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राष्ट्रभाव की गूंज

WEB DESK by WEB DESK
Jan 17, 2022, 12:58 am IST
in भारत, संघ, दिल्ली
5 मार्च, 2000 का  एक अंक, जिसमें  कांग्रेस और आतंकवादियों की सोच एक बताई गई है व पाञ्चजन्य के इस अंक में दलित ईसाइयों की समस्याओं को उठाया गया है

5 मार्च, 2000 का  एक अंक, जिसमें  कांग्रेस और आतंकवादियों की सोच एक बताई गई है व पाञ्चजन्य के इस अंक में दलित ईसाइयों की समस्याओं को उठाया गया है

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राष्ट्र की वाणी के रूप में पाञ्चजन्य की 75वें  वर्ष में प्रवेश की यात्रा राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय आंदोलनों और बदलावों के बीच से गुजरते हुए सफल रही है। इस यात्रा के अनेक सहयात्रियों को उनकी मंजिल तक पहुंचाने में पाञ्चजन्य की महती भूमिका रही है।  इस लंबी यात्रा के संबंध में पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने वरिष्ठ चिंतक और स्वदेशी के प्रबल पक्षधर श्री गोविंदाचार्य से बात की। प्रस्तुत है वार्ता के आधार पर तैयार लेख

गोविंदाचार्य 

मकर संक्रांति (14 जनवरी, 1948)। माने आज से 74 वर्ष पहले। पाञ्चजन्य जैसा अखबार (मार्च, 2014 से पत्रिका) सामने आया। उस समय की परिस्थितियां देखें। अंग्रेज चले गए थे। भारत की पुनर्रचना के बारे में चर्चा शुरू हुई। स्वाभाविक था कि उस समय भारत को भारत के नजरिए से देखकर, उसकी तासीर-तेवर समझकर, उसके हिसाब से समाज और सरकार के स्तर पर पुनर्रचना की दिशा में गाड़ी बढ़े। ये सबसे महत्वपूर्ण बिंदु था। केवल अंग्रेजों का जाना ही काफी नहीं था। वास्तव में उनका आना भी हमारी कमजोरी का परिणाम था। जब अंग्रेज बाहर गए, तो हमें अपने और अपने राष्ट्र की चिंता करनी चाहिए थी। इस विषय में समाज के बीच बहस चले, और स्वस्थ बहस चले, इसकी आवश्यकता थी।

आजादी के केवल छह महीने हुए थे। उस समय कम्युनिस्टों ने कहना शुरू कर दिया था कि भारत एक उपमहाद्वीप है। दूसरे कुछ लोगों ने गांधी जी के नाम को भुनाने का सोचा कि इस ‘इंडिया’ की स्थापना गांधी जी ने की है। कुछ और लोग सोचते थे कि ‘इंडिया’ 1947 में पैदा हुआ। उसमें संघ अपने स्थापित स्थान पर था कि यह राष्ट्र  एक है, जन एक है, संस्कृति एक है। यह एक प्राचीन हिंदू राष्ट्र  है और अब फिर से इसके खिलने का समय आया है। इसके अनुसार बिना जात-पात संप्रेषण और समाज के साथ संवाद – इन दोनों उद्देश्यों को लेकर इस माध्यम की सृष्टि हुई। विधि का विधान ऐसा था कि 30 जनवरी, 1948 को गांधी जी चले गए, उसके बाद ही तुरंत 4 फरवरी को संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

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एक राष्ट्र, एक जन, एक संस्कृति और चेतन 
इस प्रकार पाञ्चजन्य का तात्कालिक और दीर्घकालिक विचार-केंद्र उस समय के माहौल से निर्धारित हुआ। मूल प्रश्न यह था कि हमें मिली स्वतंत्रता में वह कौन सा ‘तंत्र’ है जो ‘स्व’ है। जो हमारा है, या जिसे हमें करना है, उस पर चर्चा ही नहीं हुई। जो तंत्र मिला और अपनाया गया, उसका सारा आधार वैसा ही है, जैसा अंग्रेजों के हितों के अनुरूप 1935 से चला आ रहा था। उस समय श्रीगुरुजी और कुछ अन्य लोगों को लग रहा था कि यह एक राष्ट्र है, एक जन है, एक संस्कृति है और चेतन है। काल-परिस्थितिवश दूसरे लोगों ने हमें अपने अधीन कर लिया था, और हमें उनको उखाड़ फेंकने में 150 साल संघर्ष करना पड़ा। तो अब समय आ गया है कि तय किया जाए कि स्वतंत्र में ‘स्व’ क्या है। उस वक्त जिस ‘स्व’ की ओर इंगित किया जा रहा था कि सारे समाज का जो जीवनदर्शन है, उसमें से ही अर्थनीति है, राजनीतिक है और इसी को समसामयिक करने की जरूरत है। इसकी पुनर्रचना को गंभीरता से लिया जाए। गहराई से भारत का ‘स्व’ निखारा जाए, और इस ‘स्व’ के आधार पर जो भारत का वैश्विक लक्ष्य हो, भारत उसे निभा सके। इस पर गंभीरता से ध्यान देने के लिए उस समय यह सवाल खड़ा हुआ। स्वतंत्र में ‘स्व’ क्या है, और अगर नहीं है, तो राज बदल गया, लेकिन गोरे अंग्रेजों की जगह काले अंग्रेज आ गए। हमें अंग्रेजों से दुराव नहीं है, लेकिन विदेशियत से, अंग्रेजियत से है। अंग्रेजियत जाए, न कि अंग्रेज। उसी बात को संघ और पाञ्चजन्य ने अभिव्यक्ति दी। 

