आतंक को पोषण, खुद खाने के लाले
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होम भारत दिल्ली

आतंक को पोषण, खुद खाने के लाले

by WEB DESK
Jun 30, 2021, 05:22 pm IST
in दिल्ली
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एस. वर्मा


पाकिस्तान अपनी अदूरदर्शितापूर्ण नीतियों के कारण खाद्य सुरक्षा और आर्थिक संकट के भीषण दुश्चक्र में फंस गया है। गेहूं की बम्पर पैदावार के बाद भी पाकिस्तान सरकार को अपनी जनता के लिए गेहूं का आयात करना पड़ रहा है। इससे उसके खाद्यान्न आयात बिल में भारी बढ़ोतरी हुई है। गेहूं का रकबा बढ़ने से गन्ने और कपास की खेती पर असर पड़ा है जिससे औद्योगिक गतिविधियां प्रभावित हुई हैं

भारत विभाजन के कारण अस्तित्व में आये पाकिस्तान को सिंध और उसकी सहायक नदियों के विस्तृत मैदानों पर अधिकार मिला, जो गेहूं उत्पादन का पारंपरिक क्षेत्र था, और उस समय यह संदेह प्रबल था कि भारत इसके बगैर अपनी आबादी की खाद्य जरूरतों को कैसे पूरा कर सकेगा? परन्तु आज भारत अपनी 135 करोड़ से अधिक जनसंख्या को खाद्य सुरक्षा उपलब्ध कराने में सक्षम है, जबकि पाकिस्तान अनुकूल उपज के बाद भी अपनी आबादी का पेट भरने के लिए संघर्ष कर रहा है। खाद्यान्न का लगातार आयात इस देश में एक नियमित प्रक्रिया बन गया है। इसी क्रम में पाकिस्तान के वित्त एवं राजस्व मंत्री शौकत तारिन की अध्यक्षता में बुधवार को हुई मंत्रिमंडल की इकोनोमिक कोआॅर्डिनेशन काउंसिल (ईसीसी) की बैठक मे 3 मिलियन मीट्रिक टन गेहूं के आयात को मंजूरी दी गई। यह दिखने में एक साधारण-सी प्रक्रिया है जिसमें अनाज की कमी होने पर उसका आयात स्वाभाविक है, परन्तु पाकिस्तान के नवीनतम कृषि सम्बन्धी आंकड़े बताते हैं कि इस वर्ष गेहूं की बम्पर पैदावार हुई है, जिसने पुराने सारे कीर्तिमानों को ध्वस्त कर दिया है।

गेहूं : कितना पर्याप्त?
पाकिस्तान कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार इस सीजन में गेहूं का अब तक का सर्वाधिक 28.75 मिलियन टन उत्पादन हुआ है, जो इस वर्ष के 26.78 मिलियन टन के लक्ष्य से 20 लाख टन अधिक है। इस वृद्धि के पक्ष में सरकार ने अनेक तर्क दिए हैं। उसका दावा है कि गेहूं की फसल के तहत आने वाले क्षेत्र में 3.25 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जिसके कारण यह वृद्धि देखने को मिली है। इसके साथ इस पूरे फसल चक्र के दौरान प्राकृतिक कारकों ने भी अनुकूलता दिखाई,  जिससे फसल स्वस्थ रही और पीले रस्ट के हमले से प्रतिरोधकता में भी वृद्धि हुई, जिससे पैदावार भी बढ़ी। गेहूं की फसल के अंतर्गत पिछले साल गेहूं को मिली बेहतर कीमत के चलते उत्पादकों ने गेहूं के उत्पादन को वरीयता दी। परन्तु वहां कृषि और आर्थिक मामलों के अनेक विशेषज्ञ ऐसे हैं जिन्हें इन आधिकारिक आंकड़ों पर संदेह है क्योंकि सरकार ने उपज बढ़ाने के समर्थन में जो तर्क दिए हैं, वे पर्याप्त नहीं हैं। सो पाकिस्तान इस  रिकॉर्ड उत्पादन के बाद भी खाद्य सुरक्षा हासिल करने से बहुत दूर है।

पाकिस्तान की गेहूं की जरूरत
पाकिस्तानी कृषि मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली फेडरल कमेटी आॅन एग्रीकल्चर (एफसीए) के एक अनुमान के अनुसार अगली फसल आने तक पाकिस्तान को 2.95 करोड़ टन गेहूं की आवश्यकता होगी। पाकिस्तान एग्रीकल्चर रिसर्च काउंसिल  (पीएआरसी) के एक  अनुमान के अनुसार पाकिस्तान में प्रति व्यक्ति गेहूं की खपत 125 किलोग्राम प्रति वर्ष है,  क्योंकि पाकिस्तान  एक कम आय वाला देश है, और ऐसी स्थिति में अनाज ही एक सामान्य नागरिक के दैनिक आहार का अधिकतम हिस्सा बनता है, और पाकिस्तान में यह औसतन 60 प्रतिशत है। आज पाकिस्तान की जनसंख्या 22 करोड़ से अधिक है।  इस हिसाब से उसके पास खाद्य सुरक्षा को पूरा करने के लिए पर्याप्त गेहूं दिखाई देता है, जो कि वास्तव में है नहीं। यह सारा गेहूं उपभोग के लिए उपलब्ध नहीं होता। अगले साल फसल की बुआई के लिए बीजों के रूप में एक मिलियन टन से अधिक गेहूं की आवश्यकता होगी। देश की जनसंख्या में करीब 15 से 20 लाख अफगान शरणार्थी हैं, जो खैबर पख्तूनख्वा और उत्तर पश्चिम की जनजातीय पट्टी में संकेंद्रित हैं, इन्हें भी बड़ी मात्रा में जरूरत होती है। इसके साथ इस पट्टी से होते हुए अफगानिस्तान को बड़ी मात्रा में गेहूं की तस्करी होती है। इसके अलावा  10 लाख टन से अधिक का रणनीतिक भंडारण भी आवश्यक हिस्सा है। कुल मिलाकर पाकिस्तान इतने उत्पादन के बावजूद कम से कम 30 से 50 लाख टन गेहूं की कमी से जूझ रहा है।

