'एक चीन' नीति दरारें और दिखावा
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होम विश्व

‘एक चीन’ नीति दरारें और दिखावा

by WEB DESK
Jan 30, 2022, 10:14 pm IST
in विश्व, दिल्ली
शी जिनपिंग

शी जिनपिंग

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‘एक चीन’ नीति के तहत चीन के विस्तारवादी कदमों के विरुद्ध एकजुट होने लगा विश्व, मानवाधिकारों के प्रति चीनी घृणा के प्रति सख्त हुआ वैश्विक रवैया, हर देश की बहुसंख्यक जनता की राय चीन के प्रति नकारात्मक

आदर्श सिंह

चीनी सरकार और सत्तारूढ़ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की प्रकृति थोड़ी संवेदनशील है। थोड़ी सी आलोचना उन्हें बहुत ही आहत और विचलित कर देती है। उनकी इसी नाजुकमिजाजी के कारण सेंसरशिप का विराट तंत्र विकसित किया गया है ताकि चीन में या चीन से बाहर कोई कुछ ऐसा बोल न दे, लिख न दे जिससे कि उनकी भावनाएं आहत हो जाएं, उनकी सत्ता, संप्रभुता पर आंच आ जाए। क्योंकि ऐसा होते ही नाजुकमिजाज चीनी नेता उस सांप की तरह फुंफकारने लगते हैं जिस पर गलती से किसी का पांव  पड़ जाए। 

 

अपने में खोया ड्रैगन

पूछा जा सकता है कि आखिर चीन क्यों इतने बड़े पैमाने पर शत्रु बनाता जा रहा है और दुनिया में नकारात्मक छवि बनाता जा रहा है। चीन एक समृद्ध संस्कृति है और इसकी रणनीतिक संस्कृति भी बहुत विकसित है। फिर चीन की नीतियां ऐसी क्यों हैं जो उसका ही अहित कर रही हैं। एडवर्ड लुट्टवाक अपनी किताब ‘द राइज आफ चाइना एंड द लाजिक आॅफ स्ट्रेटजी’ में चीनी स्वलीनता यानी चीनी आटिज्म को इसका जिम्मेदार ठहराते हैं। इस स्वलीनता के कारण चीनी चीजों को अत्यधिक सरलीकृत कर देते हैं और वास्तविकता के प्रति उनका रवैया भ्रामक हो जाता है।

हान बहुत ही मेहनती और संपदा के सृजन में निष्णात हैं लेकिन अपनी संस्कृति के सर्वश्रेष्ठ होने के प्रति उनका आग्रह उन्हें अन्यों के साथ सहज, स्वाभाविक बर्ताव व आदान-प्रदान से रोकता है। आत्मकेंद्रित होने के कारण वे दुनिया को चीनी चश्मे से ही देख सकते हैं। यह चश्मा ट्रिब्यूटरी सिस्टम के लिए तो ठीक था जहां चीनी सम्राट को भेंट चढ़ाने का रिवाज था लेकिन संप्रभु आधार पर बराबरी के लेन-देन वाली आधुनिक अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के लिए इसका समय खत्म हो चुका है। हान केंद्रित और भावना प्रधान चीनी विदेश नीति अतीत में हुई किसी घटना को लेकर कथित ‘शत्रुओं’ के प्रति आज भी तमाम तरह के भय, घृणा और असंतोष से संचालित होती है। यही कारण है कि चीन अभी तक कोई ऐसी रणनीति नहीं बना पाया है जिसमें अपने रणनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वह पड़ोसी देशों को अपने साथ जोड़ पाए। उल्टे भारत, जापान, इंडोनेशिया, फिलीपीन, मंगोलिया जैसे तमाम देशों के साथ उसके संबंध शत्रुतापूर्ण होते जा रहे हैं और ये सभी देशी तेजी से अपना शस्त्रीकरण कर रहे हैं। दुनिया से कटे होने के कारण लोगों और इरादों के बारे में चीन की अपनी राय होती है जिसका भले ही वास्तविकता से कोई देना-देना नहीं हो। लेकिन हान होने के नाते उन्हें हमेशा अपने सही होने के प्रति आश्वस्ति रहती है। चीन की ज्यादातर समस्याओं और शत्रुतापूर्ण रवैये के पीछे उसके कथित शत्रु नहीं, बल्कि हान स्वलीनता जिम्मेदार है।