नेहरू की रूमानी दुनिया
उसी समय कश्मीर का घटनाक्रम तेज हुआ। शेख अब्दुल्ला की सरकार बनाई गई, पाकिस्तानी कबायलियों का हमला हुआ। उस समय सत्ता संचालकों में से प्रमुख जवाहरलाल नेहरू ही थे। नेहरू जी का जो भी मानसिक ढांचा (मेंटल मैट्रिक्स) रहा होगा, जो चिंतन प्रक्रिया रही होगी, उसका बहुत असर नेतृत्व संचालन पर पड़ा। उन्होंने जो किया, वह अच्छा नहीं किया। गांधी जी से अपने को सदा के लिए अलग कर लिया। गांधी जी को कालबाह्य मान लिया। ग्राम स्वराज को उन्होंने त्याग दिया। नेहरू जी  के मन में जो भी बात थी, उसी के आधार पर उन्होंने कश्मीर के बारे में सोचा। वे एक रूमानी दुनिया में रहते थे, विश्व के यथार्थ से रू-ब-रू नहीं हो रहे थे या नहीं होना चाहते थे। अगर उनके मन में दृढ़ रहता कि एक राष्ट्र रहे, एक जन रहे तो किसी प्रकार का दूसरा विचार करते ही क्यों। और ऐसा क्यों सोचते कि मामला (संयुक्त राष्ट्र में) कूटनीति से सुलझाएंगे। सीधा-सीधा हमारी भारत माता पर आक्रमण हुआ, भारत माता का अपमान हुआ, उसका दृढ़ता से मुकाबला करना संभव था और नेहरू जी से अपेक्षित था। उसके स्थान पर उन्होंने सौदेबाजी की। 

 

राष्ट्र की मजबूत अभिव्यक्ति हो, तो जाति, भाषा, संप्रदाय जैसे कार्य तत्व विविधता के रूप में रहते हैं। और अगर राष्ट्रीय जीवन-शक्ति बहुत कमजोर पड़ जाए, तो इसमें विभाजन के बीज आने लगते हैं। जब हिन्दू कोड बिल की या देश के प्रांतों को भाषाई आधार पर विभाजित करने की बातें आर्इं, तो श्रीगुरुजी ने और अन्य लोगों ने कहा कि केवल भाषाई आधार पर सोचना ठीक नहीं।

 

राष्ट्र हमेशा अपनी अंत:शक्ति के आधार पर चल पाते हैं। परमुखापेक्षी या आत्मसपर्मण की भावना से, सौदेबाजी करके, गिड़गिड़ाकर कोई भी राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकता। भारत की ताकत बहुत थी। सेनापति अच्छा हो और ताकत हो तो सैनिक कमजोर भी चलेगा। लेकिन अगर सेनापति ही साहसी न हो तो सैनिक के साहसी होने का अर्थ कम हो जाता है। लेकिन भारत की जनता पर, भारत की सामर्थ्य पर, सैनिकों के बलिदान पर, नेहरू जी को संभवत: भरोसा नहीं था।

सत्ता के खेल में उलझी कांग्रेस
वास्तव में आजादी के तुरंत बाद कांग्रेस के चरित्र में जो दिखाई देता है, वह तब से शुरू हो चुका था, जब से कांग्रेस ने चुनाव में हिस्सा लेना शुरू किया था। कांग्रेस बड़े उद्देश्यों से परे रहकर सत्ता के खेल में उलझ गई। लोग बताते हैं कि 1946 में कांग्रेस की स्थिति ऐसी थी कि आनंद भवन (इलाहाबाद) में कांग्रेस की एक बैठक में नेहरू जी का कुर्ता खींचा गया। कांग्रेस में क्षरण इतना हो गया था। सत्य और असत्य को तिलांजलि देकर सत्ता का प्रयोग कैसे किया जाए, इसे उन्होंने देश की कीमत पर अपना लक्ष्य बना लिया। 1950 में कांग्रेस को नेहरू का निजी संगठन बनाने की प्रक्रिया तेज हुई। मोतीलाल नेहरू ने जवाहरलाल नेहरू को गांधी जी के सुपुर्द कर दिया कि इनकी देखभाल आप करो। वही बात मन में दृढ़ रूप से अंकित हो गई होगी और इसीलिए जवाहरलाल नेहरू की अपनी सोच ऐसी हो गई होगी कि जैसे मैं चला रहा हूं, वैसे ही मेरी बेटी चलाएगी। उनकी रूमानी मानसिकता थी, यथार्थ से जुड़ने में उनको असमंजस या असहजता थी। इसलिए उनको पंचशील सरीखी कल्पनाओं में जीना पसंद आता था। हालांकि 1964 में, तिब्बत और चीन के मामलों में पराजय के बाद उनके मन में झनझनाहट हुई और उन्हें कुछ-कुछ लगने लगा था कि भारत के पास भी अपनी ताकत है, अपनी अस्मिता है, अपनी पहचान है, अपनी गौरव परंपरा है। लेकिन तब तक चिड़िया खेत चुग चुकी थी और पछताने से भी कुछ हासिल नहीं होना था। 

