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कौन बनेगा भारत का अब्दुल वहाब चासबुल्लाह!

वर्तमान समय के विमर्शों से मिले संदेशों से पता चलता है कि यह इस्लामी समाज में मंथन का दौर है, लेकिन इसे तार्किक परिणति तक ले जाने की जरूरत है। क्या मुस्लिम नेतृत्व समय के इस संवेदनशील अवसर पर जागेगा और भारतीय मुसलमानों को भी आधुनिक बनाएगा? क्या उनके इस्लाम का पालन करते हुए भी भारतीय मुख्यधारा के साथ सामंजस्यपूर्ण तरीके से रहने में मदद करने के लिए एक साहसिक नया ढांचा तैयार करेगा

रतन शारदा by रतन शारदा
Jul 28, 2022, 12:32 pm IST
in भारत, विश्लेषण
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इस्लामी मान्यताओं पर शोध करने के दौरान मुझे अब्दुल वहाब चासबुल्लाह और हासीम अस्यारी को पढ़ने का मौका मिला। इंडोनेशिया में इन इस्लामी विद्वानों ने 1926 में ‘नहदतुल उलमा’ नाम के एक संगठन की स्थापना करते हुए रूढ़िवादी इस्लाम के खिलाफ अपने संघर्ष की शुरुआत की थी जिसका अर्थ है ‘इस्लामिक विद्वानों का पुर्नजागरण’।

मैं कुछ इस्लामिक विद्वानों से मिला हूं जो चाहते हैं कि ‘उग्रपंथी मजहब’ बनाम ‘अमनपंथी मजहब’ पर मंथन हो। वे इस्लाम की उस छवि को बदलने की कोशिश कर रहे हैं, जो एक अभेद्य चारदीवारी से घिरा है, जिसके अंदर मजहब संबंधी मान्यताओं पर सवाल उठाना या तेजी से बदलती आधुनिक दुनिया के मद्देनजर इस्लाम की नई व्याख्या करने का प्रयास भी वर्जित है। यह हम पर निर्भर करता है कि हम शांति से एक साथ रहें या हमेशा लड़ने के लिए उतारू रहें।

इस्लामी मान्यताओं पर शोध करने के दौरान मुझे अब्दुल वहाब चासबुल्लाह और हासीम अस्यारी को पढ़ने का मौका मिला। इंडोनेशिया में इन इस्लामी विद्वानों ने 1926 में ‘नहदतुल उलमा’ नाम के एक संगठन की स्थापना करते हुए रूढ़िवादी इस्लाम के खिलाफ अपने संघर्ष की शुरुआत की थी जिसका अर्थ है ‘इस्लामिक विद्वानों का पुर्नजागरण’। शायद, उन्हें इस बात का आभास था कि आने वाले समय में इंडोनेशिया की सामंजस्यपूर्ण लोकसंस्कृति पर कट्टर रूढ़िवादी विचारधारा का वर्चस्व हो जाएगा।

हम इस बात से इनकार नहीं कर सकते हैं कि वहां के समाज में भारतीय संस्कृति के सामंजस्यपूर्ण सह-अस्तित्व के सिद्धांत का बड़ा प्रभाव है जिसे बनाए रखने में विभिन्न शासक, राजनीतिक दल और संगठन हमेशा प्रयासरत रहे। हम जानते हैं कि वहां रामलीला के मंचन में ज्यादातर मुसलमान भाग लेते हैं। भगवान गणेश इंडोनेशिया की मुद्रा पर सुशोभित हैं। उनकी राष्ट्रीय विमानसेवा को गरुड़ कहा जाता है। उनके नेताओं और नागरिकों के सुंदर हिन्दू नाम हैं जैसे ‘सुकर्णो’ की बेटी मेघावती। महत्वपूर्ण सार्वजनिक हस्तियां हिंदू धर्म में परिवर्तित हो रही हैं। इस इस्लामी राष्ट्र में बाली एक शांत हिंदू बहुल राज्य बना हुआ है, हालांकि इस द्वीप की जनसांख्यिकी को बदलने के लिए कट्टरपंथी तत्वों के प्रयास जारी हैं। बांग्लादेश और भारत के मौलवियों की ओर से भड़काया गया कट्टरपंथी इस्लाम धीरे-धीरे अपनी जड़ें फैला रहा है, लेकिन इंडोनेशिया ने चरमपंथ के ज्वार के बीच अपने उदार इस्लामी समाज को एक मजबूत दुर्ग के जैसे कायम रखा है।

