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असहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर चिंतातुर मीडिया दुष्प्रचार और अविवेक का शिकार
एक बड़े पत्रकार ने कुछ दिन पहले एक लेख में चीन के साथ तनाव को उत्तर-पूर्व में भारतीय जनता पार्टी के विस्तार से जोड़ा था। वे शायद यह जताना चाहते थे कि देश के किसी इलाके में राजनीतिक तौर पर सक्रिय होने के लिए भाजपा को पड़ोसी देशों से पूर्व अनुमति लेनी चाहिए। राष्ट्रीय सुरक्षा के मामलों को देश की अंदरूनी राजनीति से जोड़ने में इन पत्रकार महोदय को महारत हासिल है। इससे पहले वे भारत जैसे देश में सैन्य तख्तापलट की आशंका जता चुके हैं। उधर सिक्किम में चीन की सीमा पर जारी तनाव के बीच भारतीय मीडिया में ऐसी खबरों की बाढ़ आई हुई है, जिन्हें देखकर शक होता है। चीन के अखबार और चैनल इस मामले में जो कुछ बोलते हैं, भारतीय मीडिया का एक बड़ा वर्ग उसे जस का तस दिखा देता है।
चीन के अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ ने दावा किया कि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने मान लिया है कि डोकलाम में भारतीय सैनिकों ने 'घुसपैठ' की। एनडीटीवी ने यह खबर ऐसे दी मानो चीनी अखबार उसके लिए जानकारी का आधिकारिक जरिया हो। कोलकाता के ‘टेलीग्राफ’ ने संपादकीय लिखा कि नोटबंदी और जीएसटी के कारण भूटान भारत से नाराज हो गया है और चीन के पाले में चला गया है। सिर्फ अंग्रेजी मीडिया ही नहीं, तमाम हिंदी अखबारों और चैनलों की खबरें चीन के दुष्प्रचार में रंगी नजर आती हैं।
उत्तराखंड के स्थानीय अखबारों में खबर छपी कि चीन ने चमोली से लगी सीमा में घुसपैठ की। वहां से होते हुए यह खबर कथित राष्ट्रीय मीडिया में आ गई। ‘दैनिक जागरण’ और ‘अमर उजाला’ जैसे अखबारों ने उस इलाके में भारतीय सेना के बंकर बनाए जाने की रिपोर्ट छापी। अमर उजाला ने लिखा कि ‘‘ड्रैगन का मुकाबला नहीं कर सकती इंडियन आर्मी, अमेरिका भी खाता है खौफ।’’ आप खुद समझ सकते हैं कि इन खबरों के पीछे किसका हित छिपा है।
भारतीय मीडिया टीआरपी के चक्कर में पाकिस्तानी दुष्प्रचार का भी वाहक बना हुआ है। ‘आज तक’ और ‘इंडिया टुडे’ चैनल ने परवेज मुशर्रफ के इंटरव्यू को कई बार दिखाया, जिसमें भारत और भारतीय सेना को लेकर कई आपत्तिजनक टिप्पणियां की गर्इं। अगर चैनल के संपादकों में आत्मविवेक होता तो वे ऐसी बातें दिखाते ही नहीं। दुर्भाग्य से टीआरपी के चक्कर में सोचने-समझने की यह ताकत खत्म हो चुकी है। इस अविवेकी सोच के कारण इस समूह के चैनलों पर आए दिन आतंकवादियों के असंपादित बयान और इंटरव्यू दिखाए जाते हैं। साफ है कि आतंकी हमलों की 'लाइव कवरेज' की बीमारी पर जिस तरह काबू पाया गया, उसी तरह इस समस्या पर ध्यान देने की जरूरत है। राजनीतिक मामलों में भी कांग्रेस प्रायोजित मीडिया के खेल जारी हैं। समाचार एजेंसी पीटीआई इसका बड़ा माध्यम बन चुकी है। उसने दो साल पहले चेन्नई की बाढ़ में डूबे हवाई अड्डे की फोटो को अमदाबाद की बताकर जारी कर दिया। यह तस्वीर कई अखबारों और वेबसाइट पर छपी। सूचना और प्रसारण मंत्री के दखल के बाद यह कहकर खेद जता दिया गया कि कैमरामैन की गलती है। पीटीआई में काम करने वाले एक पत्रकार ने हमें बताया कि यह झूठी तस्वीर जान-बूझकर जारी की गई थी, ताकि उसे दिखाकर गुजरात के विकास को झूठा साबित किया जा सके। इस समाचार एजेंसी को जानकारियों का सबसे प्रामाणिक जरिया माना जाता है। लगता है, पीटीआई के पत्रकार इस मान्यता को तोड़कर प्रोपेगेंडा की होड़ में शामिल होना चाहते हैं।
इसी तरह भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की संपत्ति में 300 प्रतिशत बढ़ोतरी की झूठी खबर फैलाई गई। ‘टाइम्स आॅफ इंडिया’, ‘नवभारत टाइम्स’, ‘डीएनए’ जैसे अखबारों ने पूरी योजना के तहत इस झूठ को फैलाया। जब सच्चाई सामने आई तो माफी मांगने की जहमत तक नहीं उठाई गई। केरल में जब भी संघ के कार्यकताओं पर हमला होता है मीडिया की पहली कोशिश खबर को दबाने की होती है। अगर जरूरी हुआ तो वे यह झूठ स्थापित करने की कोशिश करते हैं कि हमले दोनों तरफ से हो रहे हैं। वामपंथी सरकार के लिए मीडिया की स्वामिभक्ति इसी बात से जाहिर है कि मुख्यमंत्री ने उन्हें डांटते हुए एक बैठक से बाहर निकाल दिया तो भी किसी मीडिया संस्थान को यह आजादी पर हमला नहीं लगा।
तमाम शहरों में इंदु सरकार फिल्म की स्क्रीनिंग के दौरान कांग्रेसी कार्यकताओं ने हमले किए। यही स्थिति बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा नसरीन को लेकर दिखी। औरंगाबाद एयरपोर्ट पर ओवैसी की पार्टी के लोगों ने उन पर हमला किया और वापस लौटने को मजबूर कर दिया। लेकिन असहिष्णुता और अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर चिंतिंत रहने वाले मीडिया को यह पूरा वाकया दिखाई नहीं दिया। पत्रकारिता का यह पाखंड किसी से छिपा नहीं है।
जरूरी है कि इस पर ज्यादा से ज्यादा चर्चा की जाए, ताकि इसके दोषियों के चेहरों को सामने लाया जा सके।
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