दत्तोपंत ठेंगड़ी कहते थे, ‘‘गुरुजी और डॉ. हेडगेवार राष्ट्र निर्माता मात्र थे। गांधी जी मूलत: राष्ट्र निर्माता थे, जो संयोगवश राजनेता भी थे। नेहरू जी  मूलत: राजनेता थे, जो संयोगवश राष्ट्र निर्माता भी थे। श्रीमती इंदिरा गांधी सिर्फ राजनेता थीं।’’ नेहरू स्वप्निल दुनिया में राष्ट्र निर्माण की बात सोचते थे। रूस के प्रवास से चमत्कृत होकर लौटे तो इस अवधारणा के साथ कि भारत को रूस बनाना है। बाकी किसी पहलू के बारे में कुछ भी सोचे बिना। ये उनकी दिशा थी। लेकिन राष्ट्र निर्माण के अलावा जब बाकी राजनीति की बात आती थी, तो नेहरू उसी रूमानी दुनिया में एक धुर यथार्थवादी राजनीतिक भी थे। लेकिन राजनीति के लिए जो अन्य पहलू आवश्यक हैं, देश के संचालन के लिए जो दृढ़ता आवश्यक है, उन सबका उनमें अभाव रहा। 

गोवा मुक्ति आंदोलन
गोवा मुक्ति के प्रति नेहरू जी की उदासीनता को पाञ्चजन्य ने उजागर किया। गोवा आंदोलन की रिपोर्टिंग भी किसी अखबार या पत्रिका ने प्रभावी रूप में नहीं की, लेकिन पाञ्चजन्य ने की। गोवा में अंदर से और बाहर से औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ संघर्ष हो रहा था। समाजवादी लोगों में से भी कुछ लोग इस संघर्ष में साथ थे। जन आंदोलन चल रहा था और जब ऐसी स्थिति आ गई कि पुर्तगालियों को लगा कि अब उनका सत्ता में रहना संभव नहीं है, आगे और हिंसा होगी तो इससे डरकर पुर्तगाली वहां से भाग गए। उस समय भारत की सेना को अनुकूलता लगी और जनसमुदाय ने भारतीय सेना का स्वागत किया। जन पहले साथ में हुआ, तब सरकार साथ आई। पाञ्चजन्य को छोड़कर मीडिया में यह आया कि 1961 में भारतीय सेना ने गोवा को 
आजादी दिलाई। 

भाषावार प्रांत गठन
संघ ने एक राष्ट्र, एक जन, एक संस्कृति वाले एक अखंड भारत को अपनी श्रद्धा का विषय माना है। राष्ट्र की मजबूत अभिव्यक्ति हो, तो जाति, भाषा, संप्रदाय जैसे कार्य तत्व विविधता के रूप में रहते हैं। और अगर राष्ट्रीय जीवन-शक्ति बहुत कमजोर पड़ जाए, तो इसमें विभाजन के बीज आने लगते हैं। जब हिन्दू कोड बिल की या देश के प्रांतों को भाषाई आधार पर विभाजित करने की बातें आर्इं, तो श्रीगुरुजी ने और अन्य लोगों ने कहा कि केवल भाषाई आधार पर सोचना ठीक नहीं है। एक ही भाषा के बहुत से राज्य क्यों नहीं हो सकते। श्रीगुरुजी और दीनदयाल जी ने पंचायत स्वराज की व्यवस्था की बात कही। पंचायत भी रहे, जनपद भी रहे। उन्होंने कहा कि भारत में 80 से 100 जनपद हो सकते हैं। गौर से देखें, तो भारत में 127 कृषि पर्यावरणीय क्षेत्र (इको एग्रोमेटिक जोन) हैं। जनसमुदाय इनके अनुरूप होता है, इस आधार पर सोचना चाहिए। उस आधार पर योजना बननी थी। लेकिन उस विषय में बढ़ ही नहीं सके। उस समय देश की आकांक्षा, समाज की आकांक्षा और सरकार की योजना में संबंध वियोजन था। जन की इच्छाओं और राजनीतिक कलाबाजियों में बेमेल हुआ। इससे राष्ट्र के ‘स्व’ की अभिव्यक्ति नहीं हो सकी। सत्ता बेमेल हो गई।

चीन पर चेतावनी
1954 में पंचशील समझौता बीजिंग में हुआ था। इसके छह वर्ष बाद चीन ने तिब्बत पर हमला किया और फिर दो वर्ष बाद भारत पर हमला किया। उस समय भारत की चीन नीति हवा-हवाई थी। जबकि श्रीगुरुजी और पाञ्चजन्य के अलावा अन्य लोगों ने भी लगातार चेतावनी दी थी कि आप चीन को सहज मत समझिए। चेतावनी भी दी जा रही थी कि चीन हमला कर सकता है। सबसे पहले श्रीगुरुजी ने चेताया था और कहा था कि भारत सरकार इसको गंभीरता से ले। ‘हिंदी-चीनी, भाई-भाई’ का नारा खोखला था। इसलिए कहा जाता है कि उस समय देश का नेतृत्व हर दिशा से विकृति का शिकार रहा है। दुर्भाग्य की बात है कि श्रीगुरुजी और अन्य लोगों द्वारा कही हुई बातों को नेहरू जी  अव्यावहारिक मानते थे और अपनी काल्पनिक दुनिया को यथार्थ मानते थे। इसका देश को बहुत नुकसान हुआ।