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तुर्की और मिस्र के उदाहरण
इस्लामिक देश को सेक्युलर देश में बदलने के प्रयासों के पहले उदाहरण मिस्र और तुर्की थे। कमाल अतातुर्क पाशा मुस्लिम शासकों में सबसे सख्त थे जिन्होंने तुर्की को एशिया की अपेक्षा यूरोप की तरह एक आधुनिक सेक्युलर देश में बदलने की पूरी कोशिश की। यूरोप का ‘आधुनिक’ सफल स्वरूप उनकी प्रेरणा था और वह वैसे स्वरूप को ही अपनाना चाहते थे। सिर्फ भारतीय रूढ़िवादी मौलानाओं, जिन्हें गांधी जी और कांग्रेस का समर्थन प्राप्त था, ने उनका विरोध किया और खलीफा को समर्थन दिया था।

तुर्की का प्रयोग लगभग 9 दशकों तक अच्छे परिणाम देता रहा, लेकिन बाद में तुर्की के उसी सेक्युलर लोकतांत्रिक संविधान का इस्तेमाल कर इस्लामिक ब्रदरहुड ने सत्ता की कमान अपने हाथों में ले ली थी। आज पुराना रूढ़िवादी इस्लाम धीरे-धीरे अपने पैर जमाने लगा है और एर्दोगन इस्लामी दुनिया के नए खलीफा बनने की पुरजोर कोशिश में लगे हैं, जबकि सलाफीवादी इस्लाम का बुनियादी समर्थक सऊदी अरब धीरे-धीरे अपनी विरासत छोड़ते हुए अपेक्षाकृत खुले समाज के विकास की ओर अग्रसर है।

जमाल अब्देल नासिर ने मिस्र को आधुनिक और सेक्युलर बनाने की कोशिश की, जिसका इस्लाम के आगमन से पहले एक गौरवशाली इतिहास और संस्कृति रही है। लेकिन आज यह कट्टरपंथी इस्लामिक ब्रदरहुड को दूर रखने के लिए लगातार संघर्षरत है। फिर भी मुस्लिम ब्रदरहुड की जड़ें मिस्र के समाज में मजबूत पकड़ बनाती जा रही हैं। ईरान ने अपनी गौरवशाली फारसी या पारसी सभ्यता को इस्लामी आक्रमणकारियों द्वारा कुचलते हुए देखा था। 54 साल पहले शाह रजा पहलवी के शासन में यह आधुनिकता की ओर बढ़ता देश था, लेकिन रूढ़िवादी शिया मौलवियों ने उनकी सत्ता ध्वस्त कर दी और कमान कट्टर इस्लामी शासन को सौंप दी। ये सभी देश विस्तारित अरब क्षेत्र का हिस्सा थे और उन पर लड़ाकू इस्लामी आक्रमणकारियों और उनके साम्राज्यों का भारी प्रभाव था।

