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इन दिनों हिंदी फिल्मों और उनके कथानक में परिवर्तन का रूख है आया है। कई निर्माता-निर्देशक अब मसाला फिल्मों की बजाए भारत के इतिहास, संस्कृति, विभूतियों और मूल्यों पर आधारित फिल्में बना रहे हैं। इसके पीछे वजह है देश के माहौल में आया सकारात्मक बदलाव
विशाल ठाकुर
आज के दौर को लेकर अक्सर कई फिल्मकार या कलाकारों का कहना है कि भारतीय सिनेमा के लिए यह बहुत अच्छा समय है। कोई कहता है, बाजार के लिहाज से यह अच्छा समय है तो किसी को लगता है कि विषय के हिसाब से अच्छा समय है। किसी को लगता है कि अब चरित्र कलाकारों को तवज्जो मिल रही है तो किसी के विचार में यह समय अच्छी कहानियों को कहने का समय है। अच्छी कहानियों से मतलब, ऐसी कहानियां जिन पर अमूमन किसी का ध्यान नहीं जाता था। जाता भी था तो कभी बाजार के दबाव में या फिर माहौल ठीक न होने की वजह से ऐसी फिल्में बनने से पहले ही दम तोड़ देती थीं। कुछ बन भी जाती थीं तो अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाती थीं या फिर उन पर सेंसर की तलवार लटकती रहती थी।
इस संदर्भ में गंभीर पाठकों को याद होगा कि अगले साल गांधी जयंती पर यानी 2 अक्तूबर को यशराज बैनर की एक फिल्म ‘सुई-धागा’ रिलीज होगी, जिसके मुख्य कलाकार वरुण धवन और अनुष्का शर्मा हैं। ‘सुई-धागा’, यह कैसा नाम है? पहली नजर में यह नाम चौंकाता है और उत्सुकता पैदा करता है कि आखिर यशराज जैसे बैनर को ऐसे नाम से फिल्म बनाने की जरूरत क्यों पड़ी, जिसमें न तो शहरी वर्ग को खींचने की ताकत है और न ही किसी प्रकार का ग्लैमर? यह बैनर ऐसे जोखिम भरे काम कब से करने लगा?
दरअसल, यह फिल्म प्रधानमंत्री के मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट पर आधारित है, जिसमें कौशल विकास सरीखे मुद्दे उठाए जाएंगे। गांधी जयंती पर यह इसलिए रिलीज होगी, क्योंकि मेक इन इंडिया के पीछे असली प्रेरणास्रोत राष्टÑपिता महात्मा गांधी ही हैं। यह कोई वृत्तचित्र नहीं है, बल्कि विशुद्ध फीचर फिल्म है, जिसे अन्य फिल्मों की तरह रिलीज किया जाएगा। फिल्म के निर्देशक शरत कटारिया हैं, जिन्होंने यशराज बैनर के तले ही कुछ समय पहले ‘दम लगाके हइशा’ जैसी फिल्म बनाई थी। यह फिल्म बेशक एक साल बाद आएगी, लेकिन सोचने वाली बात यह है कि आखिर इस बैनर को ऐसी सामाजिक सरोकार वाली फिल्म बनाने की इसी समय क्यों सूझी? क्या माहौल पहले से बेहतर है?
