावाहिक महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण का अभिनय कर चुके अभिनेता नीतीश भारद्वाज पाञ्चजन्य के ‘बात भारत की’  समागम में शामिल हुए। यहां प्रस्तुत हैं पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर की उनके साथ हुई विशेष बातचीत के प्रमुख अंश 

इस कार्यक्रम के लिए दिल्ली आने पर आप पहले वृंदावन में बांके बिहारी मंदिर में दर्शन करने के लिए गए थे। ‘कृष्ण’ का कृष्ण से साक्षात्कार कैसा रहा?
लोग अक्सर मुझसे पूछते हैं कि आपको तो पूरी गीता कंठस्थ होगी, तो मैं उन्हें एक ही जवाब देता हूं कि मेरे घर में एक तोता है, उसे पूरी गीता कंठस्थ है। अध्यात्म कंठस्थ होना एक बात है, लेकिन ये काफी नहीं होता। उसको कंठस्थ करके अपने जीवन में उतारें तभी हम कह सकते हैं कि हमने जीवन में कुछ सीखा है। लोग मुझसे पूछते हैं कि कृष्ण का चरित्र निभाने के बाद आपमें क्या बदलाव आया। परिवर्तन केवल पात्र को निभाने भर से नहीं आता। जीवन में केवल गुलाब की पंखुड़ियों भरे रास्ते ही नहीं होते, उसके साथ कांटे भी होते हैं। जब भी मुझे मेरे जीवन पथ में कांटा चुभा, मैंने केवल बिहारी जी की शरण ली है।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम और नटखट कृष्ण में क्या अंतर देखते हैं? 
विष्णु पुराण में दोनों का अंतर बहुत ही स्पष्ट है। विष्णु पुराण मानव उद्धार का द्योतक है। मत्स्य अवतार, कूर्म, वराह, नृसिंह और परशुराम अवतार के बाद मर्यादा पुरुषोत्तम राम जी का अवतार हुआ। हर अवतार अपने जीवन से कुछ ना कुछ मानवीय मूल्य प्रस्तुत करता है। राम का अवतार त्रेता युग में मर्यादा की स्थापना के लिए हुआ था।
फिर द्वापर युग में बदलते काल के अनुसार, नई मर्यादाओं को स्थापित करने के लिए पूर्ण पुरुषोत्तम (श्रीकृष्ण) आए। उन्होंने कोई मर्यादा नहीं रखी, क्योंकि सामने कोई रावण नहीं था। हमें जीवन में राम और कृष्ण को साथ लेकर चलना पड़ता है। हमें कुछ जगह राम बनकर जीना पड़ता है तो कुछ जगह कृष्ण बनकर। श्रीकृष्ण को लीला पुरुषोत्तम कहा गया है। उनका हर कृत्य एक बड़े उद्देश्य के लिए था और वह था मानवता के लिए नए मूल्य स्थापित करना।

राम जी को नया घर मिल रहा है, मथुरा में कान्हा क्या कह रहे हैं? 
राम जी को उनका अपना घर मिल रहा है, वह नया घर नहीं है, उनका घर वहीं है, जहां उनका जन्म हुआ था। मैं पूछूंगा बिहारी जी से कि अपने नए घर के बारे में कुछ बताइए। पूछूंगा कि आपको भी आपका घर दिया जाए क्या? अगर वह हां करते हैं तो उस दिशा में प्रयास किए जाएंगे। घर तो उन्हें मिलना ही चाहिए। वह जैसे ही मुझे यह बताएंगे तो सबसे पहले मैं पाञ्चजन्य को ही बताऊंगा।
देखिए, जन्म स्थान का अपना महत्व होता है। अन्य रिलीजन वाले अपने पवित्र स्थानों के लिए नहीं लड़ते हैं क्या? तो यदि हम हमारे बिहारी जी का हक मांगें तो इसमें आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
कृष्ण की कथा हमारा इतिहास है। पुरातत्वविदों ने इसके सबूत दिए हैं। गोवा में पणजी के नेशनल इंस्टीट्यूट आफ ओशियनोग्राफी के एस.आर. राव ने द्वारिका का उत्खनन किया, जिसमें द्वापर युग में कृष्ण के साम्राज्य के है।

मेरे जन्म की राशि वही है जो कृष्ण जी की है। तो कृष्ण जी ने मुझसे वही सारा काम करवाया है, जो उन्हें कराना था। कान्हा ने नंद बाबा के पास गाय चराईं, गायों को दूहा। मैं पशु चिकित्सक बना, पशुओं का इलाज किया। राजनीति में गया, अब अध्यात्म साध रहा हूं। मैं इसे आत्मसात करने की कोशिश कर रहा हूं कि कृष्ण का अर्थ क्या है? जीवन एक ऐसा विद्यालय है, जो मुझे सारे अवसर प्रदान कर रहा है। हर नया कांटा चुभने पर मैं कृष्ण की शरण में जाता हूं, उनसे मार्गदर्शन लेता हूं। कृष्ण बनने का प्रयास करता हूं। 