 


अक्साई चिन 1920 या 1930 तक चीनी नक्शे में कहीं नहीं था। बाद में रहस्यमय तरीके से प्रकट हो गया। भारत का जिन इलाकों पर दावा है, वो 1642 में लद्दाख और तिब्बत के बीच युद्ध के बाद हस्ताक्षरित तिंगमोसांग संधि में स्पष्ट हैं। 1842 में जम्मू एवं कश्मीर के राजा के दूत, तिब्बत के तत्कालीन दलाई लामा और चीनी सम्राट ने इसकी पुष्टि करते हुए कहा कि ये सीमाएं प्राचीन काल से ही तय हैं।


विस्तारवादी नीति
समस्त चर-चराचर जगत परेशान है कि चीन न जाने किस बात पर नाराज हो जाए, न जाने कहां तक दावा ठोक दे कि आप घर से बाहर निकलें और पता चले कि आप चीनी इलाके में दाखिल हो गए । अगर दक्षिणी चीन सागर पर चीन के दावे वाले नौ बिंदुओं वाली लाइन या नाइन डैश लाइन को देखें तो खतरा स्पष्ट है। पिछले कुछ वर्षों से हाल ये है कि अखबारों की खबरें ही इस लाइन से शुरू होती हैं कि, ‘एक ऐसा कदम जो चीन को नाराज कर सकता है’। धीरे-धीरे अब लोग रोजाना की धमकियों से न सिर्फ उबने लगे हैं बल्कि चीन का मजाक भी उड़ाने लगे हैं। चीन के अतिरंजित इलाकाई दावों पर दुनिया की प्रतिक्रिया तब देखने को मिली जब दिसंबर 2020 में चीन का अतंरिक्ष यान चांद पर उतरा। ट्विटर हैंडलर्स ने इस वैज्ञानिक उपलब्धि को भी मजाक बना दिया और तंज कसे कि चांद के साथ चीन के अनंत काल से ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संबंध रहे हैं और चांद पर चीन की संप्रभुता निर्विवाद है।

अरुणाचल : नाम में बहुत कुछ रखा है

अप्रैल, 2017 में चीन ने अरुणाचल प्रदेश पर अपने दावे को मजबूती देने के लिए छह जगहों के नाम चीनी भाषा में रख दिए। तब तत्कालीन केंद्रीय मंत्री वेंकैया नायडू ने कहा था, ‘चीन के पास हमारे शहरों के नाम बदलने का कोई अधिकार नहीं है… अरुणाचल प्रदेश का एक-एक इंच हमारा है। उनको नाम बदलने दो। इससे क्या फर्क पड़ता है। ये तो ऐसा है कि आपने पड़ोसी का नाम बदल दिया। इससे पड़ोसी का नाम नहीं बदल जाएगा।’ लेकिन थोड़ा-बहुत फर्क पड़ता है अगर आपने सतर्क रहते हुए इसका प्रतिकार नहीं किया तो। 2017 में चीन दलाई लामा की तवांग यात्रा से चिढ़ा था। बदले की कार्रवाई के रूप में उसने छह जगहों के नाम बदल दिए। इसमें कुछ जगहें तो बहुत गुमनाम सी लग रही थीं लेकिन किसी न किसी रूप में ये सभी दलाई लामा से जुड़ी थीं। 
अब चीन ने अरुणाचल में फिर 15 जगहों के नाम बदल दिए हैं। लेकिन सफाई पहले जैसी है। इन जगहों का एक सिरा पूर्वी अरुणाचल में है तो दूसरा पश्चिमी अरुणाचल में और बाकी मध्य अरुणाचल के हैं। इन पंद्रह स्थानों में आठ रिहायशी इलाके, चार पहाड़, दो नदियां व एक पहाड़ी दर्रा भी है और इन सभी स्थानों का सैन्य और सांस्कृतिक महत्व है। और चीन ने दावा किया कि ये सभी नाम ऐतिहासिक हैं और प्राचीन काल से चले आ रहे हैं। चीनी इससे पहले भी कई जगहों के नाम बदल चुका है। यहां तक कि उत्तराखंड के बाराहोती का भी चीनी नाम वू जे रख दिया गया है। तो लद्दाख के देमचोक का नाम चीनी परिगास रख चुके हैं। प्रयास इस बात के हैं कि अरुणाचल के इन स्थानों के चीनी व तिब्बती नाम रखे जाएं जिनसे ये इलाके चीनी-चिब्बती सांस्कृतिक पहचान से जुड़े दिखें बनिस्बत कि करीबी असम या नगालैंड से। 2017 में जब नाम बदले गए तो चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता की भारत की आपत्तियों पर प्रतिक्रिया हास्यास्पद और निम्नस्तरीय थी। प्रवक्ता ने कहा कि नाम बदलते रहते हैं। एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, भारत ने भी तो बंबई, मद्रास और कलकत्ता के नाम बदले हैं। 
लेकिन भारत हमेशा चीजों को इस तरह खारिज नहीं कर सकता। नाम बदलने की यह प्रक्रिया चीनी लाफेयर (जिसमें युद्ध के इन तरीकों का उपयोग किया जाता है जो दावे या कब्जे को वैधता दिला सकें) का हिस्सा है। चीनी आज नहीं तो कल इन नामों को गूगल जैसे सर्च इंजनों में शामिल कराने के प्रयास करेंगे। फिर भारत को न चाहते हुए भी मानचित्रण युद्ध में उतरना पड़ेगा। इसलिए पहले से जान लें कि नाम में बहुत कुछ रखा है।