विदेश नीति का यह अटपटापन उस समय अखबार एवं पत्र-पत्रिकाओं में से सबसे प्रमुख रूप से पाञ्चजन्य में आया है। एक तत्व और है दीनदयाल उपाध्याय जी का, जिनका 1962 से लेकर 1966 तक का समय एकात्म मानव दर्शन के निरूपण में बीता है। उसकी बहुत सशक्त अभिव्यक्ति पाञ्चजन्य के लेखों में हुई है। 1966 में एकात्म मानव दर्शन को स्वीकृति दी गई

समाज में जनसंघ ने ‘जागते रहो’ का बिगुल हमेशा बजाया और उसमें पाञ्चजन्य एक धुरी रहा। बाकी क्या कहते हैं- इस दुविधा में न पड़कर वैचारिक बातों पर टिके रहना और आत्मविश्वास के साथ अपनी बात को रखना पाञ्चजन्य का स्वभाव रहा। भारत-चीन युद्ध के दौरान भी संघ के गुणधर्म वाले पाञ्चजन्य की भूमिका भी देश का सही प्रबोधन करने की रही। उसे उस समय पाञ्चजन्य ने बखूबी निभाया। सत्य की शक्ति बहुत होती है। पाञ्चजन्य सत्य की पत्रकारिता करता है। इसलिए उसकी बात पहले भी बहुत दूर तक जाती थी और अब भी।

 
गोरक्षा आंदोलन 
गोरक्षा आंदोलन के दौरान जितने हस्ताक्षर लोगों ने (नेहरू के निर्वाचन क्षेत्र से) गोरक्षा के लिए किए थे, उतने मतों से तो खुद नेहरू जी चुनाव नहीं जीते थे। पूरे देश में गोरक्षा के पक्ष में एक वातावरण था। एक हस्ताक्षर संग्रह पहले अर्पित किया गया था और बाद में 1966 में किया गया। 1964 में विश्व हिन्दू परिषद के अधिवेशन के बाद सर्वदलीय गोरक्षा महाअभियान समिति बनाकर उसके तत्वावधान में आंदोलन चलाने का निर्णय लिया गया। श्रीगुरुजी ने दो वर्ष तक घूम-घूमकर सारे संतों को इकट्ठा किया। चारों शंकराचार्यों, संत श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी जी, स्वामी करपात्री जी तथा अनेक साधु-संतों, महात्माओं के नेतृत्व में अक्तूबर-नवम्बर, 1966 में अखिल भारतीय स्तर पर गोरक्षा-आंदोलन चला। दिल्ली तो ‘न भूतो न भविष्यति’ की स्थिति में थी। गोहत्या रोकने की मांग को लेकर संसद पर प्रदर्शन करने वाले असंख्य हिंदू, जैन और सिख साधु-संतों पर गोलीबारी की गई। उसमें कितने लोग मारे गए, इसका कोई हिसाब-किताब आजतक नहीं है। इसी के कारण गुलजारीलाल नंदा ने गृहमंत्री के पद से इस्तीफा भी दिया था। हिंदू समाज की इच्छा के बारे में इतना घोर अनादर उस समय की सत्ता ने दिखाया था। इसका मूल कारण था भारत को समझ न पाना, केवल एक भूखंड मानना। 

गोहत्या पर प्रकाशित एक रपट

भारत की संपूर्ण आर्थिक व्यवस्था एक त्रिकोण पर आश्रित है। घर की माता, गोमाता और धरती माता। एक-दूसरे को पुष्ट करने वाला यह त्रिकोण संस्कृति का आधार है। इसी त्रिकोण पर आधारित है भारत माता। गो का यह स्थान समाज जीवन संचालन में है। इसी के आधार पर भारत की अपनी ताकत है, अपनी पहचान है। अपनी भूमिका है। इसमें से जो भारत बनता है, वह शक्तिशाली होने पर दुनिया में खुशहाली बढ़ाता है। अन्य जब मजबूत होते हैं तो उसका फल हिंसा, युद्ध, विनाश, मृत्यु में ही मिलता है।

1967 में संयुक्त विधायक दल बना, तो जनता ने सत्ता को पहला झटका दिया। 1969 में उड्डुपी सम्मेलन हुआ। वहां श्रीगुरुजी ने हिंदू समाज की एकता की बात कही। 

राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की दृष्टि
पाञ्चजन्य या संघ हो, उनकी दृष्टि तात्कालिक राजनीति, सत्ता, प्रतिस्पर्धा, यह सब न होकर राष्ट्रीय पुनर्निर्माण की थी और बनी रही। राष्ट्रीय पुनर्निर्माण के खाके में निश्चित है कि इसे हम ग्राम स्वराज्य के माध्यम से अर्जित करेंगे। इसके लिए राजनीति, सत्ता, राजसत्ता का विकेंद्रीकरण अभीष्ट है। भारत की तासीर के हिसाब से यही सटीक बैठता है। यह अनुभवसिद्ध मान्यता है। हमारा देश दुनिया का सबसे सशक्त राष्ट्र रहा है, उसमें विकेंद्रीकरण और सत्ता दोनों बहुत बड़े महत्वपूर्ण कारक तत्व हैं। कोई भी राष्ट्रीय पुनर्निर्माण बिना देसी सोच और बिना विकेंद्रीकरण का सहारा लिए देश को ताकत दे ही नहीं सकता। लेकिन यहां सत्ता प्रतिष्ठान भारत को रूस बनाने में लगा हुआ था। रूस में जो विचारधारा प्रचलित थी, उसका बहुत भारी असर यहां के राजनीतिक मानस पर पड़ा था। चाहे वह कांग्रेस का हो, समाजवादी हो या साम्यवादी। पंचवर्षीय योजनाओं की संकल्पना रूस की सप्तवर्षीय योजना की एक तरह से नकल ही थी। इससे भारत की राजसत्ता पर रूसी प्रभाव और भारत की अर्थसत्ता पर राज्य के नियंत्रण के अलावा कुछ और परिणाम निकल ही नहीं सकता था। इसलिए उस समय साम्यवादियों ने ‘सपोर्ट एंड स्ट्रगल’ की ‘थ्योरी’ दी थी। नेहरू जी के समय कांग्रेस में साम्यवादियों का दाखिला हुआ और दूसरा दौर चला भाकपा की ‘होल सपोर्ट एण्ड स्ट्रगल’ की नीति से। उस समय की स्थिति में सारे लोग राज्य नियंत्रित समाज और राज्य नियंत्रित अर्थसत्ता के हिमायती थे। उसी का प्रभाव भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ा। नेहरू  के समय में और बाद में इंदिरा के समय में। इंदिरा गांधी को धीरे-धीरे समझ में आ गया कि रूस का निर्बाध समर्थन सत्ता में बने रहने के लिए आवश्यक है। 

एकात्म मानव दर्शन
विदेश नीति का यह अटपटापन उस समय अखबार एवं पत्र-पत्रिकाओं में सबसे प्रमुख रूप से पाञ्चजन्य में आया है। एक तत्व और है दीनदयाल उपाध्याय जी का, जिनका 1962 से लेकर 1966 तक का समय एकात्म मानव दर्शन के निरूपण में बीता है। उसकी बहुत सशक्त अभिव्यक्ति पाञ्चजन्य के लेखों में हुई है। 1966 में जनसंघ की राष्ट्रीय परिषद में वैचारिक दस्तावेज के रूप में एकात्म मानव दर्शन को स्वीकृति दी गई। यह उस समय की एक युगांतरकारी घटना थी।

राम जन्मभूमि आंदोलन का भाव यह था कि देश को अपने स्वभाव के विपरीत पश्चिमी, निधर्मी, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीतियों पर चलना है या देश की मूल तासीर के अनुसार चलना है। उसके पीछे एक सह-उत्पाद जैसा भाव यह भी था कि 1984 के दंगों ने जो समाज में एक खाई पैदा की थी, उसे किसी तरह भरा जा सके और एकात्मता का सूत्र पैदा किया जा सके।

1966 के पहले जनसंघ का लक्ष्य था कि एक तो राजनीतिक क्षेत्र में देशभर में संगठन फैल जाए और दूसरा अखिल भारतीय होने की मान्यता मिल जाए। इन लक्ष्यों पर काम भी हो रहा था। 1967 के दशक में संयुक्त विधायक दल बना। जनसंघ, हिंदू महासभा और विश्व हिन्दू परिषद, इनके साथ तालमेल की कोशिश की और तनाव होने के बावजूद संवाद की स्थिति बना कर रखी। बाद में कालक्रम में यह जनसंघ में ही समाहित हुए। संवाद और स्वाभिमान, इन दो धुरियों पर वार्ता चलती रही। उसका देश को लाभ भी मिला।

आरंभिक दौर में श्यामा प्रसाद मुखर्जी के विशाल व्यक्तित्व का संभावित लाभ जनसंघ को मिला। बाद में बड़ी सहजता से व्यवहार करते हुए पं. दीनदयाल एवं कई विशिष्ट लोगों को जोड़कर, सबको एक बैनर के तले ला सकें, ऐसी आत्मीय दृष्टि से उस समय काम हुआ। उसी बीच दीनदयाल जी को चुनाव लड़ना पड़ा। उन्होंने चुनाव में जो राजनीतिक जिम्मेदारी का परिचय दिया और चुनाव के दौरान एक लंबी सोच का प्रतिनिधित्व किया, वह एक विलक्षण सी बात थी। 
1967 में कांग्रेस के विधानसभा चुनाव हारने के बाद इंदिरा जी के लिए कहा गया कि वह राजनीति से बाहर हो गई हैं। फिर से वातावरण बनाने के लिए 1969 में तीन-चार घटनाएं हुर्इं। बैंकों का राष्ट्रीयकरण हुआ। 70 के दशक में इंदिरा जी कांग्रेस का विभाजन करके कांग्रेस से आगे बढ़ गर्इं। कांग्रेस ‘आई’ बन गई थी। 1971 में बांग्लादेश युद्ध हुआ जिसमें उन्होंने रूस का समर्थन हासिल करने की कोशिश भी की थी। बांग्लादेश से पाकिस्तान को अलग किए जाने की सफलता पूरे देश में हर्षोल्लास का विषय रहा। इसको संघ के लोगों ने भी उसी रूप में देखा और इंदिरा जी की प्रशंसा भी की।