आने वाले कुछ दिनों-महीनों में और भी कई फिल्में न केवल अपने नाम, बल्कि कहानी, विषय-वस्तु, माहौल और संदेश की वजह से आपका ध्यान आकर्षित करेंगी। इसकी असल वजह क्या है, इस बारे में हम बात करेंगे, लेकिन पहले नजर डालें कुछ ऐसी ही फिल्मों के रोचक नामों पर। ‘राग देश’, ‘परमाणु’, ‘इंदु सरकार’, ‘गोल्ड’, ‘मेरे प्यारे प्राइम मिनिस्टर’, ‘मणिकर्णिका’, ‘सन् 75’, ‘द बैटल आफ सारागढ़ी’, ‘ये है इंडिया’ और ‘सरदार सूबेदार जोगिंदर सिंह’ ऐसे ही कुछ नाम हैं जो बरबस ध्यान खींचते हैं।
जैसे कि ‘राग देश’ एक ऐसी फिल्म है, जिसका ट्रेलर बीते दिनों संसद भवन में रिलीज किया गया। यह पहला मौका था जब किसी फिल्म का ट्रेलर संसद में रिलीज हुआ। ‘पान सिंह तोमर’ (2012) जैसी राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता फिल्म बना चुके निर्देशक तिग्मांशु धूलिया की यह फिल्म 1945 के मशहूर ‘रेड फोर्ट ट्रायल’ केस पर आधारित है। फिल्म में दिखाया गया है कि कैसे इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) के तीन अधिकारी प्रेम सहगल, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों और मेजर जनरल शाहनवाज खान ने, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अगुआई में भारत को अंग्रेजों से आजाद कराने की लड़ाई लड़ी और कैसे उन पर हत्या का मुकदमा चलाया गया।
हालांकि ट्रेलर देख कर एकबारगी मन में यह ख्याल आता है कि क्या धूलिया इस फिल्म के जरिये नेताजी की रहस्यमयी मौत से परदा हटाने की कोशिश कर रहे हैं? लेकिन इस बात को सिरे से खारिज करते हुए वे कहते हैं कि इस फिल्म के निर्माण के दौरान यह पता लगाना दिलचस्प रहा कि भारत को अंग्रेजों की गुलामी से आजादी केवल वार्ता से नहीं, बल्कि खून-पसीने से हासिल हुई थी। बात साफ है कि अब तक आमजन के सामने जो इतिहास रखा गया है, उससे यही साबित होता है कि देश की आजादी में महापुरुषों के संवाद और वार्ता की भी अहम भूमिका रही है।
दरअसल धूलिया, जो कि इतिहास के छात्र रह चुके हैं, इस फिल्म के माध्यम से देशवासियों के सामने आजादी के आंदोलन में आईएनए की भूमिका को सामने लाकर यह बताना चाहते हैं कि विजेता इतिहास कैसे लिखते हैं। उनका दर्द यह है कि इतिहास में ऐसे जांबाजों को आसानी से भुला दिया गया है। वे इस फिल्म को लंबे समय से बनाना चाहते थे। शायद उन्हें अब बेहतर माहौल मिला है। क्या वाकई? आइये, थोड़ा
पीछे चलें।
मोटे तौर पर देखा जाए तो यह समय भारतीय परंपरा, संस्कृति और इतिहास आदि के मद्देनजर अब तक उपेक्षित रही कहानियों को कहने का दौर है। इस बाबत कई फिल्मकारों का मानना है कि यह महज एक नया ट्रेंड या फिल्म इंडस्ट्री की भेड़चाल नहीं है। लोग अब ऐसी कहानियों का स्वागत कर रहे हैं। उन्हें न केवल भारत केन्द्रित कहानियां पसंद आ रही हैं, बल्कि उनमें इतिहास के पन्नों में दबे किरदार, शख्सियतें, घटना, महापुरुष आदि को लेकर एक तरह की उत्सुकता पैदा हुई है, जो पहले कभी नहीं देखी गई। क्या यह सब अचानक हुआ है? ज्यादा दूर न जाएं तो इस चलन की शुरुआत दो साल पहले ‘बाहुबली’ जैसी फिल्म से हुई थी, जिसे ‘दंगल’ जैसी चर्चित फिल्म ने विश्व पटल पर आगे बढ़ाया।