‘फारबिडेन सिटी’ यानी शी जिनपिंग के रिहायशी इलाके में बड़े-बड़े तहखाने हैं जिसमें हजारों नक्शे पड़े हुए हैं। जब जैसी जरूरत पड़ती है, दावा ठोंकने के लिए वैसा नक्शा पेश कर दिया जाता है। जैसे अक्साई चिन 1920 या 1930 तक चीनी नक्शे में कहीं नहीं था। बाद में रहस्यमय तरीके से प्रकट हो गया। भारत का जिन इलाकों पर दावा है, वो 1642 में लद्दाख और तिब्बत के बीच युद्ध के बाद हस्ताक्षरित तिंगमोसांग संधि में स्पष्ट हैं। 1842 में जम्मू एवं कश्मीर के राजा के दूत, तिब्बत के तत्कालीन दलाई लामा और चीनी सम्राट ने इसकी अभिपुष्टि करते हुए कहा कि ये सीमाएं प्राचीन काल से ही तय हैं। चीन के 1853, 1917 और 1919 में जारी आधिकारिक नक्शों में कहीं भी वे इलाके नहीं दर्शाए गए हैं, जिन पर भारत का दावा है। 

जबरा मारे रोने न दे

चीन की तुनकमिजाजी की अब कुछ लोग मौज लेने लगे हैं। पिछले साल 15 अक्तूबर को एक मलेशियाई रैपर नेमवी और आस्ट्रेलियाई गायक किम्बरले चेन ने यूट्यूब पर ‘फ्रेजाइल’ (सुकुमार) नाम से एक वीडियो गाना अपलोड किया। मंडारिन भाषा के इस गाने ने यूट्यूब पर धूम मचा दी है और अब तक 39 मिलियन से ज्यादा चीनी भाषी इसे देख चुके हैं। ताइवान और हांगकांग में तो यह चार्ट में शीर्ष पर है। वीडियो में ताइवान को एक ऐसे विषयवस्तु के रूप में दिखाया गया है जो एक अतिशय तुनकमिजाज और आक्रामक चीन, जो ना नहीं सुन सकता, द्वारा लगातार पीछा किए जाने से परेशान है। और ताइवान कहता है, ‘गलती आपकी कहां है हुजूर, मेरी है/ कि मेरे पास एक दृढ़ और अक्लमंद दिमाग है, सच सुनते ही आप खफा हो जाते हैं/ शायद मुझे इतना मुंहफट नहीं होना चाहिए/ मुझे क्षमा करें/मैंने आपको फिर कुपित कर दिया’। चीन इस गाने से बहुत कुपित है लेकिन क्या करे, वीडियो चीन से बाहर का है और अभी पूरी दुनिया में सेंसरशिप का अधिकार उसके पास आया नहीं है।


