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यह एक राजनेता की हेकड़ी ही है जो एक पत्रकार को धकियाते हुए कहता है- एक मुक्का मारेंगे तो नीचे गिर जाओगे! यह एक भगोड़े कारोबारी की हेकड़ी ही है कि वह लंदन में पत्रकारों से कहता है- देखते रहो लाखों पाउंड के सपने! यह एक कंपनी की हेकड़ी ही है कि वह आर्थिक अनियमितता के गंभीर आरोपों को ‘मीडिया पर हमला’ बता कर आंखें तरेरने लगती है।
घटनाएं तीन हैं किन्तु तीनों ही जगह मीडिया के लिए शर्मनाक स्थितियां पैदा हुई हैं। इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे कि उपरोक्त तीनों ही प्रकरणों में आज जो कठघरे में हैं, चंद रोज पहले वही मीडिया में अपनी एक अलग ‘शान’ रखते थे।
क्या यह महज संयोग है कि एक झटके में रुतबेदारों के रुतबे कलंक बन गए? प्रश्न है, यदि चमक थी तो क्यों थी, और यदि कलंक था तो अब तक दबा कैसे था? हैरानी नहीं कि आज सोशल मीडिया के विविध मंचों पर जनता का यह तीखा, कसैला प्रश्न सबसे पहले मीडिया से है। मुख्यधारा कहते हुए तन जाने वाले मीडिया के उस वर्ग से जिसने ‘सबसे पहले’ और ‘ब्रेकिंग न्यूज’ की धमाचौकड़ी तो खूब मचाई किन्तु जाने-अनजाने वह इस हड़बड़ी में कुछ सबसे महत्वपूर्ण सवाल भुला बैठा।
यह क्या कम शर्म की बात है कि खबर सूंघने का दावा करने वालों ने दिल्ली में तख्तापलट के लिए सैन्य हलचल की फर्जी खबर तो चलाई, लेकिन बड़े-बड़े नामों और उनके काले कारनामों की सड़ांध का उन्हें पता तक नहीं चला!
यह कहना पूरी तरह गलत नहीं होगा कि तब की यह ऊंघ और अनमनापन इसके पीछे है। गलत लोगों को उनकी गलतियों के बावजूद ‘सुर्खियों की शान’ बनाना, बने रहने देना ही आज दिख रही लज्जास्पद स्थितियों का कारण बना है। लालू प्रसाद यादव की कुख्यात अपराधी शहाबुद्दीन से यारी कोई नई बात नहीं है। यह दीगर बात है कि दोनों के बीच बातचीत के टेप अभी चले हैं, लेकिन क्या यह सच नहीं है कि मीडिया के पास ये टेप पहले से मौजूद थे और कुछ लोग इन पर कुंडली मारे बैठे थे?
बैंकों से लिए कर्ज के पहाड़ पर बैठे विजय माल्या अरसे से आर्थिक अनुशासन की धज्जियां उड़ा रहे थे, लेकिन मीडिया को ‘कायदे से’ उनके कारनामे तब दिखे जब देश में बड़े राजनीतिक परिवर्तन के बाद वे परदेस को ‘उड़’ गए।
क्या यह सच नहीं है कि मीडिया कंपनी से जुड़े आर्थिक अनियमितताओं के आरोप भी काफी पुराने हैं और अरसे तक इन पर भी खुलकर कुछ कहा ही नहीं गया।
यानी हल्ला भले ताजा हो, दाग पुराने ही हैं। ये प्रकरण ठीक से अब उजागर हुए हैं इसलिए शोर मच रहा है, बौखलाहट दिख रही है। और संभवत: इसीलिए दागदारों के लिए शांति और सहयोग के पर्याय रहे मीडिया या सरकार के जिन कोनों से अब तक ‘जनता के सुनने लायक’ आवाज नहीं उठी थी, उन्हें भी पक्षकार की तरह इंगित कर भड़ास निकाली जा रही है।
यह देखने वाली बात है कि केंद्र में भाजपानीत राजग सरकार आने के बाद से भ्रष्टाचार और कालेधन के विरुद्ध लगातार अभियान चल रहा है। शपथ ग्रहण के बाद राजग मंत्रिमंडल ने जो पहला काम किया, वह था सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति एम.बी. शाह की अगुआई में कालेधन का पता लगाने के लिए विशेष जांच दल का गठन। ऐसे में नामी लोगों की ताजा बौखलाहटों को आर्थिक अनियमितताओं के आरोपों के दर्पण में देखा जाना चाहिए। लालू लाख भदेस नेता हों लेकिन उनकी मसखरी न तो अब ‘टीआरपी’ है और न मीडिया को हड़काने से उनके दाग दब सकते हैं। उन्हें जवाब देने होंगे। माल्या चाहे जितने चहकें, वे यह जानते हैं कि अब उनके कैलेंडर और पार्टियों पर बहके-बहके शीर्षकों के दिन लद चुके हैं। सात समंदर पार भी भारतीय न्याय व्यवस्था के हाथ उनकी ओर बढ़ रहे हैं। वे और ज्यादा दूर नहीं भाग सकते।
प्रेस क्लब के बाहर आर्थिक अनियमितताओं के आरोपों से घिरी कंपनी का मजमा लगाने वाले भी यह सच जानते हैं कि उनके मजमे में मुख्यधारा कहलाने वाले मीडिया की अनुपस्थिति ने सारी स्थिति साफ कर दी है। मामला कंपनी से जुड़ा है, पत्रकारिता से नहीं। बही की गड़बड़ी सुर्खियों के मत्थे कैसे मढ़ी जा सकती है।
सो, कहना होगा कि रसूखदारों की ताजा हड़बड़ाहट उनकी करनी का फल है। सरकार और मीडिया ने पहले खबर ली होती तो नामी लोग बदनामी के बाटों से पहले ही तुल गए होते। लेकिन जब हो, तब भला। जांच, धरपकड़ और कानून का पालन लगातार होने वाले ऐसे काम हैं जिनके लिए मुहूर्त नहीं देखा जाता।
बहरहाल, राजनीति या मीडिया का अपना एक चरित्र और प्रतिबद्धता है, यह बात भूलकर जिन्होंने इसे भी किसी अन्य पेशे की तरह धंधा और मुनाफे का ‘शार्टकट’ मान लिया था, आज उनके बुरे दिनों की आहट है। इसे लोकतंत्र और मीडिया के लिए शुभ संकेत, अच्छे दिनों की पदचाप के तौर पर सुना जाए तो बुराई क्या है!
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