इंडोनेशिया, हालांकि, अरब से तो बहुत दूर है और इस पर भारतीय सभ्यता का प्रभाव भी अधिक है। लगभग 30 साल पहले के भारत की तरह, इसने पोशाक और आचार संहिता के मामले में मुस्लिम पहचान का सार्वजनिक प्रदर्शन नहीं किया था। भारत की ही तरह यहां केवल पूजा का तरीका अलग था लेकिन परंपराएं और संस्कृति इंडोनेशियाई बनी रहीं। कट्टरपंथी इस्लामवादियों के तमाम प्रयासों के बावजूद, इंडोनेशिया अपनी आस्था और संस्कृति के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से चिह्नित करता है। इन दो भावों का अपना अलग स्वतंत्र अस्तित्व है, इसमें कोई भ्रम नहीं। याद रखें, इंडोनेशिया दुनिया का सबसे बड़ा, सबसे अधिक आबादी वाला इस्लामी राष्ट्र है।

नहदतुल उलमा की स्थापना एक अन्य सफल ‘सुधारवादी’ संगठन, मुहम्मदिया के जवाब में की गई थी। विकिपीडिया के अनुसार-इस संगठन की स्थापना 1912 में योग्यकार्ता शहर में अहमद दहलान द्वारा एक सुधारवादी सामाजिक-मजहबी आंदोलन के रूप में की गई थी, जिसमें इज्तिहाद-तकलीद, (उलमा द्वारा प्रस्तावित पारंपरिक व्याख्या) के विपरीत कुरान और सुन्नत की व्यक्तिगत व्याख्या की वकालत की गई थी। इसने इंडोनेशिया में सलाफीवाद के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

नहदतुल उलमा इंडोनेशियाई राष्ट्रीयता के पंचशिला सिद्धान्त को स्वीकार करता है। ये पांच सिद्धांत इस प्रकार हैं- इंडोनेशियाई राष्ट्रवाद; अंतरराष्ट्रीयवाद या मानवतावाद; सहमति या लोकतंत्र; सामाजिक समृद्धि; और एक ईश्वर में विश्वास।

इस्लामी विद्वानों का पुनर्जागरण
मैं यहां नहदतुल उलमा के बारे में इन्साइक्लोपीडिया.कॉम से उद्धृत
करता हूं – नहदतुल उलमा (एनयू) (मजहबी विद्वानों का पुनर्जागरण) का गठन 31 जनवरी 1926 को तेजी से सफल हो रहे सुधारवादी मुहम्मदिया संगठन के जवाब में हुआ था। एनयू उलेमा के नेतृत्व में गठित एक जन-आधारित सामाजिक-मजहबी इस्लामी संगठन है जिसके सदस्यों की संख्या करीब 3.5 करोड़ है। इस तरह यह इंडोनेशिया का सबसे बड़ा संगठन है (अनुमान है कि वर्तमान सदस्यता लगभग 4 से 9 करोड़ है)। एनयू की गतिविधियों में मजहबी, सामाजिक, शैक्षिक, आर्थिक और राजनीतिक विषय शामिल हैं। इसके संस्थापक उलेमा (इंडोनेशिया में जिसे कियाई कहा जाता है) थे जो ग्रामीण इस्लामी बोर्डिंग स्कूल, पेसेंटरेन चलाते थे। वे परंपरावादी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते थे, जो इस्लामी रहस्यवाद (तसव्वुफ) के अनुयायी थे और उनकी शिक्षा को स्वदेशी रीति-रिवाजों और विश्वासों की खिलाफत नहीं समझा जाता बशर्ते वे इस्लाम की मूल मान्यताओं और तालीम के विरोधी न हों। दो सबसे प्रमुख संस्थापक उलेमाओं के नाम हैं हसीम अश्यारी और अब्दुल वहाब चासबुल्लाह।
एनयू के इतिहास को 4 चरणों में विभाजित किया जा सकता है :