अब धीरे-धीरे चीनी लक्ष्मण रेखाओं के सम्मान में भी कटौती शुरू हो गई है। पिछले साल अक्तूबर-नवंबर में लिथुआनिया ने ताइवान को अपने यहां प्रतिनिधि कार्यालय खोलने को मंजूरी दी। चीन को यह नागवार गुजरा कि यह कार्यालय चीन ताइपेई के बजाय ताइवान के नाम से खोला गया है। चीन ने इस ‘गलती’ को सुधारने की हिदायत दी लेकिन ठेंगा दिखाते हुए लिथुआनिया के सांसदों का एक दल दिसबंर में ताइवान का दौरा भी कर आया।


बहरहाल,  चीन को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। आखिर चीन का 65 प्रतिशत क्षेत्रफल कब्जा की हुई जमीनें ही हैं। तिब्बत, सिनकियांग, मंचूरिया, इनर या आउटर मंगोलिया में कभी कोई हान नहीं रहा और न कोई चीनी संस्कृति। बंदूक के बल पर कब्जा चल रहा है। इसलिए दावा ठोंकने की उनकी विशेषज्ञता मामूली नहीं है। नए नक्शे बन जाएंगे, जगहों के चीनी नाम रख दिए जाएंगे और एक नया सीमा कानून आ जाएगा और बीजिंग से बयान जारी होंगे कि ये हमेशा से चीन का अक्षुण्ण अंग रहे हैं। दक्षिण चीन सागर पर कब्जे के लिए बनाई गई नाइन डैश लाइन च्यांग काई शेक के समय में बनाई गई थी। तब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी ने न तो च्यांग काई शेक को मान्यता दी और न इस नक्शे को। अब ये नक्शा चीन के लिए पत्थर की लकीर है। ताइवान का हजार साल का इतिहास बताता है कि वो हमेशा स्वतंत्र थे और चीन से उनका शायद ही कोई लेना-देना था। आधुनिक काल में भी 1895 से 1945 तक यह जापान के कब्जे में रहा और उसके बाद से स्वतंत्र देश है। अब चीनी दावे पर गौर फरमाएं। वर्ष 280 में "थ्री किंगडम काल" में सुन कुआन के सैनिकों ने ताइवान का भ्रमण किया था। तब से दोनों के बीच  ऐतिहासिक, सांस्कृतिक संबंध रहे हैं जो यह साबित करता है कि यह चीन का अटूट अंग है। इतालवी सोच रहे होंगे कि मार्को पोलो भी तो चीन गए थे।  चिंता की बात है। फा‘ान और ह्वेनसांग पूरा भारत घूम चुके हैं। ताइवान इन अटूट संबंधों को खारिज करता है और चीन डंडे के जोर पर मनवाना चाहता है। चीनी युद्धक विमान आए दिन ताइवानी वायुक्षेत्र का अतिक्रमण करते ही रहते हैं। लेकिन चीनी कूटनयिक ‘वुल्फ वैरियर’ भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं। वो सिर्फ धमकियां ही नहीं देते बल्कि ताइवानी राजनयिकों को मारने-पीटने का मौका भी नहीं चूक रहे आजकल। अक्तूबर, 2020 में फिजी में दो चीनी राजनयिकों ने मिलकर एक ताइवानी राजनयिक को पीट दिया और उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।

