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कश्मीर, केरल और बंगाल में जो हो रहा है, वह होना ही था। भारत में आज हम जो देख रहे हैं, वह एक दिन में नहीं हुआ है। इस स्थिति को पनपने में कई दशक लगे हैं। शुरू में तो यह दिखता ही नहीं, जब दिखता है तब गंगा-जमुनी तहजीब और सेकुलरिज्म की अफीम हमें उसे स्वीकारने नहीं देती। जब यह प्रचंड ज्वाला बनकर आगे बढ़ती दिखती है, तब हमारी गुलाम मानसिकता और अब तक की पढ़ाई इतना कमजोर बना देती है कि हम या तो वहीं जड़वत् खड़े ज्वाला को लीलने देते हैं या रोते-चिल्लाते हुए सरकारों और दूसरों को दोष देते हुए भाग खड़े होते हैं। हमने अपने अंदर प्रतिघात की क्षमता का खुद ही गला घोट रखा है।
सवाल है कि हम ऐसे कैसे हो गए? हमारे शासकों, शिक्षा और संस्कृति के चौधरियों ने ऐसा क्या कर दिया कि स्वतंत्रता के बाद भी हम अपने अंदर की गुलामी से मुक्त नहीं हो पाए? हम इसलिए ऐसे हो गए हैं, क्योंकि बचपन से अब तक हमने जिस इतिहास को पढ़ा उसने इतना दिग्भ्रमित कर दिया कि सूरज की रोशनी में भी जब कोई सत्य दिखाता है तो वह भी मतिभ्रम लगता है। इतिहास से हमारा परिचय स्कूली किताबों से शुरू होता है जिसमें महापुरुषों की जीवन गाथाएं पढ़ाई जाती हैं। बड़े होने के साथ इन्हीं महापुरुषों के माध्यम से हमें अहिंसा, सत्य, न्याय और धर्म की शिक्षा दी जाती है। स्कूल-कॉलेजों के पाठ्यक्रमों से इतिहास, पौराणिक गाथा, मानवता, यूरोपीयों द्वारा प्रतिपादित आर्य और गैर आर्य की कल्पना और वर्ग संघर्ष सहित तमाम शिक्षा मिलती है, लेकिन उसमें राष्ट्रवाद नहीं होता है।
जिन राष्ट्र नायकों से हमारा परिचय कराया जाता है, वे या तो अहिंसा, न्याय, सत्य और धर्म के पुजारी होते हैं या कुछ अपवादों को छोड़कर अपने लक्ष्य में असफल और पराजित हुए होते हैं। असली दिक्कत वहां आती है जब असफल नायक, जिन्हें पराजित करने या मारने वाले को इतिहास महान बताता है। विदेशी आक्रांताओं को इसी भारत की मिट्टी की पौध बताया जाता है। यह भी बताया जाता है कि आज देश में जो कुछ भी श्रेष्ठ दिख रहा है, वह पश्चिम से आए अरबी, तुर्की, अफगानी, फारसी, मुगलों और अंग्रेजों की ही देन है। यह सब केवल किताबों में ही नहीं लिखा है, बल्कि नव भारत के काल से राजनीतिक नेतृत्व ने भी इसे ही स्वीकार किया है। इन सब से हमारे भीतर ऐसी नींव डाल दी जाती है जो आगे चलकर मानसिक अपंगता और स्वाभिमान के रूप में विक्षिप्त सा अहंकार एवं हीनता दे जाती है। हम सदियों से हारे हुए लोग हैं। हम सदियों से गुलाम हैं। इतने काल तक गुलामी की बेड़ियों में बंधे रहे कि बेड़ियां खुलने के बाद भी खुद को बंधा हुआ महसूस करते हैं और जोड़े हुए हाथ खोलने से डरते हैं।
काल दर काल इस अहिंसा, सत्य, न्याय और सेकुलरिज्म की परिभाषा ने हमारे भीतर गुलामी के हीनता बोध को और अधिक मजबूत किया है। कांग्रेसी शासकों और उनके वामपंथी सहयोगियों ने बहुत सोच-समझ कर यह सब किया है, क्योंकि उन्हें मालूम था – ‘‘गुलाम के लिए अहिंसा एक कायरता है। गुलाम के लिए सत्य उसकी जीविका है। गुलाम के लिए न्याय स्वामी की दासता है। गुलाम के लिए धर्म सिर्फ हालात से समझौता है।’’
ये वे घटक हैं, जिनसे राष्ट्र के नागरिक नहीं, बल्कि केवल अच्छे गुलाम बनते हैं। मैंने जितना इतिहास पढ़ा है, वह चाहे भारत का हो या शेष विश्व का, यही पाया कि तमाम राष्ट्र और सभ्यताएं इस धरती से विलुप्त हो गर्इं, जिनके बारे में पढ़कर लगता था कि उनका विलोप नहीं होना चाहिए था। उनके विलुप्त होने के कारणों की मीमांसा करने पर समझ में आया कि जिनकी संस्कृति चरमोत्कर्ष पर थी, जो बेहद शांतिप्रिय, खुशहाल और संतुष्ट थे फिर भी वे हर उस शक्ति से जो बौद्धिक और संस्कृति में उनसे काफी पीछे से थे, नष्ट हो गए। उनका अस्तित्व समाप्त हो गया, क्योंकि वे सबकुछ थे पर संगठित नहीं थे। उनके अंदर ‘महान’ होने की भावना ने अहंकार का रूप ले लिया था और वे इस अहसास से कटे हुए थे कि दुनिया बदल रही है।
आज भारत के नव गुलाम इसी त्रासदी से गुजर रहे हैं। वे सबकुछ देखते और समझते हैं, लेकिन न तो राष्ट्र को देखते हैं और न इसे समझते हैं। ये नव गुलाम चिर काल से राष्ट्र और राष्ट्रवादिता, दोनों के ही चिर काल से विरोधी हैं। हमें इन नव गुलामों पर न तो दया दिखानी चाहिए और न ही इनकी अपंग बौद्धिकता से शास्त्रार्थ करना चाहिए, क्योंकि इन्होंने नए विचारों और सृजन के लिए अपने द्वार बंद कर रखे हैं। हमारे जैसे लोगों की दुविधा यह है कि निर्णय लेने में भी देरी कर रहे हैं। हमें निर्णय भूतकाल के गुलामों और मौजूदा नव गुलामों को समझते हुए लेना है।
निर्णय यह लेना है कि राष्ट्र ऊपर है या अहिंसा?
निर्णय यह लेना है कि राष्ट्र ऊपर है या सत्य?
निर्णय यह लेना है की राष्ट्र ऊपर है या न्याय?
निर्णय यह लेना है की राष्ट्र ऊपर है या धर्म?
यह निर्णय का काल है। हमें अपने और राष्ट्र के अस्तित्व के लिए निर्णय लेना ही होगा, क्योंकि यह राष्ट्र हमारे पूर्वजों का है। जिनके पूर्वज अरब, जवेटिकन और मार्क्सवाद में बसते हैं, उनके लिए भारत कोई राष्ट्र नहीं है। उनके लिए यह प्रयोग, शोषण, इस्लाम और ईसाइयत फैलाने की सिर्फ जमीन है।
(पुष्कर अवस्थी की फेसबुक वॉल से)
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