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भारत में जनतंत्र

WEB DESK by WEB DESK
Jan 18, 2022, 02:01 am IST
in भारत, साक्षात्कार, दिल्ली
मानवेंद्रनाथ

मानवेंद्रनाथ

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पाञ्चजन्य ने हमेशा पत्रिका को लोकतंत्र का मंच बनाए रखने का यत्न किया। इसमें सभी विचारों को स्थान मिलता रहा। इस क्रम में कांग्रेसी, राष्ट्रवादी, समाजवादी, वामपंथी सभी विचारकों के आलेखों को पाञ्चजन्य ने प्रकाशित किया। श्री मानवेन्द्रनाथ राय (1887-1954) भारत के स्वतंत्रता-संग्राम के क्रान्तिकारी तथा विश्वप्रसिद्ध राजनीतिक सिद्धान्तकार थे। उनका मूल नाम ‘नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य’ था। वे मेक्सिको और भारत दोनों की कम्युनिस्ट पार्टियों के संस्थापक थे। वे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के कांग्रेस के प्रतिनिधिमण्डल में भी सम्मिलित थे। पाञ्चजन्य ने अपने 26 अक्तूबर, 1953 के अंक में मानवेंद्रनाथ राय के आलेख को प्रकाशित किया। भारत में जनतन्त्र विषयक अपने आलेख में मानवेंद्रनाथ लिखते हैं —

 

  • भारत के सम्बन्ध में अब तक जो अमेरिकी विवरण प्रकाशित हुए हैं, वे या तो ऊपर-ऊपर से देखी हुई बातों के परिणास हैं या उनके इच्छित विचारों के। उन्होंने भारत को एक बहुत बड़ा जनतंत्र कहा है और भारतीय जनतन्त्र के विधान के अंतर्गत हुए पहले ग्राम चुनाव को जनतंत्र का एक महान प्रयोग बतलाया है। क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत निश्चय ही एक बहुत बड़ा देश है और पहले आम चुनाव में जितनी बड़ी संख्या में जनता ने भाग लिया, सचमुच वह एक बहुत बड़ा प्रयोग था। पर अभी भी यह कहना असामयिक होगा कि भारत एक जनतंत्र है और पिछला आम चुनाव सही मानो में लोकतंत्र की प्रथा के अनुसार ही ही हुआ था।

मानवेंद्रनाथ पहले आम चुनाव के लगभग एक वर्ष बाद भी भारतीय जनतंत्र के विधान को दिखावे का विधान मानते रहे और उसके कार्यान्वयन को महत्वपूर्ण मानते थे। उनका विचार था कि कार्यान्वयन इस तरह हो कि विरोध या संघर्ष हो। यहां वामपंथ की विभाजनकारी रेखाओं पर राजनीति करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। मानवेंद्रनाथ लिखते हैं – 

  • भारतीय जनतंत्र का विधान देखने में जनतांत्रिक विधान अवश्य है। पर जितना आसान एक अच्छा विधान तैयार कर लेना है, उसे कार्यान्वित करना उतना ही कठिन है, क्योंकि वैसा कर सकना कई बातों पर निर्भर करता है। हां, हम ऐसा कह सकते हैं कि एक अच्छा विधान तैयार कर तथा उसे बाकायदा कार्यरूप देकर भारत को जनतंत्र बनाने के कार्य का आसान हिस्सा पूरा कर लिया गया है। अब हमें इसे सही मानों में असली रूप देने का कठिन कार्य करना है। इस दिशा में हमें स्वभावतया इस तरह बढ़ना है कि विरोध या संघर्ष हो।

आलेख में आगे जनतंत्र के टिकाऊ और योग्य होने पर शंका जताई गई। और, इसका उत्तर ढूंढने के लिए देश के सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक वातावरण का अध्ययन करने की बात कही गई।

  • इस समय तो स्थिति यह है कि भारत में बाकायदा जनतांत्रिक शासन की स्थापना तो हो गई है, पर वह न तो अच्छी है, न योग्य और टिकाऊ ही। पर जो आदमी केवल इसके ऊपरी ढांचे को ही देखता है, वह इस असंदिग्ध और प्रत्यक्ष सत्य को स्वीकार नहीं करता। चूंकि भारत में अभी जनतन्त्र अपनी शैशवावस्था में है, अत: शायद यह स्थिति अनिवार्य हो। पर प्रश्न तो यह है कि क्या भारतीय जनतंत्र इन प्रारम्भिक कठिनाइयों का सफलतापूर्वक सामना कर सकेगा! इसका उत्तर देने के लिए हमें देश के सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक वातावरण का जरा बारीकी से अध्ययन करन होगा।
     
  •  मसल मशहूर है कि किसी भी देश को वैसा ही शासन मिलता है, जिसका कि वह पात्र होता है। पार्लियामेंटरी जनतंत्र प्रणाली के अनुसार पार्टी-सरकारें ही विधान को कार्यान्वित करती हैं। और जनतंत्रवादी विधान पर संतोषजनक रूप से अमल तभी हो सकता है, जब कि उसे चलाने वाली पार्टी पर जनता का नियन्त्रण हो। पर आज हमारे देश में स्थिति यह है कि जो सत्तारूढ़ पार्टी भारतीय जनता का प्रतिनिधित्व करने का दावा करती है, उस पर जनता का बहुत बड़ा अंश नियंत्रण रखने की क्षमता ही नहीं रखता। इसके बदले में आज कांग्रेस दल का नियंत्रण होता है