इंदिरा का अधिनायकवाद
एक बात लोगों को याद नहीं है। उसी समय में जब इस्राएल ने एक साथ अरब देशों को हराया था, तो श्रीगुरुजी ने लीक से हटकर कहा कि सीमेटिक लोगों की लड़ाई शोषण, उत्पीड़न, और एकाधिपत्य का संघर्ष है। इस पर बहुत ज्यादा कौतुक करने की जरूरत नहीं है। इसे देश के लिए व्यापक संदर्भ में देखना चाहिए। फिर 1971 आ गया। उस समय राजनीतिक स्थिति ऐसी हुई कि इंदिरा जी चुनाव भी जीत गर्इं और उसके बाद उनको लगने लगा कि वही देश को तार सकती हैं। उसके कारण वह विपक्ष को महत्व नहीं देना चाहती थीं। उनको लगता था कि इन लोगों की कोई जरूरत नहीं है। विपक्ष के प्रति जो सम्मान होना चाहिए, वैसा नहीं हुआ। 1971 के बाद से एकाधिनायकवाद के सारे लक्षण उभरने लगे। 

उस समय की सत्ता का धृतराष्ट्र भाव बाकी को कुचलने वाला था। उस समय दुनियाभर में युद्ध जैसी स्थितियां थीं। 1965 से आगे के समय में अफ्रीकी देशों पर आधिपत्य जमाने के लिए सीआईए और केजीबी के आपसी झगड़े होते थे।

अफ्रीका भर पर कब्जे की लड़ाई चल रही थी। इस लड़ाई की आंच भारत पहुंचने लगी थी। 1973 में मोहन कुमारमंगलम और एक अन्य ट्रेड यूनियन नेता विमान दुर्घटना में मारे गए थे। इधर कम्युनिस्टों की सोच यह थी और है कि जो उनको समर्थन न करता हो, वह अमेरिका-परस्त है। यह उनकी मूल दृष्टि है। इसी तरह वे जनसंघ को अमेरिका-परस्त मानते थे। हम अमेरिका के बिना भी राष्ट्रवादी हो सकते हैं, यह उनकी कल्पना में नहीं आ सकता, क्योंकि वे धूर्तता, कठमुल्लापन के आदी थे। 

दीनदयाल जी का जाना
मेरा मानना है कि कि पं. दीनदयाल उपाध्याय की हत्या विदेशी षड्यंत्र के तहत हुई। जांच में यही आया कि दो लड़के थे, पांच रुपये का नोट उंगलियों में फंसा था-बस। पाञ्चजन्य में यह विषय जोर-शोर से उठाया गया, किंतु अभी भी यह रहस्य अधूरा ही है। यह हमारे लिए अपमानजनक है कि सत्ता प्रतिष्ठान ने इस मामले की गहराई से जांच नहीं करवाई। मैं इसे तत्कालीन सत्ता तंत्र की अक्षमता का प्रमाण मानता हूं। 

दीनदयाल जी के जाने के बाद जनसंघ के लिए सब चीजों को सामान्य होने में चार साल लग गए। फिर अटल जी और आडवाणी जी का साथ आ जाना, भंडारी जी का आना, उधर बलराज मधोक जी का निकल जाना। फिर 1972 में एक नई टीम स्थिरता से आगे बढ़ी।

संपूर्ण क्रांति का आगाज
1972 के बाद इंदिरा जी की अह्मन्यता का व्यवहार शुरू हो गया। एक से एक चाटुकार उनके नजदीक आ गए, इसलिए नीचे समाज में जो असंतोष हो रहा है, उसका भान उन्हें नहीं रहा। ऐसी स्थिति में 1973 में जनांदोलन हुआ। सत्ताधारी उस आंदोलन को दलीय आंदोलन समझने की भूल कर रहे थे। लेकिन वह जनाक्रोश का ही एक उभार था। 1974 में बिहार आंदोलन भी हुआ। फरवरी में संघर्ष समिति बनी और 18 मार्च को विधानसभा का घेराव हुआ। 19 मार्च को मेरी जयप्रकाश जी से भेंट हुई। इसके बाद 27 मार्च को उनका बयान आया। 