आत्मविश्वास या डर

कोई कहता है कि शी जिनपिंग चीन के दूसरे माओ बनना चाहते हैं लेकिन एक दूसरा पक्ष है जो कहता है कि वे न माओ बनना चाहते हैं न देंग श्याओ पिंग। जिनपिंग बस सोवियत राष्ट्रपति मिखाइल गोबार्चोफ की गति को प्राप्त नहीं होना चाहते। बहुत से लोगों को आज याद नहीं होगा कि 1970 के दशक के पूर्वार्ध में अमेरिका और यूरोप की अर्थव्यव्यस्थाओं की विकास दर नगण्य हो गई थी जबकि सोवियत अर्थव्यवस्था फिर भी सालाना चार प्रतिशत की दर से बढ़ रही थी। सोवियत वर्चस्व बढ़ रहा था और पश्चिम के पतन की भविष्यवाणियां शुरू हो गई थीं। तीसरी दुनिया के देशों को मुक्त अर्थव्यवस्था के बजाय समाजवादी सोवियत अर्थव्यवस्था ज्यादा लुभावनी लगती थी। लेकिन किसी को नहीं पता था कि तब तक सोवियत अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार, अक्षमता और अनुत्पादकता का दीमक कितना गहरे घुस चुका था और 1980 के दशक के मध्य में जब अमेरिका और ब्रिटेन की अर्थव्यवस्थाओं ने गति पकड़ी तो सोवियत संघ का टिकना मुश्किल हो गया क्योंकि अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार और अनुत्पादकता इतनी बढ़ गई थी कि अब इसका पुनरुद्धार संभव नहीं था।

चीनी अर्थव्यस्था में भी सब कुछ ठीक नहीं है। लेकिन चीनी भटकाने. छिपाने और दुष्प्रचार की कला में माहिर हैं। 2007 में ही चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ ने कहा था कि चीन की अर्थव्यवस्था अस्थिर, असंतुलित, असमन्वित और अरक्षणीय है।  तब लगता है कि शी जिनपिंग के अलावा किसी ने उनकी बात ध्यान से नहीं सुनी। चीन की अर्थव्यवस्था का इंजन अब लड़खड़ा रहा है। 2007 में वेन जियाबाओ के बयान से लेकर 2019 तक चीन की विकास दर घटकर आधा हो गई। अनुत्पादकता दस प्रतिशत की दर से बढ़ी है और पूरा कर्ज आठ गुना बढ़ गया है। ऊपर से बूढ़ी होती आबादी और रिटायर हो रहे कर्मचारियों का बोझ। 2020 से 2035 के बीच सात करोड़ कर्मचारी घट जाएंगे और वृद्ध नागरिकों की संख्या में 13 करोड़ की बढ़ोतरी हो जाएगी। अब दहाई अंकों की विकास दर असंभव है। शी अपने तीसरे कार्यकाल में किसी तरह संकट से उबरने का प्रयास करेंगे। लेकिन कामकाजी आबादी में गिरावट जैसी चीजों की तुरंत भरपाई असंभव है।

चीन अपनी अर्थव्यवस्था की दरारों को छिपाने के लिए शायद ज्यादा दहाड़ रहा है। अब यह खुला रहस्य है कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी और खास तौर से जिनपिंग सोवियत संघ के बिखराव और गोबार्चोफ की नीतियों को लेकर जुनून की हद तक आशंकित हैं। 2012 में जिनपिंग ने पार्टी सदस्यों से पूछा कि सोवियत संघ क्यों बिखरा? उसका जवाब भी उन्होंने खुद दिया। उनके अनुसार सोवियत अपने आदर्शों और विश्वासों से भटक गए थे और अंत में कोई ऐसा मर्द नहीं था जो इसके विरोध के लिए सामने आए। जिनपिंग चीन की सेना को भी सोवियत फौज वाली गलतियां दोहराने के प्रति आगाह कर चुके हैं। यानी साफ है कि जिनपिंग किसी भी असंतोष को दबाने के लिए समझौता वार्ता का सहारा नहीं लेने वाले। चीनी जनता पर कम्युनिस्ट पार्टी का दिनोंदिन कसता शिकंजा और जातीय व धार्मिक अल्पसंख्यकों पर बढ़ता दमन चक्र इस बात का संकेत है कि चीन में फिलहाल किसी ग्लासनोस्त या खुलेपन की गुंजाइश नहीं है। यह डर की निशानी है।

 


