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नीतीश की साफ ना है। माया भले कुछ मुद्रा धारण करें, बसपा में कुलबुलाहट शुरू हो चुकी है। हां, लालू और कांग्रेस जरूर बेचैन हैं, लेकिन उनकी बेचैनी के कारण दल की परिधि से परे पारिवारिक दलदल तक फैले हैं। इस पर भी येचुरी पूरी भागदौड़ में लगे हैं।
राष्ट्रपति पद के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की ओर से एक अप्रत्याशित किन्तु अत्यंत सशक्त नाम का आना ऐसा दांव है जिसने हांफते विपक्ष की सांसों को कुछ और फुला दिया है।
बेचैनियों के पहाड़ और इस सारी कसरत के बाद भी प्रश्न यह है कि जब लुटियन दिल्ली में सोनिया गांधी के नेतृत्व में विपक्ष की चरमराई हुई लामबंदी सिर जोड़कर बैठेगी तो उनके पास साख बचाने का कोई समीकरण होगा या सब सिर्फ एक दूसरे को दिलासा देकर लौट जाएंगे? सवाल इसलिए भी है क्योंकि जो कांग्रेस सबसे ज्यादा उलझन में है, पिछलग्गुओं को उसी में तारणहार दीख रहा है।
कहना होगा कि रामनाथ कोविंद, केवल नाम नहीं है, बल्कि यह तो वर्तमान विपक्षी राजनीति के अटपटेपन को उजागर करने वाला रामबाण उपाय साबित हुआ है। ऐसी राजनीति जो पहले समाज को, पिछड़ेपन को कचोटती है, आपस में लड़ाती है, फिर अपना उल्लू सीधा कर मुस्कुराती निकल लेती है।
नाम आ गया, पिछड़े की गोटी खेलने वाला विपक्ष पिछड़ गया। बौखलाए विपक्ष के प्रश्न भी इतने बोदे हो गए कि समाज की सतह पर तैरता हर उत्तर ज्यादा बड़ा प्रतिप्रश्न पैदा करता है-
प्र. नाम अनजाना है!
उ. अब राज्यपाल का नाम भी जिनके लिए अनजाना है, उनकी राजनीति का प्रभु ही मालिक है।
प्र. ऐसा नाम आगे कर सत्तारूढ़ दल 'पिछड़े' वर्ग की राजनीति करना चाहता है?
उ. यह नाम इस पद के लिए आगे आने से पहले भी सत्तारूढ़ दल की राजनीति और राजव्यवस्था का हिस्सा रहा है। फिर कोई दल यदि राजनीति में है तो उसे राजनीति क्यों नहीं करनी चाहिए? आप राजनीति की बजाय कुछ और करना चाहते हैं?
प्र. लेकिन योग्यता एक पैमाना तो है ही?
उ. …किन्तु संविधान का जानकार, ख्यात कानूनविद्, प्रशासनिक सेवा की प्रतिष्ठित नौकरी ठुकराकर जीवन में आगे बढ़ा व्यक्ति, पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जैसे प्रख्यात गांधीवादी के सादा-सरल निजी सचिव की पृष्ठभूमि, इस सोपान से पूर्व महामहिम की आभा… योग्यता में कसर कहां है?
प्र. फिर भी, अधिक योग्य लोग उपलब्ध थे!
उ. अधिकांश मामलों, खासकर पदों के मामले में ऐसा दावा करना संभव है। किन्तु क्या ठीक से कोई तुलना हो सकती है! आज अगर विपक्ष या मीडिया यह प्रश्न पूछता है तो उसे पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा देवी सिंह पाटिल नामक नाके से गुजरना होगा। एक परिवार के प्रति व्यक्तिगत वफादारी के अतिरिक्त तब और कौन-सा गुण परखा गया? पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह का मामला भी दिलचस्प है जिनकी शैक्षिक योग्यता बताने पर प्रसिद्ध लेखक मनोहर श्याम जोशी 'नप' गए थे। वैसे, जहां राजनीति की रेखाएं एक दूसरे को काटती हैं, वहां ये सवाल ज्यादा उठते भी हैं और फौरन बैठ भी जाते हैं। नेहरू युग के बाद जिस समय 'गूंगी गुडि़या' का पदार्पण हुआ, तब कांग्रेस में और 2001 में जब नरेंद्र मोदी को गुजरात भेजा गया, तब भी क्या ऐसे प्रश्न खड़े नहीं किए गए थे?
रही बात कतार की तो राजग में जारी मंथन और इसके उम्मीदवार का नाम घोषित होने तक यूपीए कोई एक नाम घोषित क्यों नहीं कर पाया..। लंबी माथापच्ची के बाद आपने नाम तय किया तब तक आपके साथी टूट गए! फिर कतार कहां है? यह कतार है या विपक्ष की कातर कराह!
प्र. हम उसी वर्ग से ज्यादा अच्छा नाम लाएंगे!
उ. क्षमा करें, यह भारतीय संविधान द्वारा निर्धारित व्यवस्था के शीर्ष पद का मामला है। अच्छे बहुमत के साथ बढ़ाए गए एक नाम पर अब नाहक विवाद बेमानी ही है। नगण्य क्षमता और बेवजह की जिद.. . 'उसकी कमीज मेरी कमीज से सफेद कैसे!' जैसी होड़ में घसीटने की कोई भी कोशिश, विपक्ष की खिल्ली जरूर उड़वाएगी।
प्र. फिर भी, उसी वर्ग से हमारा नाम ज्यादा अच्छा है!
उ. यह कौन तय करेगा? और आखिर उसी वर्ग से क्यों? फांक पैदा करने वाली सोच घटाते-घटाते आपको यहां तक ले आई कि राज्यों में आपका सर्वव्यापी दायरा अब केवल राजधानियों और चंद कोठरियों तक रह गया। राजनीति की बारहमासी धारा सूख कर मौसमी फिसलन भर बनकर रह गई। दूसरी ओर 'सबका साथ, सबका विकास' का नारा लगाते हुए राजनीति की दूसरी धारा मुख्यधारा के रूप में हरहरा रही है। ऐसे में 'मेरा नाम तेरे नाम से ज्यादा पिछड़ा' जैसे दांव लगाते रहेंगे या समाज और पार्टी के भले के लिए कुछ नया सोचेंगे?
बहरहाल, सेकुलर खेमे की राजनीति से प्रश्नों की जो लहरें इस चयन से पहले उठी हैं, उनके उत्तर के लिए जनता तट पर आना और पछाड़ खाकर ठंडा होना चयन के बाद भी जारी रहेगा। इस एक क्षण ने उस विडंबनाओं को ताजा कर दिया जिनसे मुंह फेरकर यह राजनीति चलती रही। विपक्ष को एक चोट और सही किन्तु राजग की ओर से बढ़ाया गया यह नाम समाज में भरोसा जगाने वाला और लोकतंत्र को मजबूत करने वाला है। क्योंकि समाज की टूटन में सत्ता का सपना देखने वाले दलों में ही 'दरार' नजर आ रही है। विभाजन और विद्वेष का अंकुर फूटने से पहले कुम्हला जाए, समाज के लिए इससे अच्छा और क्या होगा!
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