जयप्रकाश जी ने 8 अप्रैल को बड़ी रैली की। इस बीच नानाजी देशमुख आये, और इस आंदोलन का जायजा लिया और फिर जनसंघ की  समर्थन करने की नीति बनी। 1974 के मई महीने में विपक्षी विधायकों का इस्तीफा हो गया और विधानसभा भंग करने की मांग की गई, और बाद में जयप्रकाश जी पर लाठी से प्रहार हुआ । फिर 4 नवंबर को इंदिरा जी कहती हैं, ‘‘जयप्रकाश नारायण जनता के तरीके से ही क्यों नहीं फैसला कर लेते। साल भर बाद ही तो चुनाव होने हैं।’’ जयप्रकाश जी का प्रत्युत्तर था, ‘‘हम इस चुनौती को स्वीकार करते हैं। इस आंदोलन को अब हम लोग बढ़ाएंगे।’’ उसके बाद जनवरी,1975 में इलाहाबाद में डॉ. मुरली मनोहर जोशी के घर पर जयप्रकाश जी, नाना जी, डॉ. स्वामी, कैलाशपति मिश्र और मैं इकट्ठे हुए और आंदोलन को आगे बढ़ाने की योजना तैयार की गई। 

1976 के बाद सत्ता पक्ष की भी तैयारियां चल पड़ी थीं। कांग्रेस में ही चंद्रशेखर जी, कृष्णकांत, मोहन धारिया अवांछित मान लिए गए। कांग्रेस में सत्ताधारी गुट ने इन लोगों को अलग किया, जबकि ये लोग जयप्रकाश नारायण और इंदिरा गांधी के बीच सुलह चाहते थे। उसके लिए वे लोग मेहनत भी कर रहे थे। लेकिन निकटवर्ती लोग सुलह नहीं चाहते थे। आंदोलन को दबा देना चाहते थे। उस समय इंदिरा जी उन लोगों के पक्ष में हो गई थीं। इसके बावजूद जयप्रकाश जी इंदिरा जी के प्रति बड़ी आत्मीयता रखते थे। वह समझौता चाहते थे। लेकिन अह्मन्यता के कारण इंदिरा जी ने समझौता नहीं किया और 1975 में आपातकाल लगा दिया।

आपातकाल
एक बार फिर पीछे के इतिहास को देखिए। 1973 में ही संजय गांधी का राजनीति में पदार्पण हो गया था। इंदिरा जी को वे प्रभावित करने लगे थे। उनमें आत्मविश्वास भी था और बांग्लादेश युद्ध का एक खुमार भी । इन सबके कारण वह अपने आपको सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान मान रही थीं। इसलिए जब देवकांत बरुआ ने कहा था, ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’, तो इंदिरा जी ने कोई विरोध नहीं किया। आपातकाल के समय तक उन्हें सत्ता का बहुत 
अहंकार था।

सत्ता विरोधियों पर  अत्याचार के लिए आज भी उन्हें याद किया जाता है। इंदिरा जी को आपातकाल के दौरान सत्ता का खून लग गया था। एक तरफ सेंसरशिप लगी हुई थी, उसी आपातकाल के दौरान कुछ मीडिया घराने फल-फूल रहे थे। उनके लिए स्वाभाविक था कि इसको एक पेशा मानकर चलो, जिसमें थोड़ा पैसा लगाओ और ज्यादा पाओ। इंदिरा स्तुति के अलावा कुछ करना ही नहीं है। इसका फायदा उन लोगों ने लिया। इन्हीं के साथ संजय गांधी एक सत्ता केंद्र के नाते उभरे। उनके कारण कांग्रेस के सारे चरित्र में, संगठनात्मक स्थिति में बदलाव हुआ। एक बदलाव कांग्रेस के विभाजन के समय हुआ था। एक से एक स्वार्थी लोग कांग्रेस में आ गए थे। आजादी के मोल का जिनको थोड़ा भी अहसास था, वे संगठन कांग्रेस में रह गए थे। इंदिरा कांग्रेस तो केवल सत्ता का खेल ही बन गई थी। आपातकाल के दौर में यूथ कांग्रेस उसी के एक बड़े विकृत रूप में एक से एक अनैतिक कार्यों में लिप्त हो गई। कानून का मजाक बना दिया गया। 

1984 में इंदिरा गांधी की हत्या होने से लेकर विश्वनाथ प्रताप सिंह के सामने आने तक देश के सोचने और समझने के तरीके में व्यापक तात्कालिक और दीर्घकालिक अंतर आया। आपातकाल के समय बाला साहब ने एक बात कही थी- इस जनांदोलन से कोई बड़ी चीज नहीं निकल सकती। दीर्घकालीन दृष्टि से देखें तो आपातकाल ने इतना योगदान दिया कि इस देश की जनता में आत्मविश्वास बढ़ा। यह विश्वास हुआ कि जनता चाहे तो तानाशाह सत्ता को भी परास्त कर सकती है। 1984 के समय जनता की एकात्मता का सवाल पैदा किया गया। शत्रु-मित्र का विवेक, कौन सही-कौन गलत, कौन आतंकवादी कौन बलिदानी- ये सारे प्रश्न आॅपरेशन ब्लू स्टार ने पैदा कर दिए। इस पर समाज का घाव कब भरेगा, कैसे भरेगा यह कहना बड़ा 
कठिन है। 

