हितेश शंकर
भारतीय समाज ही वह एकमात्र समाज है जहां अर्धनारीश्वर की परिकल्पना मिलती है। एक जैसे दिखने वाले दो टुकड़े एक नर हो सकता है, दूसरा नारी हो सकता है यानी स्त्री या पुरुष दोनों में कोई अंतर ही नहीं है। दोनों मिलकर एकात्म होते हैं, परिवार और समाज को रचते हैं
आइए! पहले बीते हफ्ते की तीन खबरों पर दृष्टि डालें :
’ दिल्ली यूनिवर्सिटी की ओवरसाइट कमेटी ने महाश्वेता देवी की लघु कथा 'द्रौपदी' को बीए (आॅनर्स) पाठ्यक्रम से हटा दिया। इस पर वामपंथी शिक्षकों ने नाराजगी जताई और डीयू की एकेडमिक काउंसिल के 15 सदस्यों ने विरोध दर्ज कराया।
’ फिल्म निर्माता कबीर खान ने कहा कि अगर आपने इतिहास पढ़ा है तो यह समझना मुश्किल होगा कि आखिर मुगलों को खलनायक के तौर पर क्यों दिखाया जा रहा है। कबीर खान को लगता है कि मुगल तो असली राष्ट्र-निर्माता थे और उन्हें किस आधार पर हत्यारा दिखाया जा रहा है।
’ फिल्म गीतकार मनोज मुंतशिर ने ट्विटर पर एक वीडियो शेयर किया और पूछा, आप किसके वंशज हैं? अपनी विरासत और हीरो चुनें। वीडियो में वे अकबर, हुमायूं, जहांगीर जैसे मुगल शासकों को ‘डकैत’ कह रहे हैं। इसके अलावा एक चैनल को दिए इंटरव्यू में वे भारत के मध्यकालीन इतिहास को रंगा-पुता बता रहे हैं। मुंतशिर कहते हैं कि इतिहास को 90% वामपंथी इतिहासकारों ने लिखा है, जिसमें राष्ट्र निर्माण नहीं, एक 'एजेंडा' सेट करने की कोशिश की गई है।
ये तीन ऐसे मुद्दे हैं जिन्होंने मौजूदा विमर्श में बीते सप्ताह सबसे अधिक उथल-पुथल मचाई। यानी मुगल और महिला, और महिला को लेकर मानसिकता, ये प्रश्न सबसे अधिक चर्चा में रहे। अगर समग्रता में चर्चा करनी हो तो विमर्श के दोनों बिंदुओं को जोड़कर देखना चाहिए। महिलाओं को लेकर समाज की जो सोच है, जिन खांचों में बांटकर यह विमर्श किया गया है, उन्हीं के शीशे में यदि इसे देखें तो महिलाओं के बारे में मुगल यानी मुस्लिम समाज की क्या सोच है, वामपंथी साहित्यकार इसे कैसे तोड़ते-मरोड़ते हैं, हिंदू समाज की नारी विषयक सोच क्या है, मुगलों का इतिहास क्या है और महिलाओं का हिंदू समाज में क्या स्थान है, महिलाओं का मुस्लिम समाज में क्या स्थान है- ये कुछ आयाम हैं जो इस विमर्श से फूटते हैं।
’ हिंदुस्तान यानी वह देश जहां संस्कृति और समाज एक-दूसरे से प्राण पाते हैं। भारतीय संस्कृति और हिंदू संस्कृति एक-दूसरे की पर्याय हैं। ऐसी संस्कृति जिसमें नारी का वह स्थान है जो किसी अन्य विचार में नहीं मिलेगा। द्रौपदी को नक्सलवादी कहानी का किरदार भर देखने वाली वामपंथी दृष्टि यह नहीं देख पाती कि द्रौपदी महाभारतकालीन ऐसा चरित्र है जो स्त्रीत्व, सम्मान और शील का प्रतीक है।
प्रात:स्मरणीय देवियों में द्रौपदी का नाम शामिल है। यदि द्रौपदी के चरित्र पर हमारे समाज ने प्रश्न उठाए होते, उनका आचरण अनुमन्य नहीं होता तो कोई अपनी पुत्री का नाम द्रौपदी नहीं रखता।