1. प्रारंभिक वर्षों में एनयू ने एक सामाजिक-मजहबी संगठन के रूप में कार्य किया।
2. 1930 के दशक के अंत से 1984 तक यह राजनीतिक गतिविधियों में शामिल हो गया। 1952-1971 तक इसकी अपनी राजनीतिक पार्टी थी और यह राष्ट्रीय कैबिनेट का
हिस्सा रहा।
3. जब सुहार्तो सरकार ने अपने दमनकारी नियमों से सभी राजनीतिक दलों को पंगु बना दिया तो एनयू ने राजनीति छोड़ने का फैसला किया। यह 1984 के वाटरशेड के दौरान दिखाई दिया जो केंबली के खितह कहलाया जिसे 1926 के मूल चार्टर की पुनर्स्थापना भी कहा जा सकता है।
4. 1998 में, सुहार्तो के पतन के बाद, एनयू फिर से राष्ट्रीय राजनीति में शामिल हो गया। इसने राष्ट्रीय जाग्रति पार्टी (पीकेबी) की शुरुआत की। इसी दौरान इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष अब्दुर्रहमान वाहिद को संक्षिप्त अवधि (1999-2001) के लिए इंडोनेशिया का चौथा राष्ट्रपति चुना गया।

एनयू की अहम भूमिका
अपनी नई भूमिका में एनयू बड़ी संख्या में इंडोनेशियाई मुसलमानों को सामाजिक परिवर्तन और आधुनिकता के अनुकूल बनाने की दिशा में मार्गदर्शन कर रहा था। एनयू से जुड़ी विभिन्न संस्थाओं ने सामाजिक न्याय, मानवाधिकार, लोकतंत्र और महिलाओं और बच्चों के अधिकारों के मुद्दों पर बहुस्तरीय संवाद शुरू किए। इससे एनयू नागरिक समाज के विकास का एक प्रेरक बल बनने लगा, जो इंडोनेशियाई संदर्भ में बेहद उपयुक्त था।

इसके विभिन्न विभाग थे- युवाओं के लिए -अंसर, महिलाओं के लिए- मुसलमत एनयू, युवा महिलाओं के लिए -फतयात एनयू, और पुरुष और महिला छात्रों के लिए आईपीएनयू और आईपीपीएनयू। इन विभागों के अलावा, एनयू में शिक्षा, पारिवारिक मामले, कृषि, आर्थिक विकास और इस्लामिक बैंकिंग के संस्थान शामिल हैं। यह एक पारंपरिक सुन्नी राजनीतिक-मजहबी संस्था है, लेकिन इसने समकालीन संस्कृति और आधुनिकता को अपनाया है। यह देवबंद और बरेलवी के मजहबी संस्थानों से अलग है जो कट्टरपंथी इस्लाम यानी वहाबवाद का प्रचार करते हैं और इस्लाम के अरबी स्वरूप का पालन करते हैं, जिसमें उनके कपड़े पहनने का तरीका और हदीस और शरीयत के अरबी स्वरूप का सख्त पालन शामिल है।

डॉ. एच. बहारुद्दीन और सेनिवती ने ‘दि रोल आॅफ मुस्लिम्स ग्रुप्स इन कॉम्बैटिंग टेररिज्म इन इंडोनेशिया: ए स्टडी आॅफ दि नहदतुल उलमा’ पर एक शोध पत्र तैयार किया है। इसके अनुसार इंडोनेशिया में मजहबी जीवन की प्रकृति और पहचान को एक आकार देने में एनयू की कार्यनीति ने अहम भूमिका निभाई है। यहां तक कि थाईलैंड की सरकार ने भी थाईलैंड के दक्षिणी अंदरूनी हिस्से में मौजूद कट्टर विचारधारा और टकरावों को नियंत्रित करने के लिए उनसे संपर्क किया। एनयू ने मजहबी संपर्कों के दायरे को बढ़ाकर (दकवा), शिक्षा, व्यापार नेटवर्क, मजहबी अध्ययन और मजहबी सहिष्णुता के माध्यम से आतंकवाद का मुकाबला करने की भावना को जगाया है। पंचशिला के सिद्धांत को अपनाते हुए उन्होंने नागरिकता की सार्वजनिक संस्कृति की स्थापना की और इंडोनेशिया के नवस्थापित राष्ट्र-राज्य में एक सघन बहुल समाज के लिए राजनीतिक आधार स्थापित किया। एनयू इस देश में हर जगह आतंकवादी बमबारी के सामने चुनौती बन कर खड़ा है।

