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-डॉ. शैलेश कुमार
नई दिल्ली स्थित डॉ. राममनोहर लोहिया अस्पताल में पित्त की थैली (गॉल ब्लैडर) में पथरी का ऑपरेशन कराने वाले जस्सी सुबह अस्पताल आए और शाम तक घर भी चले गए। दो-तीन दिन बाद वे अपना कामकाज भी करने लगे। ऐसा इसलिए संभव हो पाया कि उनका ऑपरेशन नई तकनीक से हुआ। पहले इसी ऑपरेशन के लिए मरीज को कई दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहना पड़ता था और महीनों तक आराम करना होता था।
आज पथरी के ऑपरेशन दूरबीन और लघु दूरबीन विधि से होने लगे हैं। इस सर्जरी के लिए पहले पेट में लंबा चीरा लगाया जाता था। इससे मरीज के पेट में 8 से 10 इंच का एक बड़ा निशान जिंदगीभर के लिए बन जाता था। अब दूरबीन से की गई सर्जरी में निशान होता भी है तो बहुत ही मामूली और कई बार तो वह दिखता भी नहीं है। ऑपरेशन के बाद मरीज को बहुत ही हल्के दर्द का एहसास होता है। दर्द इतना कम होता है कि किसी-किसी मरीज को दर्द की दवा की जरूरत भी नहीं पड़ती। ऑपरेशन के चार से छह घंटे के बाद ही मरीज को घर जाने की इजाजत मिल जाती है। यानी मरीज को कई दिन तक अस्पताल में रखा नहीं जाता। इससे अस्पताल के खर्च में तो कमी आती ही है, साथ ही रोगी का भी खर्च बचता है। ऊपर से रोगी को अस्पताल में होने वाली परेशानियों से छुटकारा मिल जाता है। अस्पताल भला किसको ठीक लगता है? अस्पताल तो लोग मजबूरी में आते हैं। जब मरीज को अस्पताल से छुट्टी मिलती है तो उसके चेहरे पर अलग चमक होती है। इससे उसको अपने रोग से लड़ने की ताकत मिलती है और वह जल्दी ठीक हो जाता है। नई तकनीक का यह एक बहुत बड़ा फायदा है।
उपचार
पथरी से होने वाली परेशानियों को कुछ समय के लिए तो दवाइयों से रोका या दबाया जा सकता है, लेकिन इनका स्थायी निदान सर्जरी ही है। पित्त और लिवर से संबंधित जितनी भी सर्जरी हो रही हैं, उनमें पथरी की सर्जरी सबसे अधिक होती है। अगर हम यह कहें कि पूरे विश्व में सबसे ज्यादा होने वाले ऑपरेशनों में एक यह भी है तो गलत नहीं होगा। पित्त की थैली में होने वाली परेशानियों का अध्ययन सबसे पहले 1420 में इटली की पैथोलॉजिस्ट अंटोनियो बोनेवियनि ने किया था। अगले 200 वर्ष तक इसका इलाज दवाइयों से ही होता रहा। 1630 में जाम्बेकरि और 1667 में तेचॉफ (इटली) ने जानवरों पर प्रयोग करके यह साबित किया था कि पित्त की थैल निकाल भी दी जाए तो उससे जीवन पर कोई खतरा नहीं रहता। 1687 में वोदेर वीएल ने पेट की एक सर्जरी के दौरान पित्त की थैली में पथरी की मौजूदगी का एहसास किया।
1733 में जीन जॉइस पेटिट ने पहली बार पथरी का ऑपरेशन किया। उन्होंने थैली को खोलकर उसके अंदर से पथरी को निकाला और फिर थैली को बंद कर दिया। इसे हम कोलेसिस्टोस्टोमी (ूँङ्म'ीू८२३ङ्म२३ङ्मे८) के नाम से जानते हैं। यही तरीका वर्षों तक चला। लेकिन इस ऑपरेशन के बाद भी मरीज की तकलीफें हमेशा के लिए खत्म नहीं होती थीं। 1882 में डॉ. लांगेंबच, जो जर्मनी के लजारस अस्पताल में कार्यरत थे, ने पहली बार ओपन कोलेसिस्टोस्टोमी की। उन्होंने थैली को पूरी तरह निकाल दिया था। इस ऑपरेशन को करने से पहले उन्होंने मृत मनुष्य देह पर इस तकनीक को बखूबी आजमाया था। यह सर्जरी कई लोगों पर सफल रही तो पूरी दुनिया में उनकी सराहना होने लगी। धीरे-धीरे यही तकनीक हर जगह अपनाई गई। 19वीं शताब्दी के आखिर में ऑपरेशन में दूरबीन का उपयोग शुरू हुआ। शुरू के दिनों में दूरबीन का उपयोग स्त्री रोग तक ही सीमित था। बाद में प्राय: हर ऑपरेशन में इस तकनीक को अपनाया गया।