अपवाद को उदाहरण के रूप में सामने रखने वाले इस सत्य से भागते हैं कि यह भारतीय समाज ही वह एकमात्र समाज है जहां अर्धनारीश्वर की परिकल्पना मिलती है। यदि चने का एक दाना है, जिसे दलने पर दो टुकड़े हो जाते हैं, तो एक जैसे दिखने वाले दो टुकड़ों में एक नर हो सकता है, दूसरा नारी हो सकता है यानी स्त्री या पुरुष, दोनों में कोई अंतर ही नहीं है। दोनों मिलकर एकात्म होते हैं, परिवार और समाज को रचते हैं।
किसी अन्य मत में देवी नहीं मिलती, हिन्दू आस्था का आधार ‘देवी’ के बिना पूरा नहीं होता।
शक्ति में, स्थान में, सम्मान में, स्त्री यहां किसी चीज में कम नहीं है। यही वह समाज है जो नारी के ज्ञानार्जन को सम्मान से देखता है। शक्ति के, ज्ञान के, समृद्धि के स्रोत के रूप में नारी के विविध रूपों को पूजता है। यह वह समाज है जहां घर-परिवार में नारी के चरण छूने से न पुरुष अहं को ठेस लगती है, न वह तुच्छ होता है। बल्कि धन्य होता है।
इसके समक्ष यदि दुनिया को आईना दिखाने वाले पश्चिम में महिलाओं की स्थिति को देखें तो हम उसे अत्यंत रूढ़िवादी पाएंगे। वहां महिलाओं को पढ़ने का अधिकार, संपत्ति रखने का अधिकार या मताधिकार का अधिकार उनके सम्प्रभु होने के बहुत बाद में मिला। ब्रिटेन, जिसने दुनिया के कई देशों पर राज किया और जिसका दावा था कि उस पर दुनिया को सभ्य बनाने का बोझ है, में 1918 में महिलाओं को मताधिकार दिया गया। यानी ब्रिटेन को महिलाओं को समान मताधिकार देने में एक सदी लग गई। आधुनिक समय में सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका में 1920 में जाकर महिलाओं को मताधिकार मिला, यानी लोकतंत्र शुरू होने के 144 वर्ष बाद।
इसकी तुलना में भारत की स्थिति देखें तो स्वतंत्रता के तत्काल पश्चात भारत की महिलाओं को मताधिकार मिला। हम ऐसा इसलिए कर पाए क्योंकि महिला समानता समाज को खटकी नहीं। हालांकि तब भी ब्रिटिश अफसर इसके पक्ष में नहीं थे।
डॉक्टर ओर्निट शनि अपनी शोध पुस्तक 'हाउ इंडिया बिकेम डेमोक्रेटिक: सिटिजनशिप ऐट द मेकिंग आॅफ द यूनिवर्सल फ्रैंचाइजी' में लिखती हैं कि ब्रिटिश अधिकारियों ने यह तर्क दिया था कि सार्वभौमिक मताधिकार भारत के लिए सही नहीं होगा। ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में चुनाव सीमित तौर पर होते थे जिसमें धार्मिक, सामुदायिक और व्यावसायिक धाराओं के तहत बांटी गई सीटों पर खड़े उम्मीदवारों के लिए कुछ वोटरों को ही मतदान करने की इजाजत थी। परंतु स्वतंत्र होने पर हमारे समाज ने अपनी संस्कृति के अनुरूप महिलाओं को समान मताधिकार से सुसज्जित किया। भारत में महिलाओं को न सिर्फ मताधिकार मिला बल्कि 1952 में पहले लोकसभा चुनाव में 24 महिलाएं बतौर सांसद चुनकर संसद में आर्इं।