क्या कृष्ण को जीवन में आत्मसात कर पाना आसान है? 
जीवन में कुछ भी असंभव नहीं है। कांटे लगने पर बहुत से लोग अवसादग्रस्त हो जाते हैं, कुछ नशा करने लगते हैं। ऐसे में संस्कार और अध्यात्म का बड़ा महत्व है। जब भी कांटा लगे तो आप उस राह (अध्यात्म) को पकड़ लें। जब हमारे जीवन में कोई समस्या आती है और हम उससे एकाकार कर लेते हैं तो समाधान नहीं मिलता। हमें जीवन में निस्पृह भाव से रहना चाहिए, जैसे कमल का पत्ता पानी में रहने के बाद भी उससे अछूता रहता है।

महाभारत धारावाहिक के दौरान पर्दे पर जो हुआ, वह तो देखा, लेकिन पर्दे के पीछे क्या रहा, उसके बारे में बताएं? 
बीआर चोपड़ा समेत हम सबकी यही सोच थी कि इस धारावाहिक से पैसा नहीं कमाना है। हम सबके के मन में था कि हम कोई महान कार्य करने जा रहे हैं। महाभारत मानवीय जीवन का दर्पण है, मानबिन्दु है। हमने आने वाली पीढ़ियों को ध्यान में रखकर काम किया। मेरे सामने की बात है कि चोपड़ा साहब और डॉ. राही मासूम रजा ने इस बीच कई फिल्मों को नकार दिया। केवल इसलिए कि वे महाभारत के लिए काम कर रहे थे। कई निर्माता पैसे लेकर आए भी, लेकिन अगर हमारे जीवन का उद्दिष्ट केवल ‘अर्थ’ हो जाएगा, तो हम ‘मोक्ष’ तक नहीं जा पाएंगे। हमारी टीम ने ‘अर्थ’ को किनारे कर ‘धर्म’ को ऊपर रखा।

आप एक पशु चिकित्सक थे कि अचानक कला के क्षेत्र में आ गए। महाभारत में कृष्ण की भूमिका निभाई फिर  राजनीति में गए। पथ में यह बार-बार बदलाव क्यों हुआ?
मेरे जन्म की राशि वही है जो कृष्ण जी की है। तो कृष्ण जी ने मुझसे वही सारा काम करवाया है, जो उन्हें कराना था। कान्हा ने नंद बाबा के पास गाय चराईं, गायों को दूहा। मैं पशु चिकित्सक बना, पशुओं का इलाज किया। राजनीति में गया, अब अध्यात्म साध रहा हूं। मैं इसे आत्मसात करने की कोशिश कर रहा हूं कि कृष्ण का अर्थ क्या है? जीवन एक ऐसा विद्यालय है, जो मुझे सारे अवसर प्रदान कर रहा है। हर नया कांटा चुभने पर मैं कृष्ण की शरण में जाता हूं, उनसे मार्गदर्शन लेता हूं। कृष्ण बनने का प्रयास करता हूं।

लोग आज भी आपको कृष्ण की तरह ही देखते हैं। कैसा महसूस होता है?
मैं यह देखकर भाव विभोर हो जाता हूं कि उस धारावाहिक को खत्म हुए 33 वर्ष बीत चुके हैं। लेकिन इतने वर्ष बाद भी लोगों के मन में ऐसा भाव हृदय को छू जाता है।

आपके जमाने की रामायण और महाभारत के बाद भी टीवी पर रामायण और महाभारत पर कुछ धारावाहिक आए। लेकिन उनका वैसा असर नहीं दिखा। इसकी क्या वजह मानते हैं? 
उनमें भाव और अनुसंधान की कमी रही। अब टीवी में पैसा बहुत आ गया है। तब पैसा नहीं था। एक एपिसोड के लिए केवल 6 लाख रुपए मिलते थे। जबकि, आज टीवी/ओटीटी में इतना पैसा है कि कोई 100 या 200 करोड़ के नीचे बात ही नहीं करता है। आज पैसे को ज्यादा महत्व दिया जाता है।

ओटीटी के लिए मर्यादा की लक्ष्मणरेखा कहां है? भाव की बजाय ‘बाजार भाव’ इस वैचारिक स्खलन को कहां 
लेकर जाएगा?
ओटीटी पर कोई नियंत्रण नहीं है। जब मैं सांसद था तो 1997 में प्रसार भारती एक्ट बनाने के लिए एक संयुक्त संसदीय समिति बनी थी जिसका मैं भी एक सदस्य था। नि:संदेह हमारी सभ्यता और संस्कृति को मद्देनजर रखते हुए सरकार एक नियंत्रण रेखा बनाए। ध्यान रखना होगा, हम भारत हैं, अमेरिका नहीं।

 राजनीति में आने के लिए कैसे प्रेरित हुए ? 
मेरे पिता समाजसेवी थे, जॉर्ज फर्नांडीज के सहयोगी भी थे। मेरे जन्म के समय मेरे पिताजी और जॉर्ज फर्नांडीज नासिक जेल में बंद थे। उन्होंने नेहरू जी की चीन नीति का विरोध करते हुए 1962 में उनके मुंबई आने पर काले झंडे दिखाए थे। मैं जब लंदन में बीबीसी में काम करता था तब अयोध्या की 6 दिसंबर 1992 की घटना बीबीसी पर देखी थी। पश्चिमी मीडिया में भारत का गलत चित्रण बहुत खटका था।1995 में मैं लंदन छोड़कर भारत लौटा, फिर भाजपा से जुड़ गया। अब जो हूं, वह किसी से छुपा नहीं है।

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