1985 में जर्मनी के डॉ. मेढे रिच मुहे ने पहली बार दूरबीन विधि से ऑपरेशन करके पथरी को निकाला। उनके द्वारा किए गए इस ऑपरेशन का चलन अब पूरी दुनिया में है। आज यह सर्जरी के लिए प्रामाणिक तकनीक बन गई है। इस तकनीक में शुरुआत में 10 और 5 मिलीमीटर के दो-दो ट्रोकर (पेट के अंदर उपकरण डालने का रास्ता) इस्तेमाल होते थे। आज भी कुछ चिकित्सक इस विधि से ऑपरेशन करते हैं। पर अब इसमें काफी बदलाव हो रहे हैं। अभी बहुत सारे सर्जरी केंद्रों पर चार की जगह तीन, 10 मिलीमीटर की जगह 5 मिलीमीटर और पांच मिलीमीटर की जगह 2 मिलीमीटर ट्रोकर प्रयोग हो रहे हैं। इसे लघु दूरबीन विधि कहा जाता है। कई जगहों पर तो एक ट्रोकर के जरिए भी ऑपरेशन होने लगे हैं। अब तो इस ऑपरेशन के लिए विदेशों में एक और अति आधुनिक तकनीक प्रयोग होने लगी है। इसे 'नोट्स' (नेचुरल ओरिफाइस ट्रांसल्युमिनल एंडोस्कोपिक सर्जरी) कहा जाता है। इस तकनीक में शरीर के प्राकृतिक छिद्रों के जरिए उपकरण अंदर डालकर पथरी को निकाला जाता है। आने वाले समय में भारत में भी इस तकनीक का उपयोग अवश्य होगा।
(लेखक नई दिल्ली स्थित डॉ. राममनोहर लोहिया अस्पताल में सर्जरी विभाग में प्रोफेसर हैं)
पहले
' ऑपरेशन के बाद कई दिनों तक मरीज को अस्पताल में रहना
पड़ता था।
' इससे मरीज और अस्पताल, दोनों के खर्चे बढ़ जाते थे।
' दर्द काफी समय तक रहता था।
' मरीज को सामान्य जीवन पर लौटने में लगभग एक महीने का समय लग जाता था।
' चीरा लगने के बाद जीवनभर के लिए वहां निशान रह जाता था।
अब
' ऑपरेशन के चार से छह घंटे के बाद मरीज घर जा सकता है।
' इससे मरीज और अस्पताल, दोनों के खर्चे कम हो गए हैं।
' मामूली दर्द होता है, किसी मरीज को दर्द की दवाई खाने की जरूरत भी नहीं पड़ती।
' ऑपरेशन के दो-तीन दिन बाद ही मरीज सामान्य जीवन जी सकता है।
' शरीर में कहीं निशान तक नहीं रहता।
क्या है पित्त की थैली
पित्त की थैली हमारे पाचनतंत्र का एक अभिन्न अंग है। यह लिवर के निचले हिस्से में होती है। इसमें पित्त जमा होता है। जब हमारे भोजन में मौजूद तैलीय पदार्थ आंत के ऊपर आता है तो पित्त की थैली में से पित्त निकलता है और उसे पचाने में मदद करता है। पित्त की थैली में पथरी बनना आम बात हो गई है, खास करके पूर्वी भारत की थोड़ी मोटी महिलाओं में। दक्षिण भारत में यह बीमारी काफी कम है। 35 से 50 वर्ष की आयु में पथरी होने की संभावना ज्यादा रहती है। इसके अनेक कारण हैं, जैसे- शरीर में हामार्ेन का असंतुलित होना, तैलीय पदार्थ का अधिक सेवन करना आदि। पथरी होने पर पित्त की थैली सामान्य रूप से अपना काम नहीं कर पाती। इससे मरीज के लिवर वाले हिस्से में बार-बार दर्द होता है, उल्टी की शिकायत होती है, कभी बुखार भी हो जाता है, सर में भी दर्द रहने लगता है, खट्टी डकारें आने लगती हैं। अल्ट्रासाउंड इस बीमारी के लिए सबसे उपयुक्त जांच है।
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