अरब दुनिया में 21वीं सदी में जा कर महिलाओं को मताधिकार देने का सिलसिला शुरू हुआ। कुवैत में 2005 में, यूएई में 2006 में और सऊदी अरब में 2015 में जाकर महिलाओं को वोट करने का अधिकार मिला। सऊदी अरब में महिलाओं को ड्राइविंग की अनुमति जून 2018 में मिली। अभी बहुत से अधिकार हैं जो अरब देशों में महिलाओं को या तो नहीं दिए गए हैं या कुछ शर्तों के साथ दिए गए हैं। सऊदी जगत में महिलाओं को अधिकार मिलने का कारण वहां बाहर के लोगों को पर्यटन के लिए आकर्षित करना है। दरअसल, इस्लामी जगत महिलाओं को बराबर का मानता ही नहीं। वे मानते हैं कि महिलाएं पुरुष के आनंद के लिए बनी हैं, उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, उनके भीतर कोई आत्मा नहीं होती। बहुत उदार होने पर मुस्लिम महिलाओं की गवाही मान्य की गई परंतु एक पुरुष की गवाही की बराबरी करने के लिए दो महिलाओं की गवाही जरूरी मानी गई।
’ अब अगर भारत के संदर्भ में मुगलों के इतिहास पर आएं तो महान बताए जाने वाले मुगल बादशाह अकबर और अन्य मुगल बादशाहों की महिलाओं के बारे में क्या सोच थी, इस पर चर्चा जरूरी हो जाती है। गुलबदन बेगम द्वारा लिखे गए हुमायूंनामा में हरम का उल्लेख है। परन्तु अकबर के काल में हरम को वैधानिकता प्राप्त हुई। अकबर के हरम में 5000 औरतें थीं। इतिहासकार अल बदायूंनी ने मुन्तखाब-उत-तवारीख में लिखा है कि आगरा के सरदार शेख बादाह की बहू थी, जिसका शौहर जिंदा था, मगर अकबर की नजर उस पर गयी तो उसने शेख बादाह के पास संदेशा भेजा कि वह उसकी बहू से निकाह करना चाहता है। मुगल बादशाहों में यह नियम था कि अगर किसी बादशाह ने किसी औरत के साथ शारीरिक सम्बन्ध बनाने के लिए उस पर निगाह डाल दी तो उस औरत के शौहर को हर हाल में तलाक देना ही होगा। और अकबर ने उस लड़की का तलाक करवाकर अपने हरम का हिस्सा बनाया।
फ्रÞेंच इतिहासकार फ्रÞांसुआ बर्नियर अपनी किताब, 'ट्रैवेल्स इन द मुगल एम्पायर' में शाहजहां और उनकी बेटी के बारे में लिखते हैं, ‘‘जहांआरा बहुत सुंदर थी और शाहजहां उन्हें पागलों की तरह प्यार करते थे।’’ बर्नियर ने लिखा है, ‘‘उस जमाने में हर जगह चर्चा थी कि शाहजहां के अपनी बेटी के साथ नाजायज ताल्लुकात हैं। कुछ दरबारी तो चोरी-छिपे ये कहते सुने जाते थे कि बादशाह को उस पेड़ से फल तोड़ने का पूरा हक है जिसे उसने खुद लगाया है।’’
ये महिलाओं के बारे में मुगल आदर्श थे जिन्हें मुस्लिम समाज अपना आदर्श मानता है, बताता है। इस समाज की महिलाओं के बारे में जो सोच है, उसे वे शेष समाजों पर थोपने, उसी दृष्टि से देखने की कोशिश करते हैं।
’ इस सारे विमर्श से इतर एक और संदर्भ आता है। अफगानिस्तान में तालिबान महिलाओं के साथ क्या कर रहा है, यह दुनिया देख रही है। इस तालिबान के अफगानिस्तान पर कब्जे पर दुनिया के मुसलमान जश्न मना रहे हैं जो महिलाओं के लिए आतंक का पर्याय बन गया है। भारत में मुस्लिमों का एक संगठन है-जमीयत उलेमा-ए-हिंद। यह भारत में मुस्लिम महिलाओं के लिए आतंक का पर्याय बन गया है।