आर्थिक संकट को निमन्त्रण
स्पष्ट है कि दिवालियापन के कगार पर खड़े पाकिस्तान के लिए बढ़ता खाद्य आयात बिल, विदेशी मुद्रा की कमी से जूझती सरकार के लिए कष्ट का बड़ा कारण है। चालू वित्त वर्ष (2021) के 10 महीनों के दौरान पाकिस्तान का खाद्य आयात बिल सालाना आधार पर 53.93 प्रतिशत बढ़कर 6.899 अरब डॉलर हो गया है, जिसकी प्रमुख वजह कृषि उपज के घरेलू उत्पादन में कमी को पूरा करने के लिए आयात का सहारा लेना है, जिसमें गेहूं और चीनी सबसे बड़ी मदें हैं। पाकिस्तान के सांख्यिकी ब्यूरो (पीबीएस) के संकलित आंकड़ों के मुताबिक कुल आयात बिल में खाद्य पदार्थों की हिस्सेदारी पिछले साल के 11.79 प्रतिशत की तुलना में इस साल बढ़कर 15.41 प्रतिशत तक पहुंच गई, जिसका सीधा अर्थ है कि अपने लोगों  की खाद्य सुरक्षा के लिए पाकिस्तान की आयात पर निर्भरता लगातार बढ़ती ही जा रही है। इन सारी समस्याओं की जड़ में पाकिस्तानी सरकार की अदूरदर्शितापूर्ण नीतियां और निर्णय रहे हैं। यह स्पष्ट है कि पिछले एक दशक के दौरान गेहूं के उत्पादन में तीन बार भारी गिरावट देखने में आ चुकी है। 2012 में गेहूं उत्पादन में -6.9 प्रतिशत की गिरावट देखी गई थी, वहीं 2015 में -3.44 प्रतिशत, और 2019 में -3.19 प्रतिशत की गिरावट देखने में आई। पर इसके साथ-साथ एक आश्चर्यजनक विरोधाभास यह भी है, कि इस पूरे कालखंड में गेहूं के तहत आने वाले क्षेत्रफल में वृद्धि हुई! जिसका अर्थ है कि गेहूं की प्रति एकड़ पैदावार गिरती जा रही है। प्रमाणित बीजों की अनुपलब्धता और आवश्यक उर्वरक की मात्रा में कमी इस गिरावट के दो प्रमुख कारण हैं, जिसके चलते पाकिस्तान का गेहूं उत्पादन प्रति हेक्टेयर 3 टन के भी नीचे आ गया है।

पाकिस्तान में जहां क्षेत्रफल बढ़ने के बाद भी गेहूं का उत्पादन पिछड़ रहा है, वहीं यह कृषि के दूसरे महत्वपूर्ण क्षेत्र के साथ पूरी अर्थव्यवस्था को भी नुकसान पहुंचा रहा है। जैसा कि ऊपर बताया गया है कि साल दर साल गेहूं के अंतर्गत बुआई क्षेत्र बढ़ रहा है, जिसकी कीमत दो प्रमुख नकदी फसलों गन्ना और कपास को चुकानी पड़ रही है। इन दो नकदी फसलों के रकबे में कटौती का सीधा अर्थ है, घरेलू जरूरतों की पूर्ति के लिए शक्कर और कपास का आयात। यह एक महंगा सौदा है, और इससे गेहूं के उत्पादन से हुए लाभ की तुलना में आयात बिल में कहीं अधिक वृद्धि हो जाती है। यह पाकिस्तान के द्वितीयक क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली बड़े पैमाने पर निर्माण की गतिविधियों को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है क्योंकि कपड़ा उत्पादन पाकिस्तान के निर्माण क्षेत्र की सबसे प्रमुख गतिविधि है।

इस प्रकार यह विपदा का एक भीषण दुश्चक्र है, जिसमें पाकिस्तान बुरी तरह से फंस गया है। बेरोजगारी और गरीबी के चलते जहां एक ओर लोगों की क्रयशक्ति में भारी गिरावट आई है, वहीं खाद्य पदार्थों में कमी के चलते इनके दाम आम आदमी की पहुंच से बाहर हो चुके हैं। ‘नए पाकिस्तान’ और ‘मदीना के राज्य’ की स्थापना के वायदे पर सरकार में आये इमरान खान, जनता की सुध लेने को तैयार नहीं हैं। सरकार का नाकारापन इस स्थिति को और कहां तक लेकर जाएगा, यह जिंघासा का विषय है।    

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