प्यू के 17 देशों में किए गए सर्वे की बात करें तो हर देश की बहुसंख्या चीन के खिलाफ दिखती है। जापान के 88, स्वीडन के 80, आस्ट्रेलिया के 78, दक्षिण कोरिया के 77 और अमेरिका के 76 प्रतिशत लोगों की राय चीन के प्रति नकारात्मक है। इतनी नकारात्मक राय शायद शीत युद्ध के दिनों में सोवियत संघ के खिलाफ भी नहीं थी। चीन इस समय अंतरराष्ट्रीय मंच का खलनायक है। 


चीन का मानवाधिकार व लोकतंत्र विरोधी चेहरा
चीन दुनिया का एकमात्र देश है जो 21वीं सदी में भी गुलाम और यातना शिविर चला रहा है। लाखों तिब्बतियों और उइगुर मुसलिमों को इसमें ठूंसा जा चुका है। उनकी सभ्यता-संस्कृति के समूल नाश के प्रयास जारी हैं। कोई अंतरराष्ट्रीय कानून इस पर लागू नहीं होते। अवैध अतिक्रमण, वहां गांव और कृत्रिम द्वीप बनाना, दूसरे देशों के जल, थल और नभ क्षेत्र में घुसकर उकसावे वाली कार्रवाइयां करना, व्यापार में अनुचित हथकंडे और साइबर हमले, बौद्धिक संपदा की चोरी इसके लिए आम बात है। हांगकांग की रही-सही स्वतंत्रता भी पैरों तले कुचली जा चुकी है। चीन तमाम लोकतांत्रिक सरकारों को अस्थिर करने के लिए प्रोपेगंडा युद्ध पर उतर आया है। तमाम हथकंडों का इस्तेमाल कर वह लोगों को समझाने के प्रयास में है कि तुम्हारी लोकतांत्रिक सरकारों के मुकाबले चीन की दमनकारी व्यवस्था ज्यादा अच्छी है। लोकतंत्र के प्रति चीन की आस्था कितनी है, यह जून 1989 में थिएन आनमन स्क्वायर पर लोकतंत्र समर्थक छात्रों पर तोपें चलवाने की घटना से जाहिर है। 

व्यापार को इसने युद्ध का औजार बना लिया है। कोविड-9 वायरस की उत्पत्ति की जांच की मांग करने से क्रोधित होकर चीन ने आस्ट्रेलिया के खिलाफ व्यापार युद्ध छेड़ दिया। उनका विश्वास था कि आस्ट्रेलिया घुटने पर आ जाएगा लेकिन दांव उल्टा पड़ा। त्रस्त दुनिया अब लाचारी में ही जवाबी कार्रवाइयों के लिए तैयार हो रही है। क्वाड, आॅकस और जापान एवं आस्ट्रेलिया के बीच रक्षा समझौता इसके उदाहरण हैं। धीरे-धीरे मानवाधिकारों के प्रति चीनी घृणा को दुनिया को रेखांकित करना पड़ रहा है। हाल ही में अमेरिका ने शिनकियांग में जबरन मजूरी और कैदियों से बनवाए गए उत्पादों पर प्रतिबंध का एलान किया है। यूरोपीय समुदाय (ईयू) भी अब इसे लेकर सचेत हो रहा है।  

चीन का वैश्विक विरोध
और अब धीरे-धीरे चीनी लक्ष्मण रेखाओं के सम्मान में भी कटौती शुरू हो गई है। शुरूआत यूरोप से हुई है। पिछले साल अक्तूबर-नवंबर में लिथुआनिया ने ताइवान को अपने यहां प्रतिनिधि कार्यालय खोलने को मंजूरी दी। चीन को यह नागवार गुजरा कि यह कार्यालय चीन ताइपेई के बजाय ताइवान के अपने नाम से खोला गया है। चीन ने तत्काल इस ‘गलती’ को सुधारने की हिदायत दी लेकिन उल्टे ठेंगा दिखाते हुए लिथुआनिया के सांसदों का एक दल दिसबंर में ताइवान का दौरा भी कर आया। 