राम जन्मभूमि आंदोलन
1985 में विश्व हिन्दू परिषद ने राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू किया। इसका भाव यह था कि देश को अपने स्वभाव के विपरीत पश्चिमी, निधर्मी, अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीतियों पर चलना है या अपने देश की मूल तासीर के अनुसार चलना है। उसके पीछे एक सह-उत्पाद जैसा भाव यह भी था कि 1984 के दंगों ने जो समाज में एक खाई पैदा की थी, उसे किसी तरह भरा जा सके और एकात्मता का सूत्र पैदा किया जा सके। मेरा मानना है कि राम जन्मभूमि आंदोलन का मूल भाव यही था कि सत्य और अधिष्ठान के आधार पर देश की आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक संरचना करने की दिशा में अयोध्या, मथुरा, काशी का विशेष स्थान है। राम जन्मभूमि आंदोलन केवल सत्ता प्राप्ति का आंदोलन नहीं है। 

स्वाभाविक तौर पर राम जन्मभूमि आंदोलन अपने आप में सामाजिक आंदोलन भी था। इतने बड़े राम जन्मभूमि आंदोलन, और उसमें से बाबरी ढांचे का विध्वंस होना और उसके बाद राष्ट्रपति शासन लागू होना। 1993 में विधानसभा का चुनाव हुआ, उसमें राजस्थान छोड़कर अन्य भाजपा शासित प्रदेशों में हार हुई। इसके कारणों की मीमांसा में जो बात आई, तब लगा कि समाज के सभी तत्वों को विचारधारा के साथ, संगठन के 
साथ कैसे जोड़ा जाए। इसमें समाज के सभी हिस्सों को स्थान मिलना चाहिए। 

आर्थिक उदारीकरण
1990-91 में आर्थिक उदारीकरण के बाद स्थिति फिर पलटी। जो समाजवादी ढांचा बनाते थे, वे उदारीकरण का ढांचा बनाने लगे। रूस बनाने वाले रिबॉक बनाने लगे। समाजवाद लाने वालों ने अब तक अपने हाथ में पकड़ा ग्राफ पलट कर रख दिया और उलटे ग्राफ को ऊंचा बताने लगे। यह शीर्षासन व्यावहारिक कम और अवसरवादी ज्यादा था। वास्तव में इस तरह का उदारीकरण पहले शुरू हो चुका था। जैसे संजय गांधी ने कांग्रेस का चरित्र बदल कर ‘लुम्पन’ कांग्रेस कर दिया। राजीव गांधी के कांग्रेस महासचिव बनने के बाद 1982 से कांग्रेस सफारी कांग्रेस हो गई। सफारी सूट कांग्रेस। कांग्रेस के लोगों ने इसे चलन मान लिया। ऊंचे स्तर के सफारी सूट और गाड़ियां। फिर जो दौर शुरू हुआ, वो 1984 तक चला गया। यह संयोग था कि इंदिरा जी चली गर्इं और फिर राजीव गांधी बहुत बड़े बहुमत से आ गए। उसके बाद जो दौर चला, उसमें विदेशी ताकतों का प्रवेश हो गया। इस वैश्वीकरण के परिणामस्वरूप अमीरों को लाभ और गरीबों को लोभ मिलता गया। इन सब पर पाञ्चजन्य ने अपने लेखों के जरिए देश के लोगों को सदैव जागरूक किया। 
अब भारत में युवा उभार दिखाई दे रहा है। भारत का नौजवान तीन प्रकार के ‘हैंग ओवर’ से उबर रहा है। एक है साम्राज्यवाद का, दूसरा है देश विभाजन का और तीसरा खोखले समाजवाद का। भारत का युवा इन सबसे मुक्त हो रहा है। इस नई ऊर्जा का इस्तेमाल कैसे हो, उसके बारे में एक मशीनरी तैयार करना आज के दौर में सबसे बड़ी प्राथमिकता है। नई पीढ़ी का रचनात्मक कार्य समाज में जहां हो रहा है, वह नवतीर्थ है। जो कर रहे हैं, वे नवदेव हैं।
इस सफलता का कारण है इसकी साख। सामाजिक जीवन में सबसे बड़ी पूंजी है साख। निश्चित ही वैचारिक और व्यावहारिक तौर पर मूल्य मापक कसौटी,  उस संस्था का निर्मित होता है। वही आधार है साख बनाने का।  लोग उसी कसौटी पर उस संस्था की यात्रा का आकलन करते हैं।  उदाहरण स्वरूप दो शीर्षस्थ नेताओं को लें जो प्रधानमंत्री भी रहे। श्रीमती इंदिरा गांधी एवं श्री राजीव गांधी जी। श्रीमती इंदिरा गांधी ने अपनी छवि सशक्त और दृढ़ नेता की बनाई। पाकिस्तान से बांग्लादेश को अलग करने का श्रेय भी उन्हें मिला। उन्होंने अपने नेतृत्व को भ्रष्टाचार मुक्त छवि बनाने का नहीं सोचा। दृढ़ शक्तिशाली नेता के नाते आपरेशन ब्लूस्टार भी उनका निर्णय था,  इसका भी उस समय लाभ मिला। यह स्पष्ट है कि उनकी दृढ़ता के कारण ही खुफिया पुलिस की सलाह को न मानकर अपनी सुरक्षा व्यवस्था में बदलाव नहीं किया, और मृत्यु का वरण किया। उन्हें आज भी दृढ़ साहसी नेता के रूप में जाना ज

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