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मातृभाषा की अनदेखी घातक

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Feb 12, 2018, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 12 Feb 2018 11:11:19


शिक्षा में मातृभाषा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान होना चाहिए, क्योंकि भाषा ही संस्कृति की वाहिका होती है। यह भी शाश्वत सत्य है कि किसी भी देश की वैश्विक पहचान उसकी संस्कृति से ही होती है

 

डॉ. ओम प्रभात अग्रवाल

संयुक्त राष्ट्र की आनुषांगिक संस्था यूनेस्को ने 21फरवरी, 2000 को अपने पेरिस मुख्यालय में मातृभाषा दिवस मनाया और विश्व के सभी देशों से प्रत्येक वर्ष इस दन को इसी रूप में मनाने की अपील की। उसी समय से अंतरराष्टÑीय स्तर पर 21 फरवरी, का दिन मातृभाषा दिवस के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
स्पष्टत: यूनेस्को ने अपनी भाषा की उपेक्षा करने तथा चंद विदेशी भाषाओं को अपनाने की वैश्विक दुष्प्रवृत्ति में वृद्धि होते देखकर मातृभाषा के महत्व को रेखांकित करने के लिए ही ऐसा निर्णय किया। लगभग 25-30 वर्ष पूर्व भी इसी संस्था ने एक मार्गदर्शिका प्रसारित की थी कि शिक्षा की जड़ें उसी देश की संस्कृति में ही होनी चाहिए। इसका तात्पर्य यह था कि शिक्षा में सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान मातृभाषा का होना चाहिए, क्योंकि भाषा ही संस्कृति की वाहिका होती है। वहीं यह भी सत्य है कि किसी भी देश की वैश्विक पहचान उसकी संस्कृति से ही होती है। स्पष्टत: अपनी भाषा के मूल्य पर किसी विदेशी भाषा को वरीयता देने का अर्थ है अपनी संस्कृति को धीमा विष देना, प्रगति को कुंठित करना एवं अपनी विशिष्ट पहचान पर कुठाराघात करना। इन्हीं कारणों से 1968 में लोकसभा द्वारा स्वीकृत कोठारी शिक्षा समिति की रपट में शिक्षण के त्रिभाषा सूत्र में मातृभाषा को सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान दिया गया था। यद्यपि देश की विचित्र परिस्थितियों के कारण इसका प्रभावी कार्यान्वयन हो नहीं पाया। यदि ऐसा हो गया होता, तो आज भारत की प्रगति दोगुनी दिख सकती थी। पीआईएसए की रपट के अनुसार, पिछले दस साल से प्रारंभिक शिक्षा में विज्ञान के क्षेत्र में जो पहले दस देश हैं, उनमें से एक-दो को छोड़कर शेष सभी अपनी भाषा के ही माध्यम से शिक्षण देते हैं। ये भाषायें हैं- चीनी, जापानी, कोरियन, जर्मन, फ्रेंच, रूसी, स्पेनिश आदि।
बड़े दुर्भाग्य की बात है कि भारत जैसे अत्यंत प्राचीन सभ्यता वाले महादेश में मातृभाषा को वह स्थान प्राप्त नहीं है, जो उसे मिलना चाहिए। इसका स्पष्ट प्रभाव शिक्षा व्यवस्था एवं युवक वृंद के भविष्य पर पड़ रहा है। निश्चित है कि आने वाले समय में भारत की विज्ञान आदि क्षेत्रों में प्रगति बुरी तरह बाधित होगी। अक्तूबर 2017 में प्रख्यात हिंदी समर्थक श्री राममनोहर लोहिया की 50वीं पुण्यतिथि पर भारत