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-प्रो. सतीश कुमार
जेएनयू की दशा बदलने लगी है। हाल ही में वहां के कुलपति प्रो. एम.जगदीश कुमार ने विश्वविद्यालय परिसर में राष्ट्र की शक्ति के प्रतीक टैंक को लगाने की बात कही है। सरस्वती के मंदिर में विद्या की ही पूजा होनी चाहिए, लेकिन जब उसी प्रांगण में राष्ट्र को तोड़ने और विखंडित करने की साजिश रची जा रही हो तो शायद राष्ट्रभक्ति के प्रतीक सैन्य टैंक को लगाना किसी दृष्टि से गलत नहीं है। जेएनयू में अक्सर नक्सलवाद, अलगाववाद और पृथकतावाद पर ऐसी बहसें होती रहती हंै, जिसमे कश्मीर और उत्तर-पूर्व को भारत से विलग करने की अलगाववादी भावनाएं भड़काई जाती हैं।
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के लिए अभद्र भाषा इस्तेमाल की जाती है। हॉस्टलों में पूर्णिमा और महाशिवरात्रि के दिन भी मांस भक्षण की तकरीरें की जाती हैं। ऐसी कितनी ही बातें हैं जो वामपंथी तत्व वहां बेरोक-टोक वर्षों से करते आ रहे थे। पिछले 5 दशकों में जेएनयू में यही तो सब हुआ। 1992 में वहां के पूर्वांचल हॉस्टल में चंद लड़के-लड़कियां साथ में अश्लील फिल्में देखते पाए गए। प्रशासन की सख्ती हुई तो वामपंथी गुटों ने परिसर बंद करने की धमकी दे दी। कई दिनों तक कक्षाएं नहीं लग पाईं।
ताजा घटनाक्रम में कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने इसकी आड़ में एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पर निशाना साधा है। क्या यह बेचैनी कांग्रेस की हताशा का नतीजा नहीं है? दरअसल कांग्रेस और वामपंथ को राष्ट्रवाद का खौफ है। परिसर को अपने घेरे में लेकर वामपंथियों ने इतिहास और अर्थशास्त्र को बदलने का दुष्कर्म किया। उनकी राजनीति के चलते देशभक्ति को हेय दृष्टि से देखा जाने लगा। स्कूल के बच्चे वंदेमातरम् भूलते गए। वामपंथ ने पश्चिमी सिद्धांत को ही बढ़ाया। जेएनयू में ऐसे ही तत्वों का बोलबाला रहा है। लेकिन अब विश्वविद्यालय प्रशासन ने चीजों को सुधारने के लिए कमर कसी है। पुस्तकालय के गलियारों में शहीदों की तस्वीरें लगायी गयी हैं। कुलपति प्रो. जगदीश कुमार ने ऐसा होना विश्वविद्यालय का सौभाग्य माना। लेकिन इससे वामपंथियों की नींद हराम हो गयी। क्योंकि उनका 'लाल गढ़' ढहने लगा है। पर्चेबाजी शुरू हो गयी, क्योंकि उनकी नजर में तस्वीरंे तो सिर्फ माओत्से तुंग और मार्क्स की लगनी चाहिए। राष्ट्र के हित में राष्ट्र की समझ जरुरी है। इस बात को टैगोर से लेकर संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी बोलते रहे हैं। संघ के सह सरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसबाले भी इस बात की वकालत करते हैं। बात संघ की विचारधारा की नहीं है, बल्कि राष्ट्र निर्माण की है। वर्षों की तपस्या के बाद देश आजाद हुआ, चलना भी नहीं सीखे थे कि नेहरूवादी सोच ने उदारवाद के नाम पर एक ऐसा देश खड़ा करने की कोशिश की जहां अपनी सांस्कृतिक विरासत से ही लोगों को घृणा हो। इतना बड़ा आघात तो अंग्रेज या आततायी मुगल भी नहीं कर पाए थे जितना पिछले 6 दशकों में कांग्रेस और वामपंथ ने मिलकर समाज को विघटित करके किया है।
पिछले एक महीने से वामपंथियों ने सोशल साइट्स पर गोरक्षकों को लेकर बवाल मचाया हुआ था। वामपंथी बुद्धिवीरों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए जाने क्या अनाप-शनाप कहा। उन्होेंने नाजियों के और न जाने किस-किसके उदाहरण गिनाए। पिछले 3 वर्ष के महत्वपूर्ण साप्ताहिक, पाक्षिक और दैनिक समाचार पत्रों को खंगालेें तो आधे से ज्यादा अंक और संपादकीय 'हिंदू राष्ट्र' और 'हिंदुओं' पर टीका टिप्पणी करते हुए लिखे जा रहे हैं। तिस पर भी कहा जाता है कि भारत में विरोध और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनी जा रही है।
दरअसल वामपंथ की असलियत और उसके मानवाधिकारों की दुहाई के बारे में भारत की जनता सब जान चुकी है; इसका प्रभाव भी भारतीय राजनीति में दिख रहा है। हाशिए पर सिमटे साम्यवादी दल अंतिम सांसें ले रहे हैं। लेेकिन इनका एक महत्वपूर्ण ढांचा आज भी गुपचुप सक्रिय है, वह है विश्वविद्यालय के भीतर उनकी घुसपैठ। उनकी घुसपैठ वहां कैसे बनी, उसकी चर्चा से पहले मानसिकता और सोच की विवेचना जरूरी है। यह भी बताना जरूरी है कि जेएनयू इनका गढ़ रहा है। पिछले कुछ वषार्ें में इसकी शाखाएं भारत के अन्य विश्वविद्यालयों जैसे हैदराबाद, जामिया, अलीगढ़ और अन्य कई जगहों पर उभरने की कोशिश करती दिखी हैं।
वामपंथियों की कार्यशैली की विशेषता है मशाल जुलूस के साथ रंग-बिरंगी लफ्फाजी के साथ जोर जोर से नारे लगाना। इन्होंने संसद आतंकी हमले के सरगना अफजल की बरसी पर छाती पीटी और जेएनयू में कन्हैया छाप देशविरोधी छात्रों की अगुआई में नारे लगाए-'घर-घर में अफजल निकलेगा', 'भारत तेरे सौ टुकड़े होंगे', 'कश्मीर को आजाद करना होगा' आदि। यही टोली, जो मानवाधिकारों की बात करती है, चीन के नोबेल पुरस्कार विजेता की कैद में मौत पर मौन हो जाती है। चीन में बुनियादी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की मांग करने वाले कवि और थ्येनआनमन चौक हत्याकांड का विरोध करने वाले कवि को 81 वर्ष की सजा हुई थी। कैद में उसकी मौत हो गई। लेकिन बात-बेबात पर बोलने वाले सीताराम येचुरी इस मुद्दे पर चुप क्यों हो गए थे?
