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मत के विरुद्ध बिरसा मुंडा के आह्वान पर जनजातीय समाज ने लड़ी थी स्वाभिमान की लड़ाई
बलबीर दत्त
झारखंड के अमर स्वाधीनता सेनानी और क्रांतिदर्शी बिरसा मुंडा को आज विभिन्न राजनीतिक दल, संगठन और समुदाय अपने-अपने ढंग से भले याद करते हों, लेकिन बड़ा कष्ट होता है यह जानकर कि इतने वर्षोें बाद भी बिरसा के बारे में कोई उपयुक्त प्रकाशित विवरण उपलब्ध नहीं है। रांची के मानवशास्त्री शरतचंद्र राय ने 1912 में अपनी पुस्तक ‘मुण्डाज एंड देयर कंट्री’ में बिरसा के आंदोलन का विशद विवरण प्रस्तुत किया, लेकिन बाद में जो सामग्री उपलब्ध होती गई, उसके कारण उनके निष्कर्षों से बहुत लोग सहमत नहीं थे। 1926 में फादर हफमैन ने ‘एनसाइक्लोपीडिया मुंडारिका’ में उक्त आंदोलन पर उपयोगी रोशनी डाली थी। इसका प्रकाशन बिहार सरकार ने किया।
प्रथम परिचय
भारत के सामान्य लोगों ने बिरसा के वीरतापूर्ण संघर्ष के बारे में सबसे पहले 1940 में सुना, जब रांची के निकट रामगढ़ में कांग्रेस के ऐतिहासिक अधिवेशन में बिरसा के सम्मान में मुख्य द्वार का नाम बिरसा मुंडा द्वार रखा गया। इसके बाद अनेक लोगों को यह जानने की जिज्ञासा हुई कि आखिर यह बिरसा मुंडा कौन थे। ‘आदिवासी महासभा’ के अध्यक्ष जयपाल सिंह प्रारंभ में अपनी सभाओं में बिरसा के नामोल्लेख से कतराते थे। कुछ लोगों ने इसका कारण मिशनरी प्रभाव बताया। लोग बताते हैं कि जयपाल सिंह को समझाया गया कि बिरसा मुंडा को समुचित सम्मान और मान्यता दिए बगैर मुंडा क्षेत्र में दखल नहीं जमाया जा सकता, न ही अपेक्षित लोकप्रियता प्राप्त की जा सकती है। जयपाल सिंह ने इस विचार को स्वीकार किया। बिरसा के निधन के छह दशक तक उनकी जीवनी गिने-चुने ग्रंथों में सरसरी उल्लेख के रूप में या सरकारी दस्तावेजों और अभिलेखागारों की अलमारियों में ही सिमट कर रह गई। बिरसा और उनके आंदोलन से अधिकतम लोगों को परिचित कराने और उनकी याद को ताजा बनाए रखने की दिशा में बिहार के तत्कालीन राज्यपाल डॉ. जाकिर हुसैन (1957-62) और अनंतशयनम आयंगर (1962-67) का महत्वपूर्ण योगदान रहा।
बिरसा की प्रतिमा
राज्यपाल अनंतशयनम आयंगर के कार्यकाल में बिरसा की गरिमा के अनुकूल किसी राजमार्ग पर सुगोचर एवं महत्वपूर्ण स्थल पर उनकी एक भव्य प्रतिमा स्थापित करने का निर्णय लिया गया। इसके लिए भारी इंजीनियरी निगम (एच़.ई़ सी.) के मुख्य द्वार के पास रांची-खूंटी मार्ग के चौैराहे को चुना गया। मूर्ति बन जाने पर 9 जून, 1966 को बिरसा की पुण्यतिथि पर एक सादे समारोह में राज्यपाल आयंगर ने इसका अनावरण किया। उसके बाद इस स्मारक स्थल पर बिरसा की जयंती और पुण्यतिथि पर कई आयोजन होने लगे। केंद्र सरकार ने 1988 में बिरसा जयंती पर विशेष स्मारक डाक टिकट जारी किया। इसके बाद संसद के केंद्रीय कक्ष में बिरसा का चित्र भी लगा।
पत्रकारों की कर्तव्यपरायणता
