हितेश शंकर
1950 में फीफा विश्व कप के लिए केवल 30 शेष थे जब फीफा को भारतीय फुटबॉल संघ से तार संदेश प्राप्त हुआ लिखा था – ‘विश्व कप में भाग लेने में असमर्थ। ब्राजील को सूचित करें’ अचानक इतना बड़ा निर्णय तत्कालीन सरकार की सहमति के बिना नहीं हो सकता था। पत्र से नेहरू सरकार पर सवाल उठे और बिना जूतों के फुटबॉल खेलने को मजबूर टीम के चित्रों से दुनिया भर में भारत की किरकिरी हुई थी।
खिलाड़ियों को अपने शून्य या अल्प संसाधनों में अपनी इच्छाशक्ति से प्रारंभ करना होता था। उन्हें प्रारम्भिक समर्थन भी नहीं मिलता था। साथ ही खिलाड़ियों को अधेड़पन की उधेड़बुन से गुजरना पड़ता था। यानी खेलकूद की उम्र बीतने के बाद आमदनी का उनका कोई माध्यम नहीं बन पाता था
प्रेमी की वेदना को व्यक्त करती पुराने गीत की पंक्तियां हैं-
जिनके होंठों पे हंसी, पांव में छाले होंगे।
हां! वही लोग, तेरे चाहने वाले होंगे।।
प्रेम में भले अतिशयोक्ति लगे किन्तु ये पंक्तियां भारत में उन लाखों लोगों की स्थिति पर सटीक बैठती हैं जिन्होंने बचपन में किसी खेल को जी-जान से चाहा। जवानी खेल के जुनून में खपा दी लेकिन अंत में सरकारी उदासीनता और सामाजिक उपेक्षा ने उनका दिल तोड़ दिया।
ज्यादा पुरानी बात नहीं जब खेल को समय खराब करने वाली, बेकार की बात माना जाता था। कहा जाता था कि ‘पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे नवाब-खेलोगे-कूदोगे होगे खराब’। यहां नवाब का अर्थ यह था कि आपको कोई काम नहीं करना पड़ेगा, आनंदपूर्वक जीवन जीने को मिलेगा और खेल का अर्थ यह कि आप जीवन में कोई काम करने लायक नहीं रहेंगे।
किन्तु यह सोच बदलने के साथ ही तस्वीर बदल रही है।
एकल खेलों में भविष्य के लिए उम्मीद की आहटों के साथ ही
भारतीय पुरुष हॉकी टीम 41 वर्ष बाद ओलंपिक में कोई पदक जीतने में सफल हुई है। देश में उत्सव का, आशा का वातावरण है।
स्वतंत्रता के बाद की फुटबॉल टीम के दौर को याद करें। तब भारतीय टीम के खिलाड़ियों के पास पहनने को सही जूते और कपड़े तक नहीं होते थे। यह वह दौर था जब देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कपड़े विदेश से धुल कर आते थे। राजनीति अपने में मस्त और व्यस्त थी। उसे लगता नहीं था कि खेल राष्ट्रीय गौरव बढ़ा सकते हैं या खेलकूद सामाजिक जीवन की जरूरी चीज है।
राष्ट्रीय सुरक्षा और साख के मोर्चों की खस्ताहाली इस तरह समझ सकते हैं कि तब लड़ते हुए सैनिकों के पास हथियार की कमी थी तो खेलते हुए खिलाड़ियों के पास जूते तक नहीं थे।
नैसर्गिक गुण, चमत्कारिक प्रतिभा के बूते कुछ खिलाड़ी कभी-कभी अच्छा प्रदर्शन करते थे किन्तु सतत सहयोग देने वाला तंत्र, व्यवस्थाएं, संसाधन ना बराबर ही थे। तंत्र था भी तो उसमें भ्रष्टाचार स्थाईभाव से पसरा था। खेल यानी राजनीति का पेट भरने के लिए पैसे का खेल। हाल में दिल्ली राष्ट्रमंडल खेलों तक यह देश यही सब तो देख रहा था!
खेल के प्रति जो दृष्टि होनी चाहिए थी, वह दृष्टि नहीं थी। खिलाड़ियों की जो चिंता और संभाल होनी चाहिए थी, वह नहीं थी।
खिलाड़ियों को अपने शून्य या अल्प संसाधनों में अपनी इच्छाशक्ति से प्रारंभ करना होता था। उन्हें प्रारम्भिक समर्थन भी नहीं मिलता था। साथ ही खिलाड़ियों को अधेड़पन की उधेड़बुन से गुजरना पड़ता था। यानी खेलकूद की उम्र बीतने के बाद आमदनी का उनका कोई माध्यम नहीं बन पाता था।
खेलों के जानकार और खिलाड़ी मानते हैं कि विगत कुछ वर्षों में केवल सत्ता का राजनीतिक हस्तांतरण नहीं हुआ बल्कि इस बीच खेल की संस्कृति आमूलचूल बदली है, खेल के प्रति दृष्टि बदली है। जो अच्छा खेल रहे हैं, उन्हें बढ़ावा देने के अतिरिक्त छोटी उम्र से ही बच्चों में खेल प्रतिभा को पहचान कर उन्हें उस दिशा में प्रवृत्त करने, प्रेरित करने के उपक्रम व्यवस्थित रूप से आकार ले रहे हैं।
जहां प्रतिभा है, वहां संसाधन नहीं थे। पूर्वोत्तर का उदाहरण लें, मणिपुर की मीराबाई चानू ने रजत पदक जीत कर इस बार ओलंपिक में देश का नाम रोशन किया है। इससे पहले मैरीकॉम थीं। वहां के बच्चों में खेल के लिए एक नैसर्गिक त्वरा, और उत्साह है, खेल के लिए जुनून है। प्रतिभा और सम्भावनाओं के इस भंडार को देखते हुए सरकार ने मणिपुर में खेल विश्वविद्यालय खोल दिया।
ऐसी एक नहीं अनेक पहलें हैं और हरेक महत्वपूर्ण है क्योंकि कम उम्र में प्रतिभा की पहचान खिलाड़ी को लंबा करियर और जीवनयापन की दृष्टि से स्थायित्व देती है।
अब खिलाड़ियों के लिए नौकरी, घर, अनुदान, रियायत की भी अपेक्षाकृत अच्छी चिंता की जा रही है।
अंतर को इस बात से भी समझा जा सकता है कि इन छोटे-छोटे प्रयासों ने सम्भावनाओं का फलक बड़ा कर दिया है। पहले ओलंपिक में पदक की आस में पूरे देश की नजरें महज हॉकी और मेजर ध्यानचंद सरीखे नैसर्गिक चमत्कार पर टिकी होती थीं। जीत गए तो अच्छा, वरना शून्य आंकड़े के साथ ओलंपिक में गया पूरा भारतीय दल चुपचाप लौट आता था। आज कई खेलों में पदकों की आस बनी, बढ़ी और कई खेलों में पूरी हुई है। कुछ खेलों में पदक भले छूटा, परंतु दावेदारी बढ़िया रही। ऐसा भी पहली बार हुआ कि पिछले ओलंपिक में पदक जीतने वाली खिलाड़ी ने दोबारा पदक जीता। कुछ नए खिलाड़ियों ने पदक भले न जीते हों, परंतु अपने जुनून से, संघर्ष करने के अपने जज्बे से भविष्य के लिए उम्मीद जगा दी।
सरकार के लिए अपना बड़ा कार्य यह है कि जीत के इस जज्बे को बनाए रखने पर काम करे। भारत में प्रतिभाएं हैं, खिलाड़ियों में लगन भी है, मेहनत करने की अदम्य इच्छाशक्ति भी है, आवश्यकता इस बात की है कि खेल के लिए पनपी इस संस्कृति की निरंतरता बनी रहे।
@hiteshshankar
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