इस बीच और भी कई फिल्में आईं। फिर वह पुराने पन्नों में दबी जाबांज एयरहोस्टेस नीरजा भनोट (फिल्म ‘नीरजा’) की कहानी हो या फिर दुबई में फंसे सैकड़ों भारतीयों को भारत लाने की कहानी कहने वाली अक्षय कुमार की फिल्म ‘एयरलिफ्ट’। अक्षय ने ही जब ‘रुस्तम’ जैसी फिल्म में काम किया तो लोगों में एक तरह की देश प्रेम की भावना जगी, जबकि ‘रुस्तम’ 1959 के के़ एम़ नानावटी केस पर आधारित फिल्म थी, जिसके बारे में बहुत कम लोगों को पता था। ‘सुनीलदत्त और लीला नायडू अभिनीत मशूहर फिल्म ‘ये रास्ते हैं प्यार के’ इसी मामले पर केंद्रित थी।’ ‘एयरलिफ्ट’ और ‘रुस्तम’ की शानदार कामयाबी के बाद से लगता है कि ऐसी कहानियों को कहने का अक्षय ने बीड़ा-सा उठा लिया है। उनकी अगली फिल्म ‘टॉयलेट:एक प्रेम कथा’ तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के स्वच्छता अभियान को बल देने का काम करती है।
देखा जाए तो इस दिशा में अभी बहुत कुछ होना बाकी है, क्योंकि माहौल माकूल है। बेशक कई फिल्मकार सेंसर बोर्ड से थोड़े नाराज दिखे, लेकिन सच यह है कि आपातकाल पर इससे पहले इतनी फिल्में नहीं बनीं। केके मेनन की ‘सन् 75’, मधुर भंडारकर की ‘इंदु सरकार’, मिलन लूथरिया की ‘बादशाहो’ सहित कई फिल्में हैं जो आपातकाल के कालखंड को दर्शाती हैं। जरा सोचिए कि भारत के परमाणु परीक्षण पर फिल्म बनाने में किसे रुचि होगी। सो यह जानना सुखद है कि जॉन अब्राहम की अगली फिल्म ‘परमाणु: द’ स्टोरी आॅफ पोखरण, इस साल दिसंबर में आएगी, जिसमें भारत द्वारा किए परमाणु परीक्षणों की हकीकत बयांन की गई है। आमिर खान भारत के पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा की कहानी बयां करेंगे और इसके अलावा सानिया नेहवाल से लेकर पीवी सिंधु तक की बायोपिक पर भी काम चल रहा है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर नजर डालें तो बेशक काल्पनिक ही सही, लेकिन आमिर खान और अमिताभ बच्चन की यशराज बैनर तले बन रही फिल्म ‘ठग्स आॅफ हिन्दोस्तान’ में काफी संभावनाएं हैं। इससे पहले संभवत: 1968 में इस विषय पर दिलीप कुमार और वैजयंतीमाला की फिल्म ‘संघर्ष’ आई थी। इसके अलावा राजकुमार संतोषी निर्देशित ‘बैटल आफ सारागढ़ी’ में अभिनेता रणदीप हुड्डा 36 सिख रेजिमेंट के हवलदार इशार सिंह का किरदार निभा रहे हैं। न केवल इस फिल्म के किरदार आकर्षित करते हैं, बल्कि इसका कथानक आपको 118 साल पीछे ले जाएगा। फिल्म 12 सितंबर, 1897 को लड़े गये सारागढ़ी युद्ध की कथा कहती है, जिसे 10,000 अफगानी सेना के मुकाबले केवल 21 सिख सिपाहियों ने लड़ा था। कुछ समय पहले इसी विषय पर अक्षय कुमार और अजय देवगन भी फिल्में करने वाले थे। एक ऐसे ही सिख सूरमा पर बन रही फिल्म ‘सूबेदार जोगिंदर सिंह’ की कहानी बड़े परदे पर बिखेरेंगे पंजाबी अभिनेता गिप्पी ग्रेवाल। अगले माह तमाम चकाचौंध भरी फिल्मों के बीच एक फिल्म ‘मैं खुदीराम बोस हूं’ भी रिलीज हो रही है, जिसके निर्देशक मनोज गिरी हैं। इसके पहले 