लेकिन लिथुआनिया से पहले शुरूआत चेक गणराज्य ने की थी।  पिछले साल 30 अगस्त को चेक सीनेट के अध्यक्ष मिलोस ने 90 सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ ताइवान का दौरा किया और उसके प्रति समर्थन जताते हुए भाषण में कहा, ‘मैं ताइवानी हूं’। यह 1963 में अमेरिकी राष्ट्रपति जान एफ. केनेडी द्वारा पश्चिम जर्मनी में दिए गए एक भाषण से प्रेरित थी जिसमें उन्होंने पूर्वी जर्मनी में दमनकारी कम्युनिस्ट तानाशाही में घुट रहे लोगों के प्रति समर्थन जताते हुए कहा था, ‘मैं बर्लिन का हूं’। चीनी विदेश मंत्री वांग यी, जो उस समय पांच यूरोपीय देशों के दौरे पर थे, ने तत्काल चेतावनी दी कि मिलोस ने एक लक्ष्मणरेखा पार कर दी है। चीन चुपचाप नहीं बैठेगा और उन्हें अपने इस अदूरदर्शी व्यवहार और राजनीतिक अवसरवाद की बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। लेकिन इस बार यूरोप ने कहा कि हमारे ईयू के सदस्य देश को धमकी देकर चीन ने एक लक्ष्मणरेखा पार कर दी है।

बर्लिन में वांग यी के साथ प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान जर्मनी के तत्कालीन विदेश मंत्री हेइको मास ने वांग के मुंह पर ही कहा, ‘यूरोपीय देश अपने अंतरराष्ट्रीय साझेदारों का सम्मान करते हैं और बदले में उनसे भी ठीक यही उम्मीद करते हैं।  धमकियां यहां नहीं चलतीं।’ फ्रांस ने वांग की धमकी को ‘अस्वीकार्य’ बताया तो स्लोवाकिया के राष्ट्रपति ने कहा कि कि यूरोपीय समुदाय के किसी भी सदस्य को धमकी अस्वीकार्य है। उधर, मिलोस ने कहा कि उन्होंने कोई भी लक्ष्मणरेखा पार नहीं की है। हर देश को ‘एक चीन’ नीति की अपने अनुसार व्याख्या करने का अधिकार है। हम अपने अनुसार करेंगे। जापान ने ‘एक चीन’ नीति के तहत जारी चीन के नक्शे में ताइवान शामिल होने के कारण उसे खारिज कर दिया है।

गलवान वीडियो प्रपंच : जगहंसाई को न्योता

नए साल में चीन का गलवान से एक वीडियो आया जिसमें चीनी सैनिक वहां अपना झंडा फहरा रहे हैं और शपथ ले रहे हैं कि किसी भी हाल में चीन की एक इंच जमीन भी दुश्मन के कब्जे में नहीं जाने देंगे। फिर पता चला कि वीडियो गलवान नदी से 28 किलोमीटर दूर शूट किया था और झंडा फहराने वाले चीन के बांके जवान नहीं बल्कि हीरो-हीरोइन थे। इनमें एक पति-पत्नी भी थे जो चीन में काफी प्रसिद्ध कलाकार हैं। तो क्या इससे चीन की बेइज्जती हो गई और वो आगे कुछ ऐसा नहीं करेगा? चीन की प्रोपेगंडा मशीन को इन सब चीजों से धेले भर का फर्क नहीं पड़ता। चीन की विशेषज्ञता रही है कि वे दुनिया के किसी भी बेहतरीन उत्पाद की सस्ती नकल तैयार कर लेते हैं। फिर प्रोपेगंडा मशीनरी कहां से मौलिक हो जाएगी? 

वर्ष 2020 में उन्होंने एक वीडियो बनाया था जिसमें चीनी युद्धक विमान गुआम स्थित अमेरिका के एंडरसन वायुसेना अड्डे पर बमबारी कर रहे हैं। इसमें इस्तेमाल किए गए सारे फुटेज हालीवुड की फिल्मों के थे। टिवटर पर लोगों ने पूछा कि क्या कोई कापीराइट कानून है? यही हाल साउथ सूडान का है। चीन ने वहां तैनात अपनी शांति सेना का जबरदस्त वीडियो बनाया जिसमें चीनी सैनिक साउथ सूडान के बागियों की धुआंधार धुलाई कर रहे हैं। एक्शन जैकी चान की फिल्मों जैसा था। लेकिन सच्चाई यह थी कि बागियों के हमले के बाद चीनी शांति सैनिक आंधी-तूफान की रफ्तार से चौकी छोड़कर भाग निकले थे। पीएलए ने यह वीडियो इसलिए बनाया कि साउथ सूडान में चीनी सैनिकों की इस वीरता के किस्से अनसुने न रह जाएं। लेकिन लोग तथ्य लेकर हाजिर हो गए और चीनी शौर्य की काफी खिल्ली उड़ी।