जमीयत की वर्तमान चिंता यह है कि मुस्लिम लड़कियां इस्लाम छोड़ रही हैं, हालांकि वह साफ नहीं करता कि क्यों छोड़ रही हैं। परंतु भितरखाने यह फुसफुसाहट चल रही है कि वे दूसरे मतों में विवाह करने के कारण इस्लाम छोड़ रही हैं। यह जमीयत के लिए बड़ा भय बना हुआ है।
गौर कीजिए, एक तरफ मुस्लिम समाज के लड़कों द्वारा अपनी पहचान छिपाकर, दूसरे धर्म-मत की लड़कियों को बरगला कर, उनका भावात्मक और शारीरिक शोषण करके कन्वर्जन के मामले रोज न्यायालयों में आ रहे हैं, दूसरी तरफ इस समाज को लड़कों की मुश्कें कसने की बजाय लड़कियों की चिंता हो रही है। फरेबी लड़कों को छुट्टा छोड़ने और लड़कियों पर लगाम लगाने की कवायद इस्लामी समाज के दोहरे मापदंडों को बेपर्दा कर रही है।
जैसे इस्लाम आज अन्य मतावलंबी लड़कियों के लिए पसंदगी और चयन का तर्क देता है, वैसे ही वह अपने समुदाय की लड़कियों की पसंदगी और चयन की भी बात को स्वीकार करता, तो बात थी।
जाहिर है, वैचारिक तौर पर स्त्री-पुरुष को समान ईश्वरीय तत्व के रूप में देखने वाला समाज इनके समान अधिकारों की बात कर पाता है। जिन समाजों में यह भाव, यह दृष्टि नहीं होती, उनका बर्ताव डार्विन के विकासक्रम के सिद्धांत की तर्ज पर दिखता है जिसके अनुसार इंसान बंदरों से विकसित हुआ है। वह बंदरों की ही तरह जंगली बर्ताव भी करता है। मत भूलिए, बंदर मादा के लिए लड़ते हैं। अन्य समूह की मादा उनके लिए दूसरे क्षेत्र और समूह पर प्रभुत्व जताने, इलाका कब्जाने का औजार होती है।
मुस्लिम समाज के सामने चुनौती यह है कि वह अपने बर्बर पुरखों की राह पर चले या सभ्य समाज की तरह बर्ताव करे।
मुस्लिम समाज के लड़के अन्य समाजों की लड़कियों को बरगला कर ला रहे हैं, तो वह समाज अपने लड़कों से बोले कि लड़कियों से छल, शोषण का यह जंगली तरीका ठीक नहीं है। प्यार का दर्जा यदि मजहब से ऊपर है, जैसा वे कहते हैं, तो फिर वे मुस्लिम लड़के, लड़कियों से अपनी संपत्ति की तरह बर्ताव करने के सोच से बाहर आएं।
यदि मुस्लिम लड़कियां इस्लाम छोड़ रही हैं, तो 'लड़कियों की चाहत की बात' का तर्क उनपर लागू क्यों नहीं होता!
अगर मुस्लिम समाज इस द्वंद्व से निकल पाता है तो वह सभ्य समाज को बता पाएगा कि उसके पूर्वज भले कबाइली रहें हों परन्तु आधुनिक धारा में वह समान जंगली और बर्बर नहीं है। भारतीय संस्कृति उन्हें प्रगतिशील होने का अवसर दे रही है।
मुस्लिम समाज इतिहास के कूड़ेदान से हिंसक, दुराचारियों को महान बताने की जिद छोड़कर इस समाज-संस्कृति के गर्वीले संस्कारों से अपने नायक ढूंढे, तब जाकर बात बनेगी।
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