सरकार के मंत्री श्री राम विलास पासवान ने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए अत्यंत पीड़ा के साथ कहा कि भारत में अभी भी अंग्रेजी ही अभिजात्य वर्ग की भाषा है और नौकरशाही तो स्पष्ट रूप से हिंदी विरोधी है। फलस्वरूप, नौकरियों तथा उच्च शिक्षा में अंग्रेजी का बोलबाला है और गली-गली अंग्रेजी माध्यम विद्यालय खुलते जा रहे हैं। इन सबके बाद भी सच तो यह है कि विद्यार्थियों में अंग्रेजी ज्ञान का स्तर गिरता जा रहा है। वर्ल्ड इंग्लिश प्रोफिशियेंसी इंडेक्स की नवीनतम रपट के अनुसार, इंडेक्स में भारत का स्थान निरंतर ढलान पर है। उच्च एवं तकनीकी शिक्षा की राह में विद्यार्थियों का घटता अंग्रेजी ज्ञान बहुत बड़ी बाधा बन कर उभर रहा है। इसी समस्या के कारण हरियाणा में विद्यार्थी पॉलीटेक्लिक पाठ्यक्रम में कम रुचि दिखा रहे हैं, जिसके कारण राज्य सरकार को अब इस पाठ्यक्रम का माध्यम हिंदी करने का निर्णय लेना पड़ा है। अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि भारत सरकार के वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग तथा केंद्रीय तकनीकी शिक्षा मंत्रालय ने इस निर्णय के कार्यान्वयन में पूर्ण सहयोग का वचन दिया है। एक रपट के अनुसार, 2016 में आईआईटी संस्थानों में प्रवेश पाने वाले 1,000 युवकों में तीस प्रतिशत भाषागत समस्या से त्रस्त थे। स्मरणीय है कि इनमें अच्छी-खासी संस्था उनकी भी थी, जिनकी प्रारंभिक शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी था। इन सभी के लिए अंतत: अलग से कोचिंग की व्यवस्था करनी पड़ी। फिर भी 60 छात्रों का प्रवेश रद्द करना पड़ा। वस्तुत: प्रतिवर्ष आईआईटी संस्थानों में इस समस्या के कारण 4-5 युवक आत्महत्या कर लेते हें। पिछले 5-6 वर्षों में आईआईटी चेन्नै में दस छात्रों ने अपने जीवन का अंत कर लिया। 2010 में एआईआईएमएस दिल्ली के छात्र अनिल कुमार ने भी इसी कारण मौत का रास्ता चुना।
चिकित्सा पाठ्यक्रमों में भी अंग्रेजी माध्यम बहुत बड़ी समस्या बन चुका है। कुछ समय पूर्व इन पंक्तियों के लेखक के रोहतक स्थित मेडिकल कॉलेज के एक डॉक्टर मित्र ने बताया था कि अब नए शिक्षार्थियों को कोचिंग की आवश्यकता पड़ने लगी है। इन पाठ्यक्रमों का नया प्रारूप तैयार कर रहे डॉ. जगदीश कुमार ने अक्तूबर 2017 में कहा कि इन पाठ्यक्रमों के माध्यम के रूप में वे मातृभाषा का विकल्प देने का प्रस्ताव रखने जा रहे हैं। पहले जिन एजेंसियों का उल्लेख किया जा चुका है, वे इस कार्य को भी पूर्णता तक पहुंचाने में निश्चित रूप से सहायक होंगी। शोध प्रबंधों के लेखन में भी चोरी (प्लैजियरिज्म) की समस्या बढ़ती जा रही है। दिसंबर 2017 में पेरिस स्कूल आॅफ इकोनॉमिक्स के डॉ. अल्बर्ट पी. रायन तथा अमेरिका के टेक्सास विश्वविद्यालय की छात्रा संचना नटराजन ने इस बात की पुष्टि की। अवश्य ही अंग्रेजी की सतही समझ के कारण विषय का गहन ज्ञान हो नहीं पाता और यही इस कुप्रवृति को बढ़ावा देता है। एएसईआर की रपट के अनुसार, मातृभाषा के माध्यम से विद्यार्थी गणित और विज्ञान जैसी कठिन विषयों को अधिक अच्छी तरह समझने में सफल हुए, जबकि अंग्रेजी माध्यम से सैद्धांतिक भ्रांतियां उत्पन्न हुर्इं। इसी प्रकार एनएमईआरसी के मुख्य सलाहकार श्री अजीत मोहंती का विचार है कि अंग्रेजी माध्यम से बच्चों को शिक्षा देना कोरी नामसझी है।
वास्तविकता यह है कि आज विद्यार्थी को मातृभाषा एवं हिंदी का समुचित ज्ञान हो नहीं पाता, जबकि अंग्रेजी का ज्ञान सतही रह जाता है। फलस्वरूप, रोज की बोलचाल में अंग्रेजी और मातृभाषा की जबरदस्त खिचड़ी पक रही है। लोग अपनी भाषा का असली स्वरूप, उसके मुहावरे आदि भूलते जा रहे हैं। कुछ समय पूर्व विश्व की प्रतिष्ठित भाषाशास्त्री एला फ्रांसिस सैंडर्स ने 2016 में भारत आगमन पर हिंदी के विषय में अपने इस निष्कर्ष को अभिव्यक्ति दी थी। स्पष्ट है कि यह प्रवृत्ति धीरे-धीरे हमारी पुरातन संस्कृति से भी हमें विलग कर देगी।
शिक्षा तंत्र में अंग्रेजी माध्यम और प्रशासन, न्याय, व्यापार, बैंकिंग आदि क्षेत्रों में अंग्रेजी पर निर्भरता आवश्यक नहीं है। भारत के पास सक्षम आधारभूत तंत्र है, जो अंग्रेजी से मातृभाषा की ओर त्वरित प्रस्थान के लिए आवश्यक तकनीकी सहायता उपलब्ध करा सकता है। अंग्रेजी से चिपके रहना निश्चय ही हमारी प्रगति को कुंठित करेगा। संक्रांति सानू, राजीव मल्होत्रा एवं कार्ल क्लेनेन्स ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक ‘भाषा नीति : द इंग्लिश मीडियम मिथ, डिसमैंट लिंग बैरियर्स टु इंडियाज ग्रोथ’ में आंकड़ों के साथ स्पष्ट किया है कि विश्व के बीस सर्वाधिक प्रगतिशील देश मातृभाषा का सहारा लेते हैं, जबकि बीस सबसे अधिक पिछड़े देश किसी दूसरी भाषा पर निर्भर हैं। उनका स्पष्ट निष्कर्ष है कि अंग्रेजी की डोर पकड़कर भारत कभी भी शीर्ष देशों की श्रेणी में नहीं आ सकता। उपरोक्त लेखकों के विचार में अंतरराष्टÑीय संबंधों एवं व्यापार के लिए अंग्रेजी ज्ञान किसी भी प्रकार से अनिवार्य नहीं है। जापान, दक्षिण कोरिया आदि देश अपनी मातृभाषा पर निर्भर होते हुए भी ऐसे व्यापार में अग्रणी हैं। वहां की सैमसंग, टोयोटा, होंडा आदि कंपनियों का आज डंका बज रहा है। प्रतिवर्ष मातृभाषा दिवस मनाने का यूनेस्को का आग्रह अत्यंत स्वस्थ एवं समयोचित चिंतन का परिणाम है। स्मरणीय है कि कभी महात्मा गांधी ने मातृभाषा की तुलना मां के दूध से की थी। अपनी संस्कृति के संरक्षण एवं देश की प्रगति के लिए हमें अंग्रेजी का जुआ उतार कर फेंकना ही होगा। मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं है। भारत के संदर्भ में मातृभाषा और राष्टÑीय भाषा हिंदी का अध्ययन, अध्यापन और माध्यम की भांति प्रयोग ही उसके उज्जवल भविष्य के सर्वोत्तम दिशासूचक हो सकते हैं। किसी ने ठीक कहा, ‘‘निज भाषा उन्नति अहे, सब उन्नति को मूल।’’  

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