2015 में अगस्त में ही निर्देशक अनंत महादेवन की ‘गौरहरि दास्तान-द फ्रीडम फाइल’ जैसी फिल्म रिलीज हुई, जिसे सराहना तो खूब मिली लेकिन बॉक्स आफिस कामयाबी से यह फिल्म अछूती ही रही। मगर ऐसी फिल्मों का लागातार निर्माण दर्शाता है कि आज भी कई ऐसे फिल्मकार हैं, जो केवल पैसे कमाने के लिए ऐतिहासिक फिल्मों के निर्माण से मुंह नहीं चुराते। एक अन्य फिल्म गुरिंदर चढ्ढा की है-पार्टिशन: 1947। अगले महीने रिलीज होने वाली इस फिल्म में भारत के विभाजन की कहानी पर रोशनी डाली गई है। भारत को केन्द्र में रखकर बन रही ये फिल्में यही दर्शाती हैं कि न केवल देसी फिल्मकार बल्कि विदेशी फिल्मकार भी अब इस जरूरत को महसूस कर रहे हैं कि इतिहास के पन्नों में दबे चरित्रों और घटनाओं को प्रकाश में लाया जाए। जी स्टुडियो के लिए निर्देशक कृष, कंगना रनोत को लेकर ‘मणिकर्णिका-द क्वीन आॅफ झांसी का निर्माण कर रहे हैं, जो झांसी’ की रानी लक्ष्मीबाई की कहानी बयां करेगी। अभिनेता-निर्माता रितेश देशमुख छत्रपति शिवाजी पर एक हिन्दी फिल्म बनाने जा रहे हैं, जिसका बजट 200 करोड़ रुपये से अधिक बताया जा रहा है। इसमें दो राय नहीं कि ऐसी फिल्मों को देख हर सच्चे भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा होगा। ल्ल
देशभक्ति, ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं पर फिल्में बनाना एक चलन के रूप में इंडस्ट्री में बहुत ही सुखद खबर है। ऐसी फिल्मों के प्रति दर्शकों की मानसिकता भी बदली है, जिसकी वजह से ऐसी फिल्मों की मांग बढ़ रही है।
— तिग्मांशु धूलिया, फिल्म निर्देशक
अब कंटेंट ही किंग हो गया है। अब अच्छी और सच्ची कहानियों को कहने का दौर है। अच्छी बात यह है कि दर्शक भी ऐसी फिल्मों के प्रति रुचि दिखा रहे हैं।
— राकेश ओमप्रकाश मेहरा फिल्म निर्देशक
कॉमेडी और ड्रामा फिल्मों में अभिनय करना एक अलग चुनौती होती है। पंजाब की धरती ऐतिहासिक घटनाओं से भरी पड़ी है। बीते कुछ समय से पंजाबी फिल्मोद्योग को बहुत सराहा जा रहा है, जिसकी वजह से ऐतिहासिक चरित्रों पर फिल्में बनने लगी हैं। —गिप्पी ग्रेवाल, फिल्म अभिनेता
देश में ऐतिहासिक घटनाओं और पात्रों की कमी नहीं है। जरूरत है ऐसे विषयों पर और अधिक फिल्में बनाने की। फिल्म अगर अच्छी बनी हो तो दर्शक थियेटर तक खिंचे चले आते हैं।
— रितेश देशमुख, अभिनेता-निर्माता
ऐतिहासिक विषयों और किरदारों पर पहले भी फिल्में बनती रही हैं। मनोज कुमार की ‘पूरब और पश्चिम’ से बात शुरू करें तो महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, सरदार भगत सिंह आदि पर बनी ऐसी फिल्मों की लंबी सूची है।
—मधुर भंडारकर, फिल्म ‘इंदू सरकार’ के निर्देशक
यह फिल्म युुवाओं में देश प्रेम के बीज अंकुरित कर उन्हें प्रेरित करेगी कि वे भी एक इतिहास रचें। मैं तिग्मांशु जी को धन्यवाद देना चाहूंगी, जिन्होंने इस फिल्म के माध्यम से लालकिले की आवाज को फिर से जीवित कर दिया है।
— पूर्णिमा ढिल्लों, कर्नल गुरबख्श सिंह ढिल्लों की पुत्रवधू
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