2017 में डोकलाम गतिरोध के समय चीनी समाचार एजेंसी शिन्हुआ का वीडियो याद होगा जिसमें एक सिख सैनिक को एक चीनी बता रहा है कि भारत ने डोकलाम में सात पाप किए हैं। वीडियो का दावा था कि भूटान खुद मानता है कि डोकलाम चीन का अभिन्न अंग है। कहना न होगा कि इस घोर स्तरहीन और नस्ली वीडियो की सर्वत्र निंदा हुई। चीन पर तीन किताबें लिख चुके स्वीडिश लेखक जोजेजे एल्सन ने ट्वीट किया, "शिन्हुआ के लिए प्रोपेगंडा ही पर्याप्त नहीं है, अब वह भारत के बारे में नस्ली वीडियो भी बना रहा है। एक सरकारी समाचार एजेंसी के लिए यह सचमुच अविश्वसनीय है।" इस सस्ते प्रोपेगंडा से चीन की जगहंसाई हो रही है तो इसके कारण क्या हो सकते हैं? हांगकांग यूनिवर्सिटी में चाइना मीडिया प्रोजेक्ट के सह निदेशक डेविड बांडुर्स्की कहते हैं, ‘हम जो देख रहे हैं, वह उस प्रोपेगंडा तंत्र का अपरिहार्य नतीजा है जिसके पास पैसा तो बहुत है लेकिन सांस्कृतिक व बौद्धिक रूप से कंगाल है।’ पैसा है लेकिन बौद्धिक कंगाली ऐसी है कि ढंग का एक प्रोपेगंडा वीडियो भी नहीं बना सकते। यही आज का चीन है। स्वलीनता और सांस्कृतिक एवं बौद्धिक दरिद्रता से पीड़ित। 

कहने की जरूरत नहीं कि चीन अपनी अतिशय आक्रामकता और आए दिन की धमकाऊ बयानबाजियों से उपहास का पात्र बनता जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय जगत में इसके मात्र दो घनिष्ठ सहयोगी पाकिस्तान और उत्तर कोरिया हैं।  साल के अंत में अगर प्यू के 17 देशों में किए गए सर्वे की बात करें तो हर देश की बहुसंख्या चीन के खिलाफ दिखती है। जापान के 88, स्वीडन के 80, आॅस्ट्रेलिया के 78, दक्षिण कोरिया के 77 और अमेरिका के 76 प्रतिशत लोगों की राय चीन के प्रति नकारात्मक है। इतनी नकारात्मक राय शायद शीत युद्ध के दिनों में सोवियत संघ के खिलाफ भी नहीं थी। चीन इस समय अंतरराष्ट्रीय मंच का खलनायक है। और उसने यह उपलब्धि चंद सालों में ही हासिल कर ली है। इसीलिए कुछ विद्वान चीन की मौजूदा रीतियों-नीतियों को ‘ग्रेट लीप बैकवड’ की संज्ञा दे रहे हैं। चाहे मानवाधिकारों का मुद्दा हो, अंतरराष्ट्रीय कानूनों के पालन का हो या पड़ोसियों के साथ शत्रुतापूर्ण संबंधों का, शी जिनपिंग का चीन एक बार फिर माओ त्से तुंग के काल में पहुंचता दिख रहा है। वह बहुत रक्तरंजित समय था। सभ्य दुनिया इसका दोहराव नहीं चाहेगी।

(लेखक रक्षा विषयों के अध्यवसाई हैं और साक्षी श्री द्वारा स्थापित साइंस डिवाइन फाउंडेशन से जुड़े हैं)

 

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