हम नहीं जानते कि एनयू इंडोनेशिया में भी पैठ बनाने की कोशिश कर रहे वहाबवाद को कुचलने के लिए कब तक डटा रहेगा। लेकिन हम निश्चित रूप से देख सकते हैं कि अब तक यह उस ज्वार को पछाड़ने में सक्षम रहा है और इंडोनेशिया के वहाबी या सलाफी इस्लाम के अरबी रेगिस्तान में एक नखलिस्तान की तरह काम कर रहा है। शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की इस खोज के दौरान जो नाम सबसे पहले सामने आता है, वह है भारतीय मुस्लिम विद्वान मौलाना वहीदुद्दीन, जिन्हें कई लोग पक्का रूढ़िवादी मानते हैं। लेकिन, मैंने उनके बारे में जो कुछ भी पढ़ा, उससे यह मालूम हुआ कि उन्होंने भारतीय मुसलमानों को मुख्यधारा में लाने की कोशिश की। कई मुस्लिम संगठनों ने बड़े शिक्षण संस्थान बनाए हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश कट्टरपंथी इस्लाम का प्रचार करते हुए रूढ़िवादी ही रह गए।

उदारता का छद्म चेहरा
मैंने ‘सर तन से जुदा’ रैलियों और नूपुर शर्मा का समर्थन करने वाले दो हिंदुओं का सिर कलम किए जाने की घटना के बाद टीवी पर होने वाली बहस के दौरान कई इस्लामी विद्वानों और शोधकर्ताओं के स्वर में खास बदलाव देखा है। हालांकि, मैंने एक 3-4 साल पुराना वीडियो भी देखा जिसमें दो मौलानाओं में से एक लाइव टीवी कार्यक्रम में एक युवा मुस्लिम लड़की को भगवान कृष्ण की तरह कपड़े पहनने और गीता के श्लोक पढ़ने के लिए धीरे से फटकार लगा रहे हैं। दोनों मौलानाओं का कहना है कि उन्हें गीता के पाठ से कोई दिक्कत नहीं, लेकिन लड़की की पोशाक पर उन्हें आपत्ति है। इसलिए मुझे संदेह है कि यह बदलाव दिल से नहीं बल्कि सार्वजनिक दिखावे के लिए अपनाया गया छद्म चेहरा है। केवल एक इस्लामिक विद्वान ने टीवी पर खुले तौर पर घोषणा की है कि नूपुर ने पैगंबर के जीवन के बारे में हदीस को उद्घृत करके कोई ईशनिंदा नहीं की थी। इससे पता चलता है कि समाज में मंथन चल रहा है लेकिन इसे तार्किक परिणति तक ले जाने की जरूरत है।

क्या मुस्लिम नेतृत्व-पारंपरिक मौलाना, विद्वान और आम मुसलमान समय के इस संवेदनशील अवसर पर जागना चाहेंगे और भारतीय मुसलमानों को भी आधुनिक बनने और इस्लाम का पालन करते हुए भी भारतीय मुख्यधारा के साथ सामंजस्यपूर्ण तरीके से रहने में मदद करने के लिए एक साहसिक नया ढांचा तैयार करेंगे? आज समय जिस विस्फोटक स्थिति में है, उसे सकारात्मक रूप में भी ढाला जा सकता है, जरूरत सिर्फ भारत के अपने अब्दुल वहाब चासबुल्लाह को ढूंढने की है।

Topics: भारत का अब्दुल वहाब चासबुल्लाहसामाजिक-मजहबी संगठनएनयू‘उग्रपंथी मजहब’ बनाम ‘अमनपंथी मजहब’
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