    मुट्ठी भर दल-राजनीतिज्ञों द्वारा। आज कांग्रेस-दल की आवाज का मतलब है एक व्यक्ति की आवाज। यद्यपि कांग्रेस दल के सदस्यों की संख्या लाखों में बतलाई जाती है, पर इसके निर्णयों में कहीं भी नेहरुजी को छोड़कर और किसी की आवाज सुनाई नहीं देती। सैद्धांतिक रूप से नेहरूजी जनतंत्रवादी हैं और बकौल एक विशिष्ट अमेरिकी राजनेता के भारतीय जनतंत्र उनके हाथों में सुरक्षित है। जहां तक नेहरू जी के विचारों और इरादों का संबंध है, शायद यह बात सच भी हो। पर कांग्रेस दल को किसी भी माने में जनतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना का साधन नहीं माना जा सकता। नेहरू जी अमर नहीं हैं और आज देशभर में यही चर्चा है कि जिस दिन वे नहीं रहेंगे, उनका स्थान लेने वाला दूसरा कोई नहीं है।

    पाञ्चजन्य में प्रकाशित मानवेंद्रनाथ राय का एक आलेख

     

मानवेंद्रनाथ अपने आलेख में बहुत बारीकी से दो बातें कहते हैं। पहले उपरोक्त हिस्से में वह कहते हैं कि जनतंत्रवादी विधान पर संतोषजनक रूप से अमल तभी हो सकता हे, जब कि उसे चलाने वाली पार्टी पर जनता का नियन्त्रण हो। वहीं, नीचे लिखे पैराग्राफ में कहते हैं कि राजनीतिक जनतंत्र की स्थापना जिसका चरम लक्ष्य होता है एक स्वतंत्र और स्वस्थ जनतंत्रात्मक समाज की स्थापना। पहले में जनतंत्र के लिए राजनीतिक दल पर समाज का नियंत्रण जरूरी है, दूसरे हिस्से में राजनीतिक जनतंत्र का लक्ष्य समाज को जनतांत्रित बनाना है। यह पहले मुर्गी आई या अंडा जैसा द्वंद्व है। भारत में क्रांति (वामपंथी लक्ष्य के अनुरूप) न होने को वे दुर्भाग्य मानते हैं।

  • राजनीतिक जनतंत्र की स्थापना जिसका चरम लक्ष्य होता है एक स्वतंत्र और स्वस्थ जनतंत्रात्मक समाज की स्थापना जनता की उस राजनीतिक चेतना और जहनियत पर निर्भर करती है, जो सांस्कृतिक परम्पराओं द्वारा निर्धारित होती है। कुल मिलाकर हम जीवनका कैसा व्यापक रूप सोचते और चाहते हैं, इसी का परिणाम होते हैं हमारे राजनीतिक आदर्श और सामाजिक सिद्धांत। यूरोप में 16वीं और 17वीं शताब्दी में हुए बौद्धिक और सांस्कृतिक आंदोलनों जिन्होंने जनसाधारण के जीवन दर्शन में क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिए के परिणामस्वरूप ही समाज के जनतन्त्रवादी जीवन का विचार पैदा हुआ। दुर्भाग्यवश भारत में अभी इस तरह का कोई क्रान्तिकारी परिवर्तन नहीं हुआ है।

आलेख के अगले हिस्से में वे भारत को, भारत के समाज के बारे में क्या राय रखते हैं, इसका दर्शन होता है। 

  •  कुछ गिने-चुने व्यक्ति भले ही मध्य-युगीन अधिनायकतन्त्री मनोवृत्ति से आंशिक अथवा पूर्णरूप ऊपर उठ सके हों; किंतु व्यापक और सामूहिक रूप से तो भारतीय संस्कृति अभी तक भी मध्य-युगीन और अधिनायकतन्त्री मनोवृत्ति की ही है। अज्ञान, अन्धविश्वास, अंध श्रद्धा और रूढ़ियों को यहां अब भी गुण माना जाता है। सच तो यह है कि किसी भी देश का सांस्कृतिक और बौद्धिक वातावरण उसी सीमा तक जनतन्त्र के जन्म के लिए अनुकूल होता है, जिस सीमा तक कि वह अज्ञान, अंधविश्वास, अन्धानुकरण और अधिनायकतंत्री मनोवृत्ति से हटकर जीवन के प्रति एक समान मानवतावादी दृष्टिकोण को अपनाता है।

पाञ्चजन्य जहां भारतीय संस्कृति को समस्याओं के समाधान का माध्यम मानता है, वहीं मानवेंद्रनाथ भारतीय समाज को अज्ञानी मानते हैं। यह उनका पश्चिम से आयातित वैचारिक दृष्टिकोण है। परंतु पाञ्चजन्य के लिए यह आवश्यक था कि पत्रिका लोकतंत्र का मंच बने इसके लिए सभी तरह के विचारों को पत्रिका में स्थान मिले और पाञ्चजन्य ने अपनी इस भूमिका का निर्वाह किया।     

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