बिहार और विशेष कर छोटानागपुर उस समय के अविभाजित बंगाल प्रांत के पिछड़े इलाके थे। ऐसी अवस्था में यहां के किसी अखबार द्वारा बिरसा और उनके आंदोलन से संबंधित घटनाओं को उजागर करने का कोई प्रश्न ही नहीं था। लेकिन कोलकाता के अंग्रेजी दैनिक ‘स्टेट्समैन’ और ‘इंग्लिशमैन’ तथा इलाहाबाद के अंग्रेजी दैनिक ‘पायनियर’ ने छोटानागपुर में उन दिनों व्याप्त स्थिति का कुछ वर्णन अपने संस्करणों में किया। अंग्रेजों की प्रबंध व्यवस्था में संचालित होने के बावजूद ‘स्टेट्समैन’ पहला अखबार था, जिसने विद्रोह फूट पड़ने की स्थिति के कारणों का 14 जनवरी, 1900 के संपादकीय में उल्लेख किया था। उसमें लिखा था, ‘‘मुंडा समाज का हाल का विद्रोह उन लोगों के लिए आश्चर्य का विषय नहीं है, जिन्हें रांची जिले की भूमि संबंधी राजनीति की जानकारी थी। जमींदारों और ठेकेदारों के जुल्म के विरुद्ध मुंडा समाज में पिछले 20 साल से असंतोष सुलग रहा था। रांची के जिलाधिकारी ने आंदोलन को कुचलने के लिए करीब 40 मुंडा और कोल लोगों को लंबी अवधि के लिए बंदी बना लिया था, उनमें सात-आठ जेल में ही मर गए।’’
लॉर्ड कर्जन को चेतावनी
अंग्रेजी दैनिक ‘इंग्लिशमैन’ ने सरकार को चेताया कि इस विद्रोह की शुरुआत देखने में तो छोटी लगती है, लेकिन इसके नतीजे बड़े हो सकते हैं। रांची जिले के जनजातीय समाज द्वारा बड़े ध्यान से इस पर नजर रखी जा रही है। सरकार को इस समय तो मात्र कुछ 100 असंतुष्ट लोगों से निपटना पड़ रहा है, लेकिन बाद में यह संख्या हजारों तक पहुंच सकती है। ‘स्टेट्समैन’ ने 25 मार्च, 1900 को इस विषय पर एक कड़ा संपादकीय लिखा और वायसराय लॉर्ड कर्जन (1899-1905) को ध्यान दिलाते हुए कहा कि उन्हें शायद पता नहीं कि उनके नाम पर देशभर में क्या किया जा रहा है। करीब 400 मुंडाओं को गोली से उड़ा दिया गया और गिरफ्तार लोगों को अपने बचाव के लिए पर्याप्त मौका भी नहीं दिया जा रहा है। रांची जिले की घटनाओं पर बंगाल लेजिस्लेटिव काउंसिल के सदस्य सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के अखबार ‘बंगाली’ ने संपादकीय टिप्पणी की, ‘‘लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जॉन बुडबर्ग की सरकार के लिए उचित यही होता कि मामले में और भी ज्यादा अन्याय होने देने के पूर्व रांची में न्याय का गला घोंटे जाने वाले ये कांड रोक देती।’’ साथ ही, सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने रांची जिले के मुंडा विद्रोह के मामले को उठाया। जेल में बिरसा की मृत्यु के बाद ब्रिटिश सरकार ने उनके मृत शरीर को भले ही क्षुद्र ढंग से ‘ठिकाने’ लगा दिया, लेकिन बिरसा की मृत्यु ने इतना व्यापक आयाम धारण कर लिया कि महत्वपूर्ण समाचारपत्रों में इस दमनकारी कांड की तीखी आलोचना हुई।
इस प्रकार बिरसा के अन्य अनेक कृतित्वों ने उनके व्यक्तित्व के तेज से परिचित कराया। प्रसन्नता की बात है कि एऩ सी़ ई़ आऱ टी. द्वारा तैयार शिक्षा प्रारूप में नागरिकों के मूल कर्तव्यों के साथ-साथ बिरसा मुंडा का जीवन-चरित्र शिक्षा पाठ्यक्रमों में सम्मिलित कर लिया गया है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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