वामपंथियों ने भारतीय संस्कृति की जितनी आलोचना की और तिरस्कार किया है, शायद इतनी आलोचना तो भारत को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजों ने भी नहीं की होगी। उन्होंने 'महिषासुर पर्व' मनाने की शुरुआत की। तथाकथित दलित चिंतक कांचा इल्लैया ने मां दुर्गा के संदर्भ में अभद्र शब्दों का प्रयोग किया। ये वहीं लोग है जिन्होंने दंतेवाड़ा 2010 में सीआपीएफ के 76 सिपाहियों के मारे जाने का जश्न मनाया था। प्रो़ डी़ एऩ झा, निवेदिता मेनन और तमाम सेकुलर वामपंथियों ने 'फूड फॉर पॉलिटिक्स' पर परिचर्चा करते हुए कश्मीर को एक अलग राष्ट्र बनाने की बात की थी। 1996 में वहां के एक वरिष्ठ शिक्षक ने अलगाववादी और आतंकियों का अड्डा बनते जा रहे जेएनयू परिसर पर चिंता व्यक्त करते हुए प्रमाणों के साथ पत्र लिखा था। उसमें उन्होंने बताया था कि किस तरह से विभिन्न होस्टलों में भारत विरोधी गतिविधियां चलाई जा रही थीं। कश्मीर से लेकर उत्तर पूर्वी राज्यों तक में अलगाववाद का बौद्धिक विश्लेषण इस विश्वविद्यालय के प्रांगण में होता है, जो भारत सरकार के पैसों पर चलता है। पिछले 5 दशकों में अगर विभिन्न विश्वविद्यालयों को दिए गए अनुदान की चर्चा की जाए तो जेएनयू का पहला स्थान है। वामपंथी तत्व राष्ट्र के पैसों को अपने सुख में इस्तेमाल कर कश्मीर को आजाद और भारत को बर्बाद करने की कोशिश करते हैं। यहां बताया जाता रहा है कि भारत एक ऐसा देश है जहां पर अल्पसंख्यकों पर 'अत्याचार' होता है।
भारतीय सेना और अर्ध-सैनिक बल राष्ट्र की सुरक्षा के लिए नहीं बल्कि अपने ही लोगों पर अत्याचार करने के लिए तैनात किए जाते हैं। बुद्धिजीवियों के इन प्रयासों को देखते हुए ही प्रसिद्ध चिंतक और दार्शनिक रूसो ने कहा था कि समाज को विघटित करने का काम और कोई नहीं बल्कि बुद्धिजीवियों ने ही किया है।
यहां वामपंथ पनपने की तहकीकात करें तो पाएंगे कि तत्कालीन शिक्षामंत्री नूरुल हसन ने जेएनयू के भीतर ऐसे शिक्षकों को देश विभिन्न कोने से बटोरने का काम किया, जो विचारों से वामपंथी थे। ऐसे जो मानते थे कि भारत एक राष्ट्र के रूप में 1947 में जन्मा। इसके पहले इसका कोई अस्तित्व नहीं था। भारत खण्डों में बंटा था। यहां कोई एक भाषा या संस्कृति कभी रही ही नहीं। कांग्रेस के साथ समझौते के बल पर वामपंथियों ने परिसर को इतना 'लाल' रंग दिया कि वहां राष्ट्र के सौ टुकड़े करने की बात की जाने लगी।
अभाविप के संगठन मंत्री सुनील आंबेकर का मानना है कि विश्वविद्यालय परिसर में उस भूल के सुधरने के संकेत दिख रहे हैं। शिक्षा से न केवल व्यक्ति बल्कि राष्ट्र समृद्ध होना चाहिए। हर व्यक्ति और समुदाय के लिए राष्ट्र सवार्ेपरि है। जिन वामपंथियों ने अपने फायदे के लिए आंबेडकर और भगत सिंह के तर्कों को तोड़ा-मरोड़ा उसमें भी कांग्रेस की मिलीभगत थी। जेएनयू इसकी प्रयोगशाला बना। लेकिन अब वक्त बदल रहा है। भारत की राजधानी में बने इस केन्द्रीय विश्वविद्यालय में भारत की बात होनी चाहिए न कि इसके टुकड़े करने की मंशा पाले लोगों को यहां सरकार में पैसे पर देशविरोधी गतिविधियों को करते रहने की छूट होनी चाहिए। प्रो. जगदीश कुमार जेएनयू परिसर में टैंक सजाने की बात कर रहे हैं तो वे उसके पीछे देशभक्ति का भाव जगाने का एक प्रतीक देख रहे हैं।
(लेखक केन्द्रीय विश्वविद्यालय,
हरियाणा में प्रोफेसर हैं)
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