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होम भारत उत्तर प्रदेश

पश्चिम बंगाल: अदालती आदेश का आसरा

by WEB DESK
Jul 12, 2021, 12:05 pm IST
in उत्तर प्रदेश
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अनूप भटनागर
 


पश्चिम बंगाल में चुनावी नतीजों के बाद हुई हिंसा से जनता भयाक्रांत है, न्यायालय पीड़ितों में भरोसा पैदा करने में जुटे हैं और ममता सरकार जनता को राहत देने के हर कदम पर अड़ंगा लगाने को आतुर दिख रही हैं। बंगाल में एक ऐसा लोकतंत्र चल रहा है जिसमें न्यायपालिका जनता और कानून-व्यवस्था के पक्ष में है और निर्वाचित सरकार जनता और कानून व्यवस्था के विरुद्ध

ऐसा लगता है कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया शुरू होने के समय से ही मुख्यमंत्री और तृणमूल कांग्रेस की मुखिया ममता बनर्जी ने समूची व्यवस्था से मोर्चा लेने की ठान रखी है। उन्होंने पहले निर्वाचन आयोग पर आक्षेप लगाए, केंद्रीय सुरक्षा बलों को निशाना बनाया, तृणमूल कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को चुनाव नतीजों के बाद छुट्टा छोड़ा जिसके नतीजे में राज्य में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा और सामूहिक बलात्कार की घटनाएं हुर्इं।

पीड़ितों को अदालत पर भरोसा
राज्य में चुनाव नतीजे आने के बाद दो मई से हिंसा और सामूहिक बलात्कार का तांडव शुरू हुआ। हिंसा के दौरान असहाय महिलाओं से कथित सामूहिक बलात्कार की घटनाओं के वृत्तांत ने सहज ही कुछ पुराने कांडों की याद ताजा करा दी। अब देखना यह है कि इन बलात्कार पीड़ितों को जल्द न्याय मिलेगा या फिर इन्हें भी लंबे समय तक कानूनी दांव-पेचों का सामना करना पड़ेगा। हत्या और सामूहिक बलात्कार  की घटनाओं को लेकर कुछ याचिकाएं उच्चतम न्यायालय में भी दायर की गई हैं।
पश्चिम बंगाल में सांप्रदायिक हिंसा और सामूहिक बलात्कार की शिकार महिलाओं के सामने 2002 की कुछ सामूहिक बलात्कार की घटनाओं में देश की शीर्ष अदालत की सक्रिय भूमिका एक नजीर है। यही वजह है कि राज्य में सांप्रदायिक हिंसा और सामूहिक बलात्कार के पीड़ित चाहते हैं कि उच्चतम न्यायालय इनका संज्ञान लेने के बाद इन्हें विशेष जांच दल को सौंपे और मुकदमों की सुनवाई राज्य के बाहर किसी अदालत
में कराए।

निष्ठुर ममता
राज्य सरकार शुरू से ही हिंसा और बलात्कार जैसी घटनाओं से सिरे से इनकार करती आ रही थी और यही वजह थी कि बार बार यह सवाल उठा कि अगर रक्षक ही भक्षक की भूमिका में आ जाए तो जनता का क्या होगा? क्या वजह है कि राज्य में हिंसा के दौरान पुलिस मूक बनी रहती है। लोगों का बड़ी संख्या में पलायन होता है और राज्यपाल को इन विस्थापितों से मिलने के लिए दूसरे राज्य जाना पड़ता है।
राज्यपाल जगदीप धनकड़ को राज्य सरकार ने हेलिकॉप्टर उपलब्ध कराने में असमर्थता व्यक्त की तो उन्हें सुरक्षा बल के हेलिकॉप्टर से पड़ोसी राज्य असम जाकर विस्थापितों से मिलना पड़ा। स्थिति यह हो गई कि अपनी कारगुजारियों और हठधर्मिता की वजह से चारों ओर से घिरी ममता बनर्जी ने न्यायपालिका को भी नहीं बख्शा और उसे भी किसी न किसी तरह विवाद में घसीटने का प्रयास किया।

किसी भी तरह से बचने का कोई रास्ता नहीं मिलने पर ममता बनर्जी ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी शुवेंदु अधिकारी के नंदीग्राम से निर्वाचन को उच्च न्यायालय में चुनौती दी और इसके कुछ दिन बाद ही उन्होंने एक आवेदन दायर कर इस मामले की सुनवाई करने वाले न्यायमूर्ति कौशिक चंदा की निष्पक्षता पर सवाल उठाये। ममता बनर्जी ने अपने आवेदन में अनुरोध किया कि न्यायमूर्ति कौशिक चंदा को इस मामले की सुनवाई से अलग हो जाना चाहिए। इसका नतीजा यह हुआ कि न्यायमूर्ति चंदा ने सात जुलाई को खुद को इस मामले से अलग कर लिया लेकिन यह मांग करने के तरीके पर ममता बनर्जी पर पांच लाख रुपये का जुर्माना लगाया और कहा कि वे विवाद को जिंदा रखने की कोशिशों को विफल करने के लिए ऐसा कर रहे हैं।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी चुनाव बाद की हिंसा की घटनाओं से अपना पीछा छुड़ाने और किसी न किसी तरह सत्ता पर काबिज रहने के प्रयास कर रही हैं। यह दीगर बात है कि इन घटनाओं से ममता बनर्जी सरकार के इनकार से कलकत्ता उच्च न्यायालय संतुष्ट नहीं है। होता भी कैसे, आखिर राज्य में हिंसा के इस तांडव की खबरें मीडिया में आ रही थीं और राज्यपाल जगदीप धनकड़ तक खुद को असहाय पा रहे थे। समय बीतने के साथ ही उसका रवैया भी सख्त होता नजर आ रहा है।
यही वजह थी कि उच्च न्यायालय के कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश राजेश बिंदल की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय पीठ ने 18 जून को चुनाव बाद की हिंसा से संबंधित सारी घटनाओं की विस्तृत जांच के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को एक जांच समिति गठित करने का निर्देश दिया। लेकिन यह क्या, तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों ने आयोग के सदस्यों पर भी हमला बोला और उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठाये।

रिपोर्ट से अदालत हतप्रभ
बहरहाल, तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों के इस हिंसक रवैये के बीच ही मानवाधिकार आयोग की जांच समिति ने अपना काम करके अपनी अंतरिम रिपोर्ट उच्च न्यायालय को सौंप दी। इस रिपोर्ट को देखकर अदालत भी हतप्रभ रह गयी। रिपोर्ट में तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों द्वारा प्रतिद्वंदी भाजपा के समर्थकों को चुन-चुन कर निशाना बनाने, उनकी संपत्ति नष्ट करने और महिलाओं से सामूहिक बलात्कार की अनेक घटनाओं का विवरण था। राज्य में हिंसा की इन घटनाओं में कम से कम 16 व्यक्ति मारे गये थे।

स्थिति की गंभीरता को देखते हुए उच्च न्यायालय ने राज्य के मुख्य सचिव एचके द्विवेदी को चुनाव बाद की हिंसा से संबंधित सारे दस्तावेज सुरक्षित रखने का निर्देश देने के साथ ही पश्चिम बंगाल सरकार को सारे मामले दर्ज करने, पीड़ितों को समुचित राहत प्रदान करने और घायलों का उपचार करने का निर्देश देने के साथ ही जाधवपुर के जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक को कारण बताओ नोटिस जारी करके पूछा कि उनके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई क्यों नहीं शुरू की जाए?

यही नहीं, उच्च न्यायालय ने मानवाधिकार आयोग को हिंसा की इन घटनाओं की अब 13 जुलाई तक जांच करने का निर्देश दिया है। हालांकि, इस बीच, ममता बनर्जी सरकार ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग से हिंसा की इन घटनाओं की जांच कराने का आदेश उच्च न्यायालय से वापस लेने का अनुरोध किया लेकिन उसे इसमें सफलता नहीं मिली है।

इस बीच, उच्चतम न्यायालय में भी एक याचिका दायर करके पश्चिम बंगाल में चुनाव बाद हुई हिंसा की घटनाओं की जांच एसआईटी से कराने का अनुरोध किया गया है। इस याचिका पर शीर्ष अदालत ने निर्वाचन आयोग, केन्द्र सरकार और पश्चिम बंगाल सरकार को नोटिस जारी करके जवाब मांगा है।

पीड़ितों को न्यायपालिका पर भरोसा
मानव अधिकारों की रक्षा के मामले में उच्चतम न्यायालय की संवेदनशीलता और सक्रियता के मद्देनजर ही पश्चिम बंगाल की ये पीड़ित महिलाएं और हिंसा में अपने पति या भाई को खोने वाली जनता अब इन घटनाओं की निष्पक्ष जांच के लिए विशेष जांच दल गठित करने और पीड़ितों के लिए उचित मुआवजे की खातिर न्यायपालिका की ओर नजर गड़ाए है।

मौजूदा परिस्थितियों में यह उम्मीद की जा सकती है कि न्यायपालिका सांप्रदायिक हिंसा और सामूहिक बलात्कार की इन तमाम घटनाओं की निष्पक्ष जांच कराएगी। यही नहीं, न्यायपालिका इस तरह की घटनाओं के दौरान निष्क्रियता दिखाने वाले पुलिस तथा प्रशासन के अधिकारियों के साथ ही हिंसा, आगजनी, लूटपाट और बलातकार करने वाले तृणमूल कांग्रेस के समर्थकों तथा असामाजिक तत्वों के खिलाफ कठोर कार्रवाई सुनिश्चित की जाएगी ताकि दुबारा कोई भी राजनीतिक दल इस तरह से लोकतांत्रिक प्रक्रिया का मखौल उड़ाने और अपने राजनीतिक विरोधियों के समर्थकों को आतंकित करने के लिए धन और बाहुबल का प्